हम मानते हैं कि ‘सामाजिक समानता’ समाज की एक उच्च आदर्श
स्थिति है । यद्यपि व्यावहारिक धरातल पर इस स्थिति को अपने पूर्ण आदर्श स्वरूप में
प्राप्त कर सकना सम्भव तो नहीं तथापि सामाजिक समानता की अधिकतम स्थिति को प्राप्त
करना सम्भव है और इसके लिये सत्ता एवं समाज को मिलकर आगे बढ़ना चाहिये । भारतीय
सभ्यता के विभिन्न युगों में इस दिशा में प्रयास किये जाते रहे हैं और उनमें
सफलतायें भी मिलती रही हैं जिसके स्पष्ट प्रमाण प्राचीन भारतीय समाज व सत्ता
व्यवस्था के इतिहास से प्राप्त होते हैं ।
ओट्टोमन साम्राज्य के अंतिम दिनों में योरोपीय देशों में
वहाँ की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के विरुद्ध क्रांतियों की एक श्रृंखला
प्रारम्भ हुयी । तत्कालीन व्यवस्थाओं के विरुद्ध विभिन्न वैचारिक सिद्धांत
अस्तित्व में आये । इसी श्रृंखला में ज़र्मन विचारकों ने अन्याय और शोषण विहीन समाज
की संरचना पर नये सिरे से चिंतन करना प्रारम्भ किया ।
ईसवी सन 1818 में जन्मे कार्ल मार्क्स ने पूर्व दार्शनिकों
और समाजशास्त्रियों चार्ल्स फ़ोरियर, जॉर्ज़ विलहेम फ़्रेडरिक हेगल, और फ़्रेडरिक एंजेल
आदि की वैचारिक पृष्ठभूमि को आगे बढ़ाते हुये एक वैश्विक समाज व्यवस्था की कल्पना
की । बाद में मार्क्स की विचारधारा को और समृद्ध करते हुये कार्ल ल्यूकेक्स, कार्ल
ग्रूनबर्ग, हेनरिक ग्रॉसमैन, फ़्रेडरिक पोलोक, मैक्स हॉरख़ेयमर, थियोडोर अडोर्नो और हर्बर्ट
मार्क्यूज़ आदि चिंतकों ने कुछ अंतर्विरोधों के सा थ आगे बढ़ाया । वर्तमान में इस
परम्परा के ज़ुर्गेन हॅबरमास नव-मार्क्सवाद के पुरोधा बनकर उभरे हैं ।
इस बीच नवमार्क्सवाद को आगे बढ़ाने के लिए 1923 में कार्ल ल्यूकेक्स
और फ़ेलिक्स वेल द्वारा फ़्रेंकफ़र्त में एक शोध संस्थान की स्थापना की गयी । कार्ल
ल्यूकेक्स की विचारधारा ने सामाजिक समानता के अतिवाद को अपनाया जिसे नव साम्यवाद
के नाम से जाना गया । यह विचारधारा मनुष्य और प्रकृति से जुड़े सभी विज्ञानों और
सिद्धांतों का सामान्यीकरण करती है अर्थात् प्राकृतिकविज्ञानों (Natural sciences) के सार्वभौमिक
सिद्धांतों की तरह ही समाजविज्ञान के सिद्धांतों को भी देश-काल-समाज-परम्परा आदि
से निरपेक्ष सार्वभौमिक स्वीकारते हुये पूरे विश्व के सभी समाजों की एक समान
व्याख्या करती है । जबकि फ़िज़िक्स के सिद्धांतों की तरह समाज के सिद्धांतों का
सामान्यीकरण किया जाना एक अवैज्ञानिक चिंतन और अव्यावहारिक प्रयास है । यहाँ यह
समझना भी आवश्यक है कि अभी तक हुये शोध कार्यों से यह ज्ञात हुआ है कि आधुनिक
प्राकृतिक विज्ञानों की ब्रह्माण्डीय व्यापकता सिद्ध नहीं हो सकी है ।
ब्रह्माण्डीय घटनाओं में कुछ ऐसी भी घटनायें होती हैं जहाँ धरतीवासियों के फ़िज़िक्स
के सिद्धांत उनकी व्याख्या कर पाने में असफल रहते हैं । धरती पर भी बारमूडा
त्रिकोण के क्षेत्र में आधुनिक फ़िज़िक्स के सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं । ऐसी
स्थिति में “मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना” वाले मनुष्य समूह में कोई व्यवस्था पूरी धरती
के लिए लागू किया जा सकना कितना वैज्ञानिक हो सकता है ?
समाज के सभी नियमों और परम्पराओं का सामान्यीकरण किया जाना
मानव स्वभाव की विविधताओं को समाप्त कर देना है । मार्क्समूलक वैश्विक समाज की
रचना भी मानव स्वभाव की इस विविधता को स्वीकार नहीं करती । उत्तरमार्क्स काल (post-Marx-period) में विविधता की अस्वीकार्यता इतनी प्रचण्ड हो उठी कि लिंगभेदमुक्त
समाज के साथ-साथ लिंगमुक्त (Gender free) समाज की भी माँग़ उठने लगी । स्त्री-पुरुष के लैंगिक भेद को
अभेद मानते हुये समलैंगिक यौनसम्बन्धों (Homosexuality) की प्रशस्ति की जाने लगी, समलैगिक सम्बन्धों को प्राकृतिक
माना जाना लगा, यौन सम्बन्धों की वर्जनाओं को तोड़ते हुये स्वेच्छाचारिता एवं
मुक्तयौन सम्बन्धों (Free sex) को प्रमुखता दी जाने लगी, विवाहपूर्व यौन सम्बन्धों (pre-marital sexual relations) को नैतिकता के
बन्धन से मुक्त माना जाने लगा, अवैवाहिक साहचर्य (Live in relationship) एवं विवाहेतर साहचर्य (extra-marital relations) की वकालत की जाने लगी । अप्राकृतिक यौनाचारों से जुड़ी
नैतिकता को कुंठा का कारण मानते हुये यौनाचारों के अप्राकृतिक होने की सम्भावनाओं
को ही अमान्य कर दिया गया । एक ऐसे विश्व की रचना के प्रयास किये जाने लगे जहाँ
मनुष्यों को भी पशुओं की तरह स्वैच्छिक यौन सम्बन्धों की स्वतंत्रता होती है ।
मार्क्स बाबा यथास्थिति के विरोधी थे । उनका विचार था कि
सारी समस्याओं का मूल यथास्थिति में ही है । बाबा के शिष्य “आलोचना एवं विरोध की
संस्कृति” को लेकर सत्ता, समाज, धर्म, परिवार और विवाह तक पहुँच गये ।
उत्तरमार्क्सवाद व्यक्ति की जिस स्वतंत्रता की कल्पना करता है, न केवल उसका स्वरूप
विकृत और वीभत्स है अपितु उसके परिणाम और भी विकृत एवं वीभत्स हैं । आप कल्पना
कीजिये, जिस समूह में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के लिए बिना किसी मर्यादा के उपलब्ध
होंगे क्या वहाँ एक अराजकता और अव्यवस्था उत्पन्न नहीं होगी ? मार्क्स व्यक्तिगत
स्वतंत्रता के लिए व्यक्तिगत प्रेम की हत्या कर देने के पक्षधर थे । उनका विचार था
कि व्यक्तिगत प्रेम के कारण ही लोग भ्रष्टाचार की ओर बढ़ते हैं । जब
माता-पिता-पुत्र-पुत्री जैसा कोई सम्बन्ध ही नहीं होगा तो भ्रष्टाचार का प्रश्न ही
नहीं उठता । उत्तरमार्क्सयुग के विद्वानों द्वारा इसकी व्याख्या को एक नया आयाम
दिया गया जिसके अनुसार यौन सम्बन्ध तो रखे जाने चाहिये किंतु स्त्री-पुरुष के बीच
पति-पत्नी, माता-पिता या भाई-बहन जैसे कोई सम्बन्ध नहीं होने चाहिये ।
मार्क्स बाबा ने जिस मनुष्य समूह की कल्पना की है वह एक
भयावह चित्र उपस्थित करता है, इस चित्र में अव्यवस्था है, अमर्यादा है, अराजकता है
और संस्कृति की शून्यता है । यूँ, मार्क्स बाबा की दृष्टि में मनुष्य जीवन के लिए
संस्कृति और धर्म की कोई आवश्यकता नहीं हुआ करती ।
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