कबीला तंत्र से लेकर देश और राष्ट्र
तक की अवधारणा के लिए समाज के एक विशाल संकुल को दीर्घ यात्रा करनी पड़ती है । मानव
इतिहास में यह यात्रा बहुत संघर्षपूर्ण रही है, यात्रा अभी पूरी नहीं हुयी है, कभी
पूरी होगी भी नहीं । जिस युग में पश्चिमी समाज धार्मिक नियंत्रण से शासनतंत्र को
मुक्त करने के लिए संघर्षरत था उससे सहस्रों वर्ष पूर्व आर्यावर्त्त में देश और
राष्ट्र की अवधारणायें विकसित हो अपने मूर्त रूप में स्थापित हो चुकी थीं । आर्यावर्त्त
भारत एक राष्ट्र के रूप में स्थापित् हो चुका था जिसमें कई राजे-रजवाड़े अपनी
स्वतंत्र सत्ता के साथ राज्य करते थे । जब ऋग्वेद के श्री सूक्त में "प्रांदूर्भूतोस्मि
राष्ट्रेस्मिन कीर्ति वृद्धि ददातु मे” कहा गया तो राष्ट्र की कीर्ति के लिए
व्यक्ति के दायित्वों का निर्धारण कर दिया गया । आगे चलकर यजुर्वेद में इसे "वयं
राष्ट्रेतरग्रयाम पुरोहिता:" कहकर परहित के लिए स्वस्फूर्त चेतना से आगे आने
के संकल्प में समूह की भूमिका को और भी स्पष्ट कर दिया गया । पुनः अथर्ववेद में जिस
‘उत्तम निज’ की सहभागिता, यथा- “अहं
राष्ट्रे स्यामिवर्गे निजी भूयासमुत्तम:” का उल्लेख है वह भी राष्ट्र के प्रति
व्यक्ति के दायित्वों की गम्भीरता को रेखांकित करता है ।
वैदिक युग में व्यष्टि, समाज और
समष्टि को लेकर न केवल प्रखर चिंतन किया गया अपितु उसे व्यवहार योग्य भी बनाया गया
जिसके परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति ने देशिक सीमाओं से परे भौगोलिक सीमारहित
राष्ट्र की स्थापना कर मानव संस्कृति के शिखर को स्पर्श किया । पश्चिमी जगत ने सत्रहवीं
शताब्दी में देश और राष्ट्र की अवधारणाओं पर अपने तरीके से चिंतन की एक नयी पहल की
। कुछ लोगों ने भौतिक ‘देश’ को सांस्कृतिक ‘राष्ट्र’ का पर्याय स्वीकार किया तो
कुछ लोगों ने राष्ट्र की अवधारणा को भौतिक सीमाओं और वैचारिक विस्तार से जोड़ते
हुये समाज के लिये अहितकारी निरूपित किया । राष्ट्र विषयक यह विमर्श अब भारत में
भी व्यापक हो चुका है । भारत में राष्ट्र की स्पष्ट, व्यापक और निर्दुष्ट अवधारणा
के होते हुये भी स्वतंत्रता के पश्चात् से ही दिल्ली के दोनों प्रमुख विश्वविद्यालयों
में वहाँ के विद्वानों द्वारा पश्चिमी देशों का अनुसरण करते हुये राष्ट्र की
अवधारणा को मानव समाज के लिए शोषणमूलक एवं अन्यायकारी प्रचारित किये जाने का
केन्द्र स्थापित कर लिया गया । पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित दिल्ली के जवाहरलाल विश्वविद्यालय
और दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक भारत की सांस्कृतिक चेतना और जीवनमूल्यों के
विरुद्ध युवा अध्येताओं की एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं जो भारत को समाप्त कर
देगी । भौगोलिक सीमायें देश को निर्धारित करती हैं, सांस्कृतिक चेतना राष्ट्र को
निर्धारित करती है । देश की रक्षा के लिए सांस्कृतिक चेतना अनिवार्य है ।
समान हितों एवं समान सामाजिक लक्ष्यों
के लिये समान उपायों में विश्वास रखने वाले विभिन्न संकुलों का विस्तार जिस
भौगोलिक सीमा को स्पर्श करता है उसे हम एक देश मानते हैं । जबकि राष्ट्र तो देश की
सीमाओं से परे सांस्कृतिक चेतना की एक अनुभूति है । राष्ट्र की अवधारणा में सांस्कृतिक
चेतना के साथ जीवनमूल्यों और पूर्वजों की पारम्परिक सभ्यता में समानता की भावना
प्रमुख है । समानतायें राष्ट्र की समृद्धि करती हैं जबकि विषमतायें राष्ट्र का
ह्रास कर उसके विखण्डन का कारण बनती हैं । देशों और प्रांतों की भौगोलिक सीमाओं
में परिवर्तन होते रहे हैं । वैदिक काल में राष्ट्र की सीमायें जनपदों और देशों की
सीमाओं से परे हुआ करती थीं । तब सांस्कृतिक और धार्मिक समानताओं ने राष्ट्र को एक
विराट स्वरूप प्रदान किया था । धार्मिक विषमताओं ने इस विराटता को सीमित करते हुये
समय-समय पर राष्ट्र के स्वरूप में भी परिवर्तन किया है ।
देशप्रेम, अपनी धरती और उस पर उपलब्ध
सभी संसाधनों एवं अपने जैसे लोगों के प्रति वह रागात्मक भाव है जो साहचर्य के साथ
लोककल्याण हेतु स्वयं को उत्सर्ग के लिये प्रस्तुत करता है । यह मनुष्य का एक
गुणात्मक और स्वाभाविक तत्व है जो हमें आपस में एक-दूसरे के प्रति उदार और ग्राह्य
बनाता है ।
जब हम भारत राष्ट्र की बात करते हैं
तो उसमें समान विचारधारा, समान संस्कृति, समान जीवनमूल्यों और समान उद्देश्यों
वाले विभिन्न देशिक संकुलों के हितों का भाव होता है । राष्ट्र के साथ सभ्यता और
संस्कृति की सुरक्षा का भाव जुड़ा हुआ है । भारत देश का कोई व्यक्ति नेपाल, मॉरीशस,
श्रीलंका, मलेशिया, थाईलैण्ड आदि देशों में ऑस्ट्रेलिया, यूके, ज़र्मनी आदि देशों
की अपेक्षा कहीं अधिक सहज और सुरक्षित अनुभव करता है । वास्तव में हमें राष्ट्र की
अवधारणा को भौगोलिक सीमाओं से परे व्यापक रूप में समझना होगा । योरोपीय संघ की
स्थापना योरोपीय राष्ट्र की अवधारणा का बीज है । किसी भी भूभाग के निवासियों के सांस्कृतिक
विकास और उत्थान में उस भूभाग की प्राकृतिक परिस्थितियों, प्राकृतिक संसाधनों, सामूहिक
साहचर्य, पर्व-उत्सव, सामाजिक मान्यताओं और जीवनशैली जैसे आवश्यक तत्वों का संयोग अपेक्षित
होता है । समान सभ्यता और समान संस्कृति वाले लोग विस्थापन के समय राष्ट्रीय
विस्तार को भी अपने साथ ले जाते हैं जो कभी-कभी स्थानीय समुदायों के साथ संघर्ष का
कारण बनता है । उनकी आस्थायें अपने मूल देश के साथ जुड़ी होती हैं और वे अपने मूल
देश के प्रति अधिक जुड़ाव का अनुभव करते हैं ।
भारत के सन्दर्भ में देखें तो सातवीं
शताब्दी से यहाँ दो राष्ट्र विकसित हो रहे हैं । एक है मूल भारत और दूसरा है
विदेशी अरब जिसे यहाँ अधिरोपित किया गया । दोनों सभ्यताओं, संस्कृतियों और
जीवनमूल्यों में धरती-आकाश का अंतर है जिनके पारस्परिक टकरावों के कारण भारत में लगातार
घरेलू संघर्ष एवं अशांति की स्थिति बनी हुयी है । योरोपीय लोग भारत में शासक बन कर
रहे किंतु वे यहाँ ब्रिटिश राष्ट्र को अधिरोपित नहीं कर सके । मोहम्मद अली जिन्ना
ने सभ्यताओं के इस मूल अंतर और उसके कारण सम्भावित संघर्षों और अहितों को समझने की
भूल नहीं की किंतु भारत विभाजन के समय इस तरह की सैद्धांतिक और व्यावहारिक भूल
करने में गांधी और नेहरू की अदूरदर्शिता का भरपूर योगदान रहा । राष्ट्र के मौलिक
तत्वों और किसी संस्कृति के अस्तित्व के लिये राष्ट्र के अस्तित्व की आवश्यकता को
इज़्राइलियों से अच्छा और कौन समझ सकता है भला ! वहीं, राष्ट्र खोने की पीड़ा को
ज़ोरोस्ट्र से अधिक और कौन जान सकता है !
भारतीय मुसलमान भारत देश से प्रेम
करते हैं किंतु जब भारत राष्ट्र से प्रेम के बात आती है तो उनका प्रेम अरब राष्ट्र
के प्रति उमड़ता हुआ दिखायी देता है । उनके धर्म गुरु ही नहीं शिक्षित मुस्लिम समुदाय
के लोग भी मोहम्मद बिन क़ासिम और बख़्तियार ख़िलज़ी को अपना आदर्श मानते हैं । तैमूर
लंग, बाबर और औरंगज़ेब जैसे लोग भी भारतदेश से प्रेम करते रहे होंगे किंतु
भारतराष्ट्र के प्रति उनका शत्रुभाव स्वयंप्रकाशित है । पुनः स्पष्ट कर दूँ, भारत
देश से प्रेम का अर्थ है यहाँ की भौतिक सम्पदा और उसकी सुरक्षा से प्रेम जबकि भारत
राष्ट्र से प्रेम का अर्थ है यहाँ की सभ्यता और संस्कृति से प्रेम ।
मध्य एशिया में अरब की धरती पर ईसवी सन्
629 से 632 के मध्य मोहम्मद साहब द्वारा किये गये ज़िहादी युद्धों एवं उनके पश्चात्
उनके अनुयायियों द्वारा अफ़्रीका, योरोप, एवं अन्य एशियायी देशों में इस्लामिक
विस्तार हेतु किये गये सतत युद्धों की श्रृंखला ने पूर्व राष्ट्रीय चेतना को
आरोपित राष्ट्रीय चेतना में परिवर्तित करने का कार्य किया । पिछले चौदह सौ वर्षों में
धर्मांतरण के साथ आने वाली नयी जीवनशैलीजन्य वैश्विक उथल-पुथल में इस्लामिक
राष्ट्रवाद ने राष्ट्र की अवधारणा को एक नया स्वरूप दे दिया जबकि साम्यवादी
सिद्धांतों के पोषक भारतीय बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने भारतीय राष्ट्रवाद को ही प्रश्नों
के घेरे में खड़ा कर दिया है । भारतीय राष्ट्रवाद के प्रचण्ड विरोध के साथ भारत को
विखण्डित कर एक वैश्विक राष्ट्र की कल्पना की जाने लगी है, जिसमें सब कुछ वैश्विक
होगा... वैश्विक संस्कृति, वैश्विक सभ्यता, वैश्विक समाज व्यवस्था, वैश्विक शासन
व्यवस्था... स्थानीय कुछ भी नहीं । यह परिकल्पना पूरी तरह अवैज्ञानिक और
अव्यावहारिक है । साम्यवादियों के लक्ष्य पर भारत की संस्कृति, सनातन मान्यतायें
और व्यवस्थायें हैं जिसे पूरी तरह नष्ट करने के लिये “विश्ववाद” का छल किया जा रहा
है । विश्ववादी जब भारतीय मूल्यों और सनातनधर्म के प्रति आक्रामक होते हैं ठीक उसी
समय वे इस्लामिक राष्ट्रवाद के विस्तार पर मौन रहते हैं । उनका यह एकांगी विश्ववाद
एक बहुत बड़ा बौद्धिक छल है जिसके जादुई प्रभाव में भारत की युवापीढ़ी भटकती जा रही
है । युवा पीढ़ी को समझना होगा कि एक आदर्श स्थिति होते हुये भी विश्व को “एक
राष्ट्र” बनाया जा सकना सम्भव नहीं है, राष्ट्र का आधार सभ्यता, संस्कृति और
सामाजिक मूल्य हैं जिनका विस्तार देश की भौगोलिक सीमाओं से परे होता है ।
हम सहज विकसित सभ्यता, संस्कृति, सामाजिक
मूल्यों, वैवाहिक सम्बन्धों, आध्यात्मिक चेतना और दार्शनिक मान्यताओं आदि के आधार
पर राष्ट्र की बात करते हैं जबकि इस्लामिक ज़िहादी राष्ट्रविस्तार के आधार पर
सभ्यता, संस्कृति और मूल्यों के अधिरोपण की बात करते हैं । वहाँ स्वाभाविक विकास
नहीं, हत्या और बलात्कार के साये में थोपा हुआ परिवर्तन है । भारत में
साम्यवादियों का इस्लामिक प्रेम और हिन्दुओं के प्रति उनकी घृणा अब स्पष्ट हो चुकी
है । वर्तमान में सीरिया और ईराक़ में ग़ैर-इस्लामिक लोगों का नस्लीय उन्मूलन इस्लामिक
राष्ट्रवाद के सिद्धांतों का प्रत्यक्ष प्रमाण है । जबकि भारत के अतिरिक्त नेपाल, भूटान,
म्यांमार, श्रीलंका, जावा, सुमात्रा, मलाया, मॉरीशस एवं फ़िज़ी आदि की सम्प्रभुता
सनातनी भारतीय राष्ट्रवाद के आदर्श के प्रमाण हैं । इस्लामिक राष्ट्रवाद ने पर्सिया
की तरह अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश का धर्मांतरण के माध्यम से ही राष्ट्रांतरण
कर भारत राष्ट्र से विखण्डित कर दिया । इस्लामिक राष्ट्रवाद के कारण ही कश्मीर
घाटी दशकों से अशांत और हिंसक बनी हुयी है । वर्तमान में सांस्कृतिक और धार्मिक
टकरावों से भारत का देशिक और राष्ट्रीय अस्तित्व एक बार पुनः संकटपूर्ण हो गया है
। जावा, सुमात्रा और मलाया जैसे देश धर्मांतरण के बाद भी अपने राष्ट्रीय तत्व को
सहेज कर रख सकने में किंचित सफल हुये हैं वे आज भी अपने मूल राष्ट्र के सांस्कृतिक
मूल्यों से जुड़े हुये हैं जबकि पाकिस्तान ने अधिरोपित राष्ट्र के सांस्कृतिक
मूल्यों को स्वीकार करना अधिक लाभदायक माना । यह इस बात को इंगित करता है कि
राष्ट्रीय चेतना में वैयक्तिक चिंतन का कितना प्रभाव होता है ।
मध्य एशिया में इस्लामिक राष्ट्रकूटों
के ग़ैर इस्लामिक मूल कबीले अपनी पृथक पहचान के लिये आज भी संघर्षरत हैं । यदि
इस्लाम न होता तो शायद पूरे विश्व की कबीला संस्कृतियों का अस्तित्व सुरक्षित बना
रहता । इस्लामिक राष्ट्र के विस्तारयुद्ध में बचे-खुचे मूल कबीले अपनी राष्ट्रीय
पहचान क़ायम नहीं रख सके जिसके कारण यहूदी, कुर्द, यज़ीदी, और शॉबेक आदि का अस्तित्व
ही संकटपूर्ण हो गया है । इस बीच यहूदियों ने अपने राष्ट्रीय अस्तित्व के लिये सफल
संघर्ष किया जो विश्व के भारत जैसे अन्य संकटग्रस्त राष्ट्रों के लिए एक प्रेरक
उदाहरण है ।
धर्मांतरण से आक्रांता देश की सीमायें
क्षीण होती हैं जबकि आक्रामक राष्ट्र की सीमाओं का विस्तार होता है । राष्ट्र की
सीमाओं का विस्तार विस्थापन और पलायन से भी होता है जैसा कि ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका,
मॉरीशस, सूरीनाम, फ़िज़ी और गुयाना आदि देशों का हुआ है । जब इस्लामिक राष्ट्र की
बात होती है तो राष्ट्र का एक असहिष्णु स्वरूप उभरता है जिसमें ग़ैर-मुस्लिम लोगों
का अस्तित्व और उनका राष्ट्रबोध संकटग्रस्त कर दिया जाता है । यहाँ विस्तार है,
हिंसा है, युद्ध है और मनुष्यता के लिये संकट है । जब सनातनी भारतीय राष्ट्र की
बात होती है तो भारत से लेकर गुयाना और सूरीनाम तक कई देशों का एक उदार एवं
ग्राह्य स्वरूप उभरता है जिसमें विविध विचारधाराओं का स्वागत और सम्मान है । यहाँ
सहिष्णुता है, अहिंसा का आग्रह है, शांति की आकांक्षा है और निःशर्त मानवीय
मूल्यों के संरक्षण की आश्वस्ति है ।
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