दिल्ली के रामजस कॉलेज में 21-22
फ़रवरी को “विरोध की संस्कृति” पर एक बड़ी सम्भाषा होने वाली थी, देशभक्त उमर ख़ालिद
के आमंत्रण के विरोध के कारण नहीं हुयी । किंतु बिहार में “विरोध की संस्कृति” पर
एक डिमॉंस्ट्रेशन ने सम्भाषा की कमी को पूरा कर दिया जहाँ एक माननीय मंत्री जी ने माननीय
प्रधानमंत्री को जूते मारने का आह्वान किया । भक्तों ने पहले से ही तैयारी कर ली
थी, एक भक्त ने अनुशीलन करते हुये प्रधानमंत्री की फ़ोटो को जूते से जी भर पीटा,
कैमरे की तरफ़ अपना चेहरा दिखा-दिखा कर पीटा, क़ानून को ठेंगा दिखाते हुये पीटा,
पूरी ग़ुस्ताख़ी के साथ पीटा, बड़ी बहादुरी की भावभंगिमा के साथ पीटा ।
यह भारत
के लोकतंत्र की यात्रा का एक दृश्य है । हम इसे नफ़रत की खेती की फ़सल नहीं कहेंगे
बल्कि भारत का सांस्कृतिक और चारित्रिक विकास कहेंगे ।
यह एक
लोकतांत्रिक आज़ादी है, यह अभिव्यक्ति की आज़ादी है, यह कुछ भी करने की आज़ादी है ।
अब उमर ख़ालिद, शेहला रशीद शोरा, अपराजिता राजा, कन्हैया, मणिशंकर, खड़गे... आदि आदि
को प्रसन्न होना चाहिये कि उनकी मुराद पूरी हुयी... उन्हें आज़ादी प्राप्त हो
गयी... बिना खड्ग बिना ढाल प्राप्त हो गयी... पूरे गांधीवादी तरीके से प्राप्त हो
गयी... अहिंसा की ताक़त के भरोसे प्राप्त हो गयी ।
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