शनिवार, 15 नवंबर 2025

आतंकवाद- विवशता, प्रतिक्रिया या विश्वास

नाम - आफिया सिद्दीकी, *न्यूरोसर्जन*

जन्म - २ मार्च १९७२, कराची, सिंध, पाकिस्तान
शिक्षा - मैसाचुएट्स इंस्टीट्यूट्स आॅफ़ टेक्नोलाॅजी से बी.एस. ; ब्रांडीज यूनिवर्सिटी से न्यूरोसाइंस में पीएच.डी.
कार्य - समाज सेवा
प्रियकार्य- कट्टर इस्लामिक जिहाद
इस्लामिक दायित्व - इंस्टीट्यूट आॅफ़ इस्लामिक रिसर्च एंड टीचिंग की बोर्ड मेंबर।
सांप्रदायिक धारा - कट्टरसुन्नी
उपाधि- लेडी अल-क़ायदा
वर्तमान स्थिति - जिस अमेरिका से शिक्षा ग्रहण की उसी के विरुद्ध अफ़ग़ानिस्तान जाकर जिहाद किया। अमरीकी सेना के अधिकारियों की हत्या के प्रयास में गजनी में पकड़ी गयी और फ़ेडरल मेडिकल सेंटर, कार्सवेल, टेक्सास में ८६ वर्ष का कारावास भोग रही है।
सामाजिक प्रतिष्ठा- *पाकिस्तान से लेकर अमेरिका तक आफिया की मुक्ति के आंदोलन चल रहे हैं जिसमें खालिस्तान के पीले झंडे भी चमकते दिखाई देते हैं*।

आफिया का विश्वास है कि धरती पर मुसलमान के अतिरिक्त अन्य किसी को जीने का अधिकार नहीं है। वह पूरी दुनिया को सुन्नी बनाने में विश्वास रखती है। वह फिलिस्तीन की समर्थक है और उसे स्वतंत्रदेश के रूप में मान्यता दिलाने के लिये प्रयासरत है।
*जो लोग काफिरों को जीने का अधिकार नहीं देना चाहते वे अपने स्वयं के जीने के मानवीय अधिकारों के लिये आंदोलन कर रहे हैं।*
*इधर भारत में जो कहते थे कि अशिक्षा और निर्धनता लोगों को आतंकवादी बनाती है, वही विद्वान अब कहने लगे हैं कि मोदी सरकार मुसलमानों को आतंकवादी बनने के लिए विवश करती है*।
जनता को तय करना है कि कराची की न्यूरोसर्जन डाॅक्टर आफिया सिद्दीकी को अमेरिका में आतंकवादी किसने बनाया, मोदी ने या वहाँ के सत्ताधीशों ने?

*कुछ लोग मानते हैं कि सिद्दीकी उत्तर भारत के कायस्थ थे जो मुसलमान बन गये। हिंदू से मतांतरित होकर मुसलमान बने लोगों को अरब के लोग मुसलमान नहीं मानते, वे उन्हें कट्टर और आतंकवाद प्रेरित मानते हैं। पाकिस्तान बनाने के पीछे ऐसे ही लोगों का हाथ था जिनका इस्लाम से कोई लेना देना नहीं था।*

मंगलवार, 11 नवंबर 2025

आर्यों का इतिहास - गौरवपूर्ण या कलंकित

कोई देश जब पराधीन होता है तो वहाँ के निवासी सबसे पहले अपने स्वाभिमान, संस्कृति और इतिहास को विस्मृत करने के लिये बाध्य होते हैं । उस पराधीन देश का इतिहास, गौरव और आदर्शपुरुष विजेता देश के अधीन हो जाते हैं । युद्धों और पराधीनता का यही सत्य है ।  

इस्लामिक पराधीनताकाल में भारत के गुरुकुल और विश्वविद्यालय नष्ट किये गये किंतु ब्रिटिशकाल में गुरुकुलों को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया । विदेशी शक्तियों द्वारा हमें यह पढ़ने और सीखने के लिये बाध्य किया गया कि भारत के वर्तमान आर्य वास्तव में विदेशी प्रवासी थे जो ईसवी सन् से पंद्रह सौ वर्ष पूर्व मध्य एशिया से भारत आकर बस गये थे ।
आर्यों की पहचान में बताया जाता रहा कि वे कृषक थे, योद्धा थे, प्रवासीप्रवृत्ति के थे; मध्य एशियायी देशों यथा - ईरान, ऑस्ट्रिया और रूस के क्षेत्रों से अफ़गानिस्तान के मार्ग से भारत में प्रवेश कर सरस्वती नदी के किनारे बस गये । वे घोड़ों और रथों पर बैठ कर भारत आये; अपनी संस्कृति, सभ्यता, योरोप की संस्कृतभाषा, वेद और परम्परायें भी साथ लेकर आये । विदेशी आर्यों ने भारत के मूलनिवासियों से सम्बंध स्थापित किये और एक मिश्रित नृवंश की उत्पत्ति की जो वर्तमान भारत के निवासी हैं ।
विश्वासघाती विद्वानों और धूर्तों द्वारा रचित नव-इतिहास में आर्यों को विदेशी और आक्रमणकारी लिखा जाता रहा, पर अब तो काले अंग्रेजों द्वारा यह भी लिखा जाने लगा है कि वेदों की रचना द्रविणों और आदिवासियों ने की जिनपर विदेशी आर्यों ने अपना अधिकार कर लिया ।
विश्व के प्राचीनतम् लिखित अभिलेखों में मान्य वैदिक संहिताओं, वैदिकोत्तर ग्रंथों, स्मृतियों, पुराणों, उपनिषदों, श्रीमद्भाग्वद्, रामायण और साहित्यिक ग्रंथों आदि में समाये भारत के वास्तविक इतिहास को नष्ट करने के लिए कृत्रिम युगपुरुषों के षड्यंत्रों द्वारा स्थापित किये गये उपाय तो स्वाधीन भारत में भी अनवरत् हैं ही, देखना यह है कि बंदी इतिहास कब मुक्त हो पाता है ! तब तक तो “धूर्तता ही कलियुग की विद्वता है” का डंका बजता रहेगा ।

*सनातनियों के नरकंकाल*

  जिस देश में शवदाह संस्कार की परम्परा रही हो वहाँ खनन में सैकड़ों की संख्या में प्राप्त होने वाले सहस्रों वर्ष प्राचीन नरकंकाल किन लोगों के हैं ? ऐसे नरकंकालों के आनुवंशिक अध्ययन से मिलने वाले तथ्य क्या प्रमाणित कर सकते हैं, क्या यह कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे, प्रत्युत् वे मध्य-एशिया या रूस से आकर भारत में बस गये थे ?
  भारत पर चीन और फारस जैसे सीमावर्ती देशों द्वारा आक्रमण होते रहे हैं, सुदूर यूनान द्वारा भी आक्रमण किये गये । भारत के साथ एशिया, अफ़्रीका और यूरोप के सुदूर देशों से व्यापारिक सम्बंध भी रहे हैं, स्पष्ट है कि उनमें परस्पर आवागमन भी होता रहा है । इन सभी विदेशियों में शवदाह की परम्परा न तब थी और न अब है, उनके शवों का भूमिगत संस्कार ही किया जाता रहा है । भारत की भूमि पर आकर परलोक सिधारने वाले विदेशी सैनिकों और व्यापारियों में से कितने लोगों के शव उनके देश वापस ले जाये गये, और कितने शव यहीं समाधिस्थ किये गये, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकना असम्भव नहीं है । क्या इन समाधियों ने निकले नरकंकालों से भारत के मूलनिवासियों के नृवंशीय आनुवंशिक इतिहास का पता लगाया जा सकना सम्भव है ? 
सूक्ष्मदर्शी और इलेक्ट्रॉन-सूक्ष्मदर्शी के आविष्कार के पश्चात् आनुवंशिकी अध्ययन में भी एक क्रांति आयी । विज्ञान की स्थूल से सूक्ष्म की ओर ज्ञान-यात्रा प्रारम्भ हुयी । आयुर्वेदोक्त गुणसूत्रीय ज्ञान को पुनर्व्यवस्थित किया गया, Mitochondrial DNA lineages (Genes located in the 37-gene)  को पाकर वैज्ञानिक उत्साहित हुये और उन्होंने नृवंश के विकास एवं विस्तार पर पुनः कार्य करना प्रारम्भ किया । उन्हें ज्ञात हुआ कि mt-DNA की अनुवंशिकता पूरी तरह माँ पर निर्भर करती है, पिता पर नहीं । अर्थात् माइटोकॉन्ड्रियल डी.एन.ए. से माँ के पूर्वजों का तो पता लगाया जा सकता है, पर पिता के पूर्वजों का नहीं, फिर चाहे वे भारतीय हों या विदेशी ।
टीवी वार्ताओं में छाये रहने वाले भारतीय राजनेताओं, प्रवक्ताओं, साहित्यकारों और इतिहासकारों को किसी वैज्ञानिक तथ्य या तार्किक चिंतन की आवश्यकता नहीं होती, वे जो भी चीख-चीख कर कहते हैं वही परम सत्य होता है । लोकतंत्र में झूठ के महिमामंडन की स्वतंत्रता और सत्य को बंदी बनाकर रखने की व्यवस्था होती है इसलिये वार्ताओं में झूठों और दुष्टों का बोलबाला रहता है, वे यह मान कर चलते हैं कि द्रविण, आदिवासी, बौद्ध और मुसलमान ही भारत के मूलनागरिक हैं, शेष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बाहर से आकर बसे आर्यों की संतानें हैं इसलिये उन्हें तो भारत से भगा देना चाहिये पर बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों को भारतीय नागरिकता दी जानी चाहिये ।

रविवार, 9 नवंबर 2025

धवल नहीं, नित-नवल के पाश में बेचारा अमेरिका

 मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, विक्रम संवत् २०८२

सम्प्रदायप्रेमी मदनानी जीत गया, अमेरिकाप्रेमी ट्रम्प हारकर गहन विषाद में चला गया । न्यूयार्क के मुसलमान अल्ला-हू-अकबर के नारे लगा रहे हैं, वे आश्वस्त हैं कि अब न्यूयार्क में उन्हें कोई अपनी मनमानी करने से नहीं रोक सकेगा, क्योंकि अब उनका अपना शासन प्रारम्भ हो गया है । कुछ लोगों ने अमेरिका के झण्डे नोच कर फेक दिये, उनके साथियों ने इस्लामिक झण्डे लगा दिये । मदनानी ने मुसलमानों को यह भी आश्वस्त किया है कि यदि नेतन्याहू कभी न्यूयार्क आये तो वे उन्हें बंदी बना लेंगे । कट्टरपंथी मदनानी की जीत से उत्साहित अमेरिका के एक मौलवी ने तो यह भी माँग कर डाली कि अब न्यूयार्क में काफ़िरों पर जिजिया लगा देना चाहिये । यह पूरी तरह न्यायसंगत है और कुर-आन के दिशा निर्देशों के अनुसार भी । जो काफ़िर हमें जिजिया देंगे हम उनके जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा का उन्हें वचन देंगे, और उनके दिये जिजिया से अपने इस्लाम को और भी सुदृढ़ करेंगे ।

मुस्लिम राष्ट्रों के लोगों को मदनानी के रूप में एक ख़लीफ़ा मिल गया है, पर क्या अरब के मुसलमान भी यही सोचते हैं ? कदाचित् नहीं, वे तो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, अमेरिका, यूरोप और अफ़्रीका के मुसलमानों को मुसलमान ही नहीं मानते ।   

ट्रम्प ने भारतीयों का अपमान किया, वीजा को लेकर भारतीय युवकों को बेड़ियों में जकड़कर सामग्री की तरह वापस भेजा; भारतीय उद्योगों को अपने नियंत्रण में लेने के लिये टैरिफ़ और अर्थदण्ड लगाया; भारत के प्रधानमंत्री का बारम्बार अपमान ही नहीं किया प्रत्युत उन्हें सत्ता से हटाने और यहाँ तक कि उनकी हत्या तक के प्रयास किये । ट्रम्प पूरे विश्व के लिये खलनायक बन गया । न्यूयार्क के भारतीयों ने ट्रम्प से प्रतिकार लेने के लिये मदनानी को चुना; इसलिये नहीं कि उन्हें मदनानी से कोई प्रेम है, प्रत्युत इसलिए कि उन्हें ट्रम्प से बैर है, …ठीक भारत में आपातकाल के पश्चात् हुये आमचुनावों की तरह । जनतादल से जो भी प्रत्याशी खड़ा हो गया, जनता ने उसे ही वोट दिया । जनता का उद्देश्य जनतादल को जिताने से अधिक कांग्रेस को हराना था । यह भीड़ की सहज प्रतिक्रिया का परिणाम था । जनतादल को सत्ता मिली पर अगले चुनाव में कांग्रेस पुनः सत्ता में वापस आयी जिसके दुष्परिणाम भारत की जनता को अद्यतन भोगने पड़ रहे हैं ।  

आक्रोश में लिया जाने वाला प्रतिकार प्रतिक्रियात्मक होने से प्रायः कल्याणकारी नहीं होता । भीड़ की प्रतिक्रिया में गुण-दोष विवेचना, दूरदर्शिता और लोककल्याण के उद्देश्यों का अभाव होता है । न्यूयार्क के भारतीयों और यहूदियों की तरह ही सन् सात सौ बारह में भी सिंध के बौद्धों ने अपने राजा दाहिर को सत्ता से हटाने के लिये दाहिर के शत्रु मोहम्मद-इब्न-कासिम का सिंध में स्वागत किया जिसके दुष्परिणाम अखण्ड भारत के लोग आज तक भोग रहे हैं । 

ममदानी की माँ मीरा नायर वामपंथी विचारों से प्रेरित रही हैं जिन्हें मुम्बई के मुसलमानों का दुःख तो दिखायी दिया पर धारावी में रहने वाले दक्षिण भारतीय हिंदुओं का दुःख द्रवित नहीं कर सका । उन्होंने सलाम बॉम्बे, कामसूत्र और मिसीसिपी जैसी चर्चित और धनवर्षा करने वाली फ़िल्में बनायीं । वे फ़िलिस्तीन की समर्थक रही हैं, यहूदियों की नहीं, गोया कोई भारतीय पाकिस्तान का तो समर्थक हो पर भारत का नहीं । यह अपने पूर्वजों के तिरस्कार और विदेशी आक्रमणकारियों के स्वागत की कहानी है जो लगभग एक समान रूप से इज़्रेल और भारत में चित्रित होती रही है । सनातनी वंश में जन्म लेने वाली मीरा नायर कभी भारतीय नहीं हो सकीं, उनका पुत्र भी भारतीय हितों का घोर विरोधी है, यही कारण है कि ममदानी की विजय पर पूरे पाकिस्तान में हर्ष की उद्दाम लहरें हिलोरें मारने लगी हैं । 

वामपंथ ‘स्थापित परम्पराओं’ से विद्रोह कर ‘नयी परम्पराओं’ की स्थापना में विश्वास रखता है । कुछ धवल हो या न हो पर वह नित नवल अवश्य होना चाहिये, फिर वह रक्तक्रांति हो या छद्माक्रमण, पक्षपातपूर्ण आचरण हो या एकांगी दृष्टि, लिव-इन-रिलेशन हो या पतियों का आदान-प्रदान ।

पुनः न्यूयार्क वापस चलते हैं जहाँ कट्टरपंथी उत्साहित हैं और उदारपंथी भयभीत । समर्थन और विरोध की प्रतिक्रियायें सामने आ रही हैं, ट्रम्प अपनी सारी चालों के बाद अब हतप्रभ है और अदूरदर्शी न्यूयार्कियन भारतवंशी एवं यहूदी न्यूयार्क को मोहम्मद-इब्न-कासिम का विजित सिंध बनाकर मौन हो गये हैं; उन्हें पूर्ण विश्वास है कि वृक्ष कोई भी लगाया जाय, उसमें खिलेंगे तो पारिजात के ही पुष्प । वैचारिक पक्षाघात से ग्रस्त न्यूयार्क के भारतीयों और यहूदियों को अभी बहुत कुछ देखना और भोगना शेष है । जो अपने इतिहास की उपेक्षा करते हैं, समय उनकी उपेक्षा करता है । न्यूयार्क में जो हुआ, जो हो रहा है, जो होगा ...वह सब इतिहास के पृष्ठों में पहले भी लिखा जा चुका है, इस बार तो केवल पुनरावृत्ति ही होगी, कोई नवीनता नहीं ।

बुधवार, 5 नवंबर 2025

अल-तकिया

 अरबी शब्द अलतकिया (प्रच्छन्नता) का दुरुपयोग – 

अरब के लोग प्रच्छन्नता (अल-तकिया) को प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यक्तिगत सुरक्षा के लिये प्रशस्त उपाय मानते रहे हैं । यह एक सुरक्षात्मक उपाय है जिसे केवल प्रतिकूल परिस्थितियों में ही किसी अन्याय या अत्याचार से बचने के लिये उपयोग में लाया जाता था, किंतु भारतीय उपमहाद्वीप में यह उसी रूप में नहीं है ।
विषम स्थितियों में योजनापूर्वक संस्कारित(Medically modified)विष का उपयोग चिकित्सा जगत में किया जाता रहा है, यह सामान्य चिकित्सा के लिये नहीं है । सामान्य स्थितियों में इसका प्रयोग किया जाना कभी भी शुभ नहीं हो सकता । प्रारम्भ में यही सिद्धांत अल-तकिया(प्रच्छन्नता) के लिये भी व्यवहृत किया जाता रहा है जिसे अब धर्मसम्मत अनिवार्यता बना दिया गया । आज पूरे विश्व में अल-तकिया का दुरुपयोग अन्य सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के उन्मूलन के लिये किया जाने लगा है ।  

भारत में निवास करने वाले जो विद्वेषीहिंदू और विदेशी घुसपैठिये भारतीय संस्कृति और सभ्यता को निकृष्ट मानकर उसके उन्मूलन में लगे हुये हैं उनके लिये ऋग्वेद का यह मंत्र नेत्रोन्मीलक हो सकता है – 
“कृधी न ऊर्ध्वान् चरथाय जीवसे” – ऋग्वेद, १-३६-१४
हमें उन्नति और सुखद् जीवन के लिए उत्कृष्ट बनाइए, Make us noble for progress and happy life. …उत्कृष्ट बनाइये, उत्पीड़क और नरसंहारक नहीं, और इस कामना के लिये प्राकृतिक शक्तियों से प्रार्थना की गयी है । क्या यह वैदिक संस्कृति की उत्कृष्टता का प्रमाण नहीं!

इतिहास में मैं

 “मैं छह हजार साल पुराना पश्तून हूँ, एक हजार साल पुराना मुसलमान और सत्ताइस साल पुराना पाकिस्तानी हूँ“ – अब्दुल गनी खान ।


“मैं मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही सनातनी हूँ, वैदिक युग से हिन्दू हूँ; मैं लाखों वर्षों से अजनाभीय, आर्यावर्ती, भारतीय, जम्बूद्वीपीय और हिंदुस्थानी भी हूँ; मैं विश्वबंधु हूँ, प्रकृतिप्रेमी हूँ और सभी प्राकृतिक शक्तियों का उपासक हूँ इसीलिये मेरा संवाद असुरों से भी है और राक्षसों से भी, दैत्यों से भी है और देवों से भी, सोवियत रूस से भी है और अमेरिका से भी; मैं महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों के योद्धाओं के लिये बिना किसी पूर्वाग्रह और भेदभाव के भोजन की व्यवस्था करने वाला उडुपीनरेश पेरुंजोत्रुथियन भी हूँ; मैं आपातकाल में अपने शत्रुदेशों को भोजन और औषधि प्रदाता दानी भी हूँ; मैं चीनियों के लिये तियानझूवासी हूँ और हेरोडोट्स के लिये मात्र दो-सहस्र-दो-सौ-पच्चीस वर्ष पुराना इंडियन हूँ:....और यह भी स्मरण दिला दूँ कि मैं तुम्हारा जीजा धृतराष्ट्र भी हूँ”– मोतीहारी वाले मिसिर जी ।

रविवार, 2 नवंबर 2025

हमने तो देखा है

जो बनाते रहते हैं मुँह
दूसरों के बनावटीपन से
उन्हीं श्वेतकेशियों को
हमने तो बाल रँगते देखा है  
कौवों को
हंस के वेश में देखा है    
जो थकते नहीं बातें करते
दूरियाँ मिटाने की
उन्हीं लोगों को
दूरियाँ बढ़ाते देखा है ।
ट्रम्प को चाहिये पुरस्कार
शांति की स्थापना का
पर हमने तो
उन्हें दुनिया भर के देशों को
धमकियाँ देते देखा है
कौन नहीं जानता
कि दुनिया भर को अहर्निश
अशांत करने वाला भूरेलाल 
वाशिंगटन डीसी में बैठा है ।
हमने तो रावण को साधु के वेश में
स्त्री का अपहरण करते देखा है
धूर्त लेखकों को
भारत का इतिहास रँगते देखा है
घृणा के पात्र हैं जो
उन्हें प्रशंसा पाते देखा है । 
हमने तो
निर्लिप्त रहने का
सुना है जिन्हें उपदेश देते
उन्हें भी
भोग में सर्वाङ्ग लिप्त देखा है ।
वंचना के विरोधियों को
उन्हीं के वंचक चरित्र के साथ झेला है ।
हमारी निर्धनता दूर करने की
शपथ लेने वालों को
हमारा ही धन लूटते देखा है ।
जो करते हैं
संविधान की रक्षा का प्रचार
उन्हें ही
संविधान की हत्या करते देखा है ।
और ...
जिन्होंने बंदी बना कर रखा है
घर की स्त्रियों को
ओढ़ाकर आपादमस्तक वस्त्र
उन्हीं के उपदेशक, मार्गदर्शक और पूज्य के
वंशजों की स्त्रियों को 
सचल बंदीगृह से मुक्त होते देखा है । 
दुनिया ऐसी ही है
इतनी ही चित्र और विचित्र
इतने ही रंगों से रँगी
और इतनी ही बि-रंगी भी ।

भीड़ और पहचान

“पूर्वी चम्पारण से आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुस्लिमीन के प्रत्याशी राणा रणजीत सिंह विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं । सिर पर गोल टोपी, माथे पर तिलक और हाथ में कलावा बाँधकर जय श्रीराम, जय बजरंगबली और आई लव मोहम्मद का नारा लगाने वाले राणा जातिवाद को कैंसर मानते हैं, जिसे वे समाप्त करना चाहते हैं । मोहनदास और भीमराव को अपना आदर्श मानने वाले राणा जी सामाजिक दूरियाँ मिटाना चाहते हैं” ।

परी कथायें बच्चों को आकर्षित करती हैं, बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तब उन्हें परीकथाओं की कथा समझ में आ जाती है । धार्मिक सौहार्द्य, भाईचारा, आत्मशासित समाज, सीमाविहीन देश, शोषणमुक्त समाज, श्रम और पूँजी में सामंजस्य …जैसे आदर्शों को लेकर विश्व भर में चर्चायें होती रही हैं जिनका हमारे सामने एक यूटोपियन इतिहास है । यूरोप और एशिया के साम्यवादी देशों में भी इस तरह की चर्चायें हुयीं पर धरातल पर कुछ विशेष दिखायी नहीं दिया । कहीं-कहीं “नो रिलीजन” अस्तित्व में है, पर हम उसे भी ‘भीड़’ नहीं मान सकते । रिलीजन को लेकर मोहनदास के विचारों और परस्पर विरोधाभासी चरित्र को हम देख चुके हैं । तमिलनाडु, केरल और प.बंगाल आदि राज्यों के साम्यवादियों के चरित्र को भी हम देख चुके हैं, देख रहे हैं ..।
जाति को कैंसर मानने वालों की कमी नहीं है, लोग जातिव्यवस्था पर वैचारिक प्रहार करते रहे हैं । दूसरी ओर चुनाव में जातीय समीकरण के महत्व को कोई भी नेता अस्वीकार नहीं कर पाता । जनता भी आरक्षण के लोभ में अपनी विशिष्ट जातीय पहचानों को खोना नहीं चाहती । कई बार तो वे आरक्षित जाति में स्वयं को सम्मिलित करने के लिये आंदोलन भी करते रहे हैं । मेरी स्मृति में आज तक एक भी आंदोलन ऐसा नहीं हुआ जिसमें अगड़ी जाति में स्वयं को सम्मिलित किये जाने की माँग रखी गयी हो । वह बात अलग है कि कोई सतनामी अपने नाम के साथ पांडेय, उपाध्याय, तोमर, भदौरिया और बघेल उपनाम धारण करके भी अनुसूचितजाति के प्रमाणपत्र का मोह छोड़ नहीं पाता । सरकारें भी अनुसूचित-जनजाति और अनुसूचित-जातियों में परिवर्तन करती रहती हैं । जातियाँ बनाती हैं सत्तायें और गालियाँ दी जाती हैं ब्राह्मणों को (यह भी बरजोरी (Obsessive compulsive political behavior) का एक सामाजिक उदाहरण है)।
असदुद्दीन के दल में राणा रणजीत सिंह के अतिरिक्त पंडित मनमोहन झा, रविशंकर जायसवाल, विकास श्रीवास्तव, विनोद कुमार जाटव, ललिता जाटव और गीता रानी जाटव जैसे और भी कई नेता हैं । ये सभी लोग सामाजिक और धार्मिक समरसता के लिये जातिवाद और कुरीतियों को समाप्त कर, एक सेक्युलर देश की स्थापना करना चाहते हैं, …क्या लेनिन और स्टालिन की तरह, या ममता बनर्जी और लालू की तरह, या मुलायम सिंह और रौल विंची की तरह, या शेख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती की तरह, या ...!
विश्लेषण करके देखिये, क्या ये सभी बाहुबली राजनेता पहचान मिटाकर पहचान बनाने में विश्वास नहीं रखते, वंश मिटाकर वंश स्थापित करने के लिये संघर्षरत नहीं होते, भीड़ मिटाकर भीड़ नहीं बनाना चाहते... विरोधाभास दूर कर विरोधाभास को स्थायी नहीं करना चाहते ! ...यही है कूट चालों से किया जाने वाला सत्तासंघर्ष, हम इसे लोकहितकारी राजनीति स्वीकार नहीं कर सकते ।
व्यक्तियों और समुदायों की विशिष्ट पहचानों को समाप्त कर सबको भीड़ बनाने वाले स्वयं कभी भीड़ नहीं बनते, वे किसी न किसी रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर रखते हैं । यह सामाजिक महत्वाकांक्षा का सत्य है, कोई भीड़ नहीं बनना चाहता, हर कोई अपनी विशिष्ट पहचान के साथ स्थापित होना चाहता है । क्या भेदभाव मिटाने के लिये किसी नेता को विश्रामगृह के स्थान पर एक दिन के लिये भी जेल में ठहराया जाता है ? क्या आपने कभी धान, गेहूँ और जौ को एक साथ एक ही खेत में बोया है? राई, सरसों और लाही को एक साथ एक ही खेत में बोया है? क्या कोई किसान आलू, प्याज, लहसुन, टमाटर, गेहूँ, सूरजमुखी आदि सारी उपज एक साथ एक ही स्थान पर मिश्रित कर रखता है ? ..इसे भी छोड़िये, क्या आप अपने फ़्रिज में आलू-प्याज एक ही पॉलीथिन में एक साथ रखते हैं? …यह भी छोड़िये, क्या आप भोजन पकाते समय दाल, तरकारी, कढ़ी, खीर, करेला, चावल, बेसन, आटा आदि की भीड़ एक ही पात्र में मिलाकर एक साथ पकाते हैं ?
पहचान मिटाने वाली सत्ताओं ने समाज को कई पहचानें दी हैं – अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अगड़ा. पिछड़ा, दलित, आरक्षण, अनारक्षण, मनुवाद, साम्यवाद, अम्बेडकरवाद, …। नयी-नयी पहचानें बनाना इनकी आवश्यकता है, पहचान मिटाने की बातें करना इनका आदर्श है । सत्ताधीशों की यही वास्तविक पहचान है ।
जाति को कैंसर मानने वाले राणा जी जैसे विचारकों की कमी नहीं है, राजनेता और साहित्यकार जातिव्यवस्था पर वैचारिक प्रहार करते रहे हैं । दूसरी ओर चुनाव में जातीय समीकरण के महत्व को कोई भी नेता अस्वीकार नहीं कर पाता । जनता भी आरक्षण के लोभ में अपनी विशिष्ट जातीय पहचानों को खोना नहीं चाहती । कई बार तो वे आरक्षित जाति में स्वयं को सम्मिलित करने के लिये आंदोलन भी करते रहे हैं । मेरी स्मृति में आज तक एक भी जनआंदोलन ऐसा नहीं हुआ जिसमें अपने से अगड़ी जाति में स्वयं को सम्मिलित किये जाने की माँग की गयी हो । वह बात अलग है कि कोई सतनामी अपने नाम के साथ पांडेय, उपाध्याय, तोमर, भदौरिया और बघेल जैसे उपनामों से आकर्षित होकर इन उपनामों को धारण करके भी अनुसूचितजाति के प्रमाणपत्र एवं उसके आधार पर मिलने वाली भौतिक सुविधाओं का मोह छोड़ नहीं पाता । सरकारें भी अनुसूचित-जनजाति और अनुसूचित-जातियों में परिवर्तन करती रहती हैं । जातियाँ बनाती हैं सत्तायें और गालियाँ दी जाती हैं ब्राह्मणों को (यह भी बरजोरी (Obsessive compulsive political behavior) का एक सामाजिक उदाहरण है)।
असदुद्दीन के दल में राणा रणजीत सिंह के अतिरिक्त पंडित मनमोहन झा, रविशंकर जायसवाल, विकास श्रीवास्तव, विनोद कुमार जाटव, ललिता जाटव और गीता रानी जाटव जैसे और भी कई नेता हैं । ये सभी लोग सामाजिक और धार्मिक समरसता के लिये जातिवाद और कुरीतियों को समाप्त कर, एक सेक्युलर देश की स्थापना करना चाहते हैं, …क्या लेनिन और स्टालिन की तरह, या ममता बनर्जी और लालू की तरह, या मुलायम सिंह और रौल विंची की तरह, या शेख अब्दुल्ला और अरविंद केजरीवाल की तरह, या अरुंधती राय और रोमिला थापर की तरह, या ...!
विश्लेषण करके देखिये, क्या ये सभी बाहुबली राजनेता, साहित्यकार और इतिहासलेखक पहचान मिटाकर पहचान बनाने में विश्वास नहीं रखते, वंश मिटाकर वंश स्थापित करने के लिये संघर्षरत नहीं होते, भीड़ मिटाकर भीड़ नहीं बनाना चाहते... विरोधाभास दूर कर विरोधाभास को स्थायी नहीं करना चाहते ! ...यही है कूट चालों से किया जाने वाला सत्तासंघर्ष, कोई भी विवेकशील व्यक्ति इसे लोकहितकारी राजनीति स्वीकार नहीं कर सकता ।
व्यक्तियों और समुदायों की विशिष्ट पहचानों को समाप्त कर सबको भीड़ बनाने वाले स्वयं कभी भीड़ नहीं बनते, वे किसी न किसी रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर रखते हैं । यह सामाजिक महत्वाकांक्षा का सत्य है, कोई भीड़ नहीं बनना चाहता, हर कोई अपनी विशिष्ट पहचान के साथ स्थापित होना चाहता है । क्या भेदभाव मिटाने के लिये किसी नेता को विश्रामगृह के स्थान पर एक दिन के लिये भी जेल में ठहराया जाता है ? क्या अभियांत्रिकी, चिकित्सा, साहित्य और संगीत के विद्यार्थियों को एक ही व्याख्यान से शिक्षित किया है? …क्या आपने कभी धान, गेहूँ और जौ को या राई, सरसों और लाही को एक साथ एक ही खेत में बोया है? क्या कोई किसान आलू, प्याज, लहसुन, टमाटर, गेहूँ, सूरजमुखी आदि की सारी उपज एक साथ एक ही स्थान पर मिश्रित कर रखता है ? ..इसे भी छोड़िये, क्या आप अपने फ़्रिज में आलू-प्याज एक ही पॉलीथिन में एक साथ रखते हैं? …यह भी छोड़िये, क्या आप भोजन पकाते समय दाल, तरकारी, कढ़ी, खीर, करेला, चावल, बेसन, आटा आदि की भीड़ एक ही पात्र में मिलाकर एक साथ पकाते हैं?
पहचान मिटाने वाली सत्ताओं ने समाज को कई पहचानें दी हैं – अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अगड़ा, पिछड़ा, दलित, आरक्षण, अनारक्षण, मनुवाद, साम्यवाद, अम्बेडकरवाद, …। नयी-नयी पहचानें बनाना इनकी आवश्यकता है, पहचान मिटाने की बातें करना इनका आदर्श है । सत्ताधीशों की यही वास्तविक पहचान है ।
हमारे शरीर ने प्लास्टिक के नैनो पार्टिकल्स की विशिष्ट पहचान को स्वीकार करने से मना कर दिया, अपने-पराये का भेद मिटाकर उन अनुपयोगी विदेशी घुसपैठियों को शरीर की कोशिकाओं के समान स्वीकार कर लिया, परिणामतः हमारा शरीर उन नैनोपार्टिकल्स के कूड़े का ढेर बनता जा रहा है । तैयार रहिये ...एक अकल्पनीय व्याधि विस्फोट के लिये ।
हमारे शरीर ने कोशिकीय विभाजन पर अपना विशिष्ट नियंत्रण समाप्त कर उन्हें पूर्ण स्वैच्छिक कर दिया, छीन के दे दी आज़ादी, पेरियार वाली आज़ादी, लेनिन वाली आज़ादी …जानते हैं फिर क्या हुआ ! कैंसर हो गया, वह भी मैलिग्नेंट वाला कैंसर । अब जाइये, करवाइये सर्जरी, कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी ...फिर अंत में एक दिन ...अब और कोई उपाय शेष नहीं,...मेटास्टेसिस तो पहले ही हो चुकी है, घर ले जाइये, जितने दिन साँसें चलें उतने दिन सेवा करके पुण्य लूट लीजिये ।
ये खोखले आदर्श और यूटोपियन बातें करने वाले स्वयंभू राजनीतिक-बरजोर वैज्ञानिक-तथ्यों को भी धता बता देने की निर्लज्जता अपने अंदर कैसे उत्पन्न कर लेते हैं! “पुरुषोऽयं लोकसंमितः”, अर्थात् “लोकोऽयं ब्रह्माण्ड संमितः” और “ब्रह्माण्डोऽयं विज्ञानसंमितः”, …किंतु आप राजनीतिक सिद्धांतों को इस सार्वकालिक और सार्वदेशज सत्य से छिपाकर रखना चाहते हैं ! जो सृष्टि अपने द्वैत स्वरूप में है उसे समय से पहले ही अद्वैत स्वरूप में देखना चाहते हैं? अद्भुत् बरजोरी है!    

इस विषय पर मोतीहारी वाले मिसिर जी बड़ी दृढ़ता से बताते हैं – “सामाजिक स्तर पर सामान्य और विशिष्ट की अपनी सीमायें हैं जिनमें बहुत कठोरता नहीं है पर इतनी तरलता भी नहीं है कि उनकी अपनी पहचान ही समाप्त हो जाय । सत्य यह है कि पहचान मिटाने या उसे मिश्रित करने की बातें कितनी भी कर ली जायँ पर वास्तव में आप किसी की पहचान नहीं मिटा सकते, वह पहचान जो उसे प्रकृतिप्रदत्त है”।