रविवार, 27 अक्तूबर 2024

कोरा कागज

इसोफ़ैगाइटिस की चिकित्सा के लिए कोरबा से लुधियाना तक की यात्रा पर निकले उस ईसाई परिवार से मेरी भेंट उनकी वापसी यात्रा में हुयी । परिवार में पुरुष के अतिरिक्त दो महिलायें और दो बच्चियाँ थीं । बड़ी बच्ची तेरह वर्ष की थी और मिलनसार थी । उसकी माँ ने बताया कि बच्ची को इसोफ़ैजाइटिस था जो छत्तीसगढ़ में किसी डॉक्टर से ठीक नहीं हुआ पर लुधियाना की उस चर्च में प्रार्थना से तुरंत ठीक हो गया । महिला ने बताया कि वहाँ अंधे देखते हैं, बहरे सुनते हैं और लँगड़े दौड़ते हैं । उस चर्च की प्रार्थना अद्भुत है, वहाँ प्रार्थना के शब्द सुनते ही शरीर से शैतान निकलकर तड़पने लगता है और हर तरह की व्याधि प्रभु की प्रार्थना से समाप्त हो जाती है ।  

मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वंदे परमानंदं माधवम् ॥ ईश्वरीय कृपा से असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं, कदाचित् यही आशय रहा होगा इस श्लोक का । पर लुधियाना की उस चर्च में तो ऐसा ही हो रहा है, अक्षरशः वैसा ही, श्लोक के स्थूल अनुवाद जैसा ही ।

पञ्जाब और छत्तीसगढ़ में ईसाइयत का बहुत प्रभाव है और उसके अनुयायियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है । राजस्थान के बाला जी में भूत-प्रेत की चिकित्सा होती है और दिल्ली की एक पुरानी ऐतिहासिक इमारत में एक मुल्ला जी का झाड़-फूँक चिकित्सालय है जिसमें हर तरह की व्याधि की चिकित्सा से लेकर वशीकरण, खोया प्रेम पाने, सौतन को भगाने से लेकर न्यायालयीन निर्णय अपने पक्ष में करवाने का भी ताबीज मिलता है ।

चमत्कारों के अपने-अपने चौखट हैं, आस्था के अपने-अपने प्रतीक हैं और विशिष्टता के लिए अपने-अपने ईश्वर हैं । अपने-अपने ईश्वर... बस मैं यहीं अटक जाया करता हूँ । इतने सारे ईश्वर मेरे सामने पर्वत से आकर खड़े हो जाते हैं, मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, समाधान नहीं बल्कि समस्यायें चारो ओर से मुझे घेर लिया करती हैं और मैं विद्रोही हो उठता हूँ ।   

आधुनिक विचारधारा के प्रगतिशील लोग चर्चों, मजारों और दरगाहों में जाते हैं जबकि पिछड़े और गँवार लोग बालाजी जाकर अपनी समस्यायों से मुक्ति पा लेते हैं । हमने हिन्दुओं में फैले अंधविश्वासों, पाखण्डों, पिछड़ेपन और उनकी मूर्खताओं पर अनवरत भाषण देने वाले पीएच.डी. होल्डर्स, प्रगतिशीलों और वामपंथियों को बड़ी श्रद्धा से चर्चों के सामने खड़े होकर अपनी छाती पर बुदबुदाते हुये  क्रॉस का चिन्ह बनाते, मज़ारों और दरगाहों के सामने हाथ जोड़कर झुकते हुये देखा है ।

उन्हें धर्म के बारे में कुछ भी नहीं पता होता इसलिए वे धर्म का बँटवारा कर देना अधिक तर्कसम्मत और लोकहितकारी मानते हैं । यही लोग धर्म पर प्रवचन देते हैं, गंगा-जमुनी सभ्यता का प्रचार करते हैं, सेक्युलरिज़्म की प्रशंसा करते हैं, संविधान की दुहाई देते हैं और नारा लगाते हैं “यह देश धर्म से नहीं, संविधान से चलेगा” । हम भी कहते हैं – “दुनिया का कोई भी वृक्ष अपनी जड़ों से नहीं, सूखे और टूटे हुये पत्तों की खाद से ही अपना पोषण पायेगा”। यही विज्ञानसम्मत है, यही बुद्धिसम्मत है, और यही लोकतंत्र सम्मत भी है ।

मेरे पास भी एक ईश्वर था, …नहीं, एक ईश्वर था जिसके पास मैं था । उनके पास उनके अपने-अपने ईश्वर हैं, ईश्वर उनके पजेशन में है, वे ईश्वर के पजेशन में नहीं हैं । हर किसी को ईश्वर चाहिये ... अपना-अपना ईश्वर, किंतु यह देश धर्म से नहीं संविधान से चलेगा । ईश्वर और धर्म के ऊपर एक बार फिर जो चढ़ कर बैठ गया है वह मनुष्य है अर्थात् मनुष्य की सत्ता सर्वोपरि है, ईश्वर तो उसका दास है । स्वयं को कृष्ण का वंशज बताने वाला पप्पू यादव गोल टोपी लगाकर और हरी चादर ओढ़कर घोषणा करता है – “एक दिन पूरी दुनिया इस्लाम न अपना ले तो मेरा नाम बदल देना”। लालूपुत्र भी कृष्ण के बंशज हैं जो हिदुओं की ईंट से ईंट बजा देने के लिए कटिबद्ध हो कर खड़े हो गये हैं । स्वयं को श्रीराम का वंशज बताने वाले शादाब चौहान को तो पुनरुद्धारित श्रीराम मंदिर फूटी आँखों भी नहीं सुहाता ।

यह देश संविधान से चलेगा, तो फिर धर्म से क्या चलेगा ? यदि धर्म से कुछ भी नहीं चलेगा तो फिर धर्म की किसी को आवश्यकता ही क्यों है ? तुम्हारे सेक्युलर छल से कोटि गुना अच्छा है “नो रिलीजन कांसेप्ट”। ढहा दो सारे मंदिर, सारे चर्च और सारी मस्ज़िदें ।

हाँ! तो मैं उस बच्ची के बारे में बता रहा था कि वह बहुत अच्छी थी, इसलिए नहीं कि उसने आदिगुरु शंकराचार्य जी की ऐगिरि नंदिनि नंदितमेदिनि विश्वविनोदिनि नंदिनुते... का सस्वर पाठ किया बल्कि इसलिये भी कि वह इन्नोसेंट थी । उसे मेरे पास बैठकर अपने विद्यालय और अपने बारे में बातें बताना अच्छा लगता था । उसने अपने कुछ वीडियोज़ दिखाये जिसमें वह शास्त्रीय नृत्य करती हुयी दिखायी दी ।

कोई एक खिड़की खुली रह गयी थी जहाँ से महिषासुर मर्दिनि स्तोत्र का प्रवाह हो रहा था और शास्त्रीय नृत्य की मुद्रायें एक के बाद एक प्रकट हो रहीं थीं । पता नहीं कब तक खुली रहेगी यह खिड़की! पता नहीं कब तक यूँ ही कोरा बना रहेगा यह अलिखित कागज! 

बुधवार, 25 सितंबर 2024

दीप जला देना

दीप बुझे सब, घिर आये तम 

तोड़ के सारे भ्रम के बंधन 

तुम दीप जला देना 

अब और नहीं सोना ॥

हठ झूठे संदेश भी झूठे 

झूठे चरखे की झूठी धुन 

अब और नहीं सुनना 

अब और नहीं सोना ॥

जिसे अहिंसा कह भरमाया 

निकली भीतर से वह हिंसा 

तेरी झूठी बातों में अब, और नहीं पड़ना 

अब और नहीं सोना ॥

जब रात घनेरी हो, पास कोई ना हो 

बढ़ जायें असुरों के घेरे 

आवाज हमें देना 

अब और न चुप रहना ॥

सनातन की धारा, है मिलकर बचाना 

एक हैं हम ये, संकल्प लेना 

अब दूर नहीं रहना 

कभी दूर नहीं रहना ॥

सनातन हैं हम, सनातन रहेंगे 

भगीरथ के वंशज, भगीरथ बनेंगे 

यही सोच कर आज संकल्प लेना 

अब और नहीं सोना ॥

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प्रचार हो रहा है  

स्क्रीनिंग करवा लो, कहीं देर न हो जाय  

और यथाशीघ्र प्रारम्भ हो सके 

तुम्हारी कीमोथेरेपी ...रेडियोथेरेपी  

बहुत मूल्यवान है जीवन 

सोना बेच देना, खेत बेच देना, घर बेच देना 

ख़रीद लेना कुछ और साँसें 

कुछ दिन और जी लेना 

फिर तो मरना ही है 

करोड़ों का खर्चा है 

विज्ञापन बहुत महँगा है 

वह भी तुम्हारी जेब से ही निकालना है 

तुम क्या करोगे धन जोड़कर 

तुम्हें तो मरना ही है

दिन भर टीवी देखा

रजनीगंधा, विमल और राजश्री के विज्ञापनों के बीच 

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कि कैसे करें कैंसर से बचने का उपाय 

रोकथाम नहीं बताता कोई 

बताते हैं सब 

ऐसे उपाय 

जिससे होते हैं कैंसर 

और फलते-फूलते हैं कई उद्योग 

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छूत-अछूत-छुआछूत

छुआछूत का रणनीतिक इतिहास –  

आर्यावर्त्त में प्रवेश करने वाले विदेशी लुटेरे क्रूर, छद्माचारी और आक्रामक थे, उन्हें हर चीज को छीन लेना अच्छा लगता था । जो चीजें वे छीन नहीं पाते थे उन्हें नष्ट करना या अपवित्र कर देना अच्छा लगता था । उनका विश्वास था कि वे अपनी क्रूरता और निकृष्ट आचरण से पूरे विश्व की महाशक्ति बन सकते हैं और किसी को भी अपने सामने झुकने के लिए विवश कर सकते हैं । वे अपने कुकृत्यों से हमारे उपयोग की वस्तुओं को ही अपवित्र नहीं कर दिया करते थे बल्कि हमारी स्त्रियों और बच्चियों के साथ भी दुष्कर्म कर हमें झुकाने का प्रयास करते थे । उनके प्रयास सफल होते रहे और उसी अनुपात में उनका साम्राज्य भी विस्तृत होता गया ।

युद्ध का यह एक ऐसा स्वरूप था जिसका प्रहार आर्यों को विचलित कर देता था पर उसका सामना कर पाना उतना ही दुष्कर था । तब आर्यावर्त्त के लोगों ने विदेशी लुटेरों और उनके सैनिकों से दूरी बनाना प्रारम्भ कर दिया । विदेशियों ने अपने आचरण से स्वयं को अस्पर्श्य बना लिया, वे जिस भी चीज को स्पर्श करते, आर्यावर्त्त के हिन्दू उसका उपयोग वर्ज्य कर देते । इस तरह प्रारम्भ हुयी परिस्थिजन्य वर्जना पूरे आर्यावर्त्त में प्रचलित हुयी और छुआछूत बन गयी । छुआछूत का यही इतिहास है और यही विज्ञान भी ।

फिर एक समय आया जब छुआछूत को अपराध माना जाने लगा ...किंतु तब भी, बैक्टीरियोलॉजी और वायरोलॉजी में हुये नये शोधकार्यों के परिणामों से चिकित्सक समुदाय में अस्पर्श्यता का सिद्धांत और भी दृढ़ होता गया । संक्रामक व्याधियों ने छुआछूत के वैज्ञानिक स्वरूप को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया ...जिसे स्वीकार करना आधुनिकता, उदारता और मानवता के विरुद्ध माना गया । संक्रामक व्याधियाँ नये-नये रूपों में प्रकट होने लगीं, जाते हुये ट्युबरकुलोसिस ने बोविन का रूप रखा, पलटकर आधुनिकता को देखा और मुस्कराकर वापस आ गया । रूप परिवर्तन में दक्ष कोरोना जैसे कई वायरस भी स्वच्छंद घूमने लगे । आर्यावर्त्त के तथाकथित प्रबुद्ध लोग प्राणभक्षी विषाणुओं के लिए सहज भोज्य के रूप में उपलब्ध हुए किंतु वे इतने प्रोग्रेसिव थे कि विश्व भर में कोरोना के ग्रास में समा चुके लाखों लोगों के बाद भी उन्होंने छुआछूत के बारे में दोबारा सोचने की आवश्यकता भी नहीं समझी । वे थूक मिला हुआ फलों का रस पीते रहे, थूक लगे पात्रों में होटल की मिठाइयाँ और थूक लगी तंदूरी खाते रहे । असुरों ने आर्यों की इस अनार्य सोच का लाभ उठाया और पहले से भी अधिक असुर बनते चले गये ...निर्भय असुर ।

अगले पचास या एक सौ वर्ष बाद फिर एक सोशियो-रिलीजियस इतिहास लिखा जाएगा ...एक्कीसवीं शताब्दी के तृतीय दशक के खण्डित भारत का इतिहास । लिखा जायेगा –

वे विदेशी अनार्य स्वयं को “डरा हुआ” प्रचारित करते थे और सरकारी सम्पत्तियों एवं रेल आदि परिवहन सेवाओं को इस तरह क्षतिग्रस्त कर दिया करते थे जिससे एक साथ हजारों लोग दुर्घटनाग्रस्त हो कर मर जायँ या घायल हो जायँ । वे थूकते भी रहते थे – खाने-पीने की चीजों में, पानी की बोतलों में, खाली बरतनों में, कुओं में, बाबड़ियों में, चेहरे पर लगायी जाने वाली क्रीम में, साबुन में... हर उस चीज में जिसे हिन्दू अपने उपयोग में ला सकते थे । उन्होंने हिन्दुओं के मंदिरों की व्यवस्था के लिए राजाज्ञा प्राप्त कर ली और उनके आराध्य को लगाये जाने वाले भोग एवं भक्तों को वितरित किए जाने वाले प्रसादम् के निर्माण में सुअर एवं गाय की चर्बी का व्यवहार कर शताब्दी का सर्वाधिक विकृत सांस्कृतिक प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया था । उनका साथ देने के लिए अनार्य हिन्दुओं की कई शक्तियाँ हर पल कटिबद्ध रहती थीं । यह एक ऐसा आक्रमण था जिसकी विजय के बारे में केवल आक्रामक को ही जानकारी हुआ करती थी जबकि पराजितों की विशाल भीड़ को कई दशकों तक इसकी भनक भी नहीं लग पाती थी । शंकराचार्यों, पीठाधीशों, संतों और पराजितों को जब तक इसकी सूचना प्राप्त हो पाती तब तक सप्तसिंधु में न जाने कितना जल बहकर जा चुका होता था । यह गजवा-ए-हिन्द था जिसमें विदेशी अनार्यों ने आर्यों पर बहुत बड़ी भावनात्मक विजय प्राप्त कर ली थी । न्यायाधीश और दण्डनायक किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये किंतु उन्होंने अस्पर्श्यता को लोकव्यवहार के लिए अभी भी वर्ज्य और अपराध ही बनाये रखा । भ्रष्ट कोलेजियम प्रणाली से चुने जाने वाले न्यायाधीशों द्वारा खान-पान के छद्मरूपधारी व्यवसायियों को अपना परिचय देने या न देने की स्वतंत्रता दे कर उन्हें गजवा-ए-हिन्द के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा । खण्ड-खण्ड हो चुके भारत पर बाहरी और आभ्यंतर दोनों दिशाओं से आक्रमण पर आक्रमण होते रहे ...और विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक एवं सुसंस्कृत सभ्यता पर संकट के घने बादल छा गये” ।

रविवार, 22 सितंबर 2024

एक वामपंथी की चिंतन यात्रा

            सुशांत सिन्हा ने अपने कल के पोडकास्ट में शेहला रशीद को राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत किया है । सुशांत का प्रयास उस सोच का परिणाम है जो भारतीय मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती है । उनका प्रयास सराहनीय और अनुकरणीय है । आज मैं एक बार फिर शेहला की चिंतन यात्रा पर लिखने के लिए विवश हुआ हूँ । मैं अपनी पुस्तक “प्रतिध्वनि” में शेहला का उल्लेख कर चुका हूँ, वह नकारात्मक था, इसलिए अब यह मेरा लेखकीय और नैतिक दायित्व बनता है कि शेहला पर एक और लेख लिखा ही जाना चाहिये ।

कन्हैया और उमर ख़ालिद को बहुत पीछे छोड़ चुकी शेहला ने वामपंथ की संकुचित सीमाओं का अतिक्रमण कर चिंतन के जिस क्षेत्र में प्रवेश कर पाने में सफलता प्राप्त की है वह अद्भुत् और अनुकरणीय है । अब यह लड़की जे.एन.यू. की संकुचित सीमा से निकलकर पूरे भारत की बेटी बन चुकी है । यह सरल नहीं है, हर किसी के लिए सम्भव भी नहीं है । शेहला ने इस स्थिति तक पहुँचने के लिए जितना आत्मचिंतन, मंथन और द्वंद्वों का सामना किया है उस सबने भारत की चिंतन प्रक्रिया और उसके महत्व को और भी पुष्ट किया है । इस स्थिति को प्राप्त करना पुनर्जन्म की प्रक्रिया से लेश भी कम नहीं है ।

मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतों को सुनना, समझना, विश्लेषण करना और उससे होकर जाना बुरा नहीं है । बुरा है उसकी व्यावहारिक और राजनीतिक प्रक्रिया से चिपक जाना । मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि सूचना संक्रांति के इस काल में हर युवक को एक बार तो वामपंथ के समीप आना ही चाहिये किंतु... इसके बाद वामपंथ से होते हुए आगे निकल जाना चाहिए । यह तब होगा जब हम मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतों, मार्गों और व्यावहारिक पक्षों की निष्ठापूर्वक बायोप्सी कर सकेंगे । समुद्र मंथन की यह प्रक्रिया युवकों को लोककल्याणकारी सिद्धांतों और उनके उत्कृष्ट व्यावहारिक पक्षों के चयन का मार्ग प्रशस्त करती है । यह प्रक्रिया व्यक्ति को आलोचना से आत्ममंथन और आरोप से स्व-दायित्वों के बोध की ओर ले जाती है । राष्ट्रभक्त होने के लिए और क्या चाहिए!

यदि हम वामपंथ को अच्छी तरह समझ कर उसमें से होते हुये आगे बढ़ जाएँगे तो वामपंथ बहुत पीछे छूट जायेगा । इस बात को यूँ भी समझा जा सकता है कि जिसने वायरोलॉजी और इम्यूनोलॉजी को अच्छी तरह समझ लिया है वह वैक्सीनेशन के व्यावहारिक और अव्यावहारिक पक्षों को भी अच्छी तरह समझ लेगा, तब वह वैक्सीनेशन के पक्ष में नहीं, उसके विरोध में खड़ा मिलेगा । शर्त यही है कि वायरोलॉजी और इम्यूनोलॉजी को पृथक-पृथक समझने के स्थान पर एक-दूसरे के संदर्भ में समझा जाय । यही कारण है कि आज शेहला रशीद पूरे भारत की बेटी बन गयी है ।

विचार और आचरण व्यक्ति को लोकप्रिय या अलोकप्रिय बनाते हैं । कभी आपकी तरह मैं भी शेहला का मुखर विरोधी रहा हूँ, आज प्रशंसक हूँ । यह वैचारिक क्रांति विचारणीय है विशेषकर शेहला के पुराने साथियों के लिए । आज भी बहुत से लोग हैं जो शेहला के विरोधी और निंदक हैं किंतु जे.एन.यू. के दिनों से लेकर आज तक की उनकी विचारयात्रा उन्हें विशिष्ट बनाती है इसलिए हमें शेहला के लिए एक स्थान रखना ही होगा जो जे.एन.यू. की शेहला से पूरी तरह भिन्न है ।

वामपंथियों की चिंतन और संप्रेषण शैली युवकों को प्रभावित करती है । वह बात अलग है कि उसमें विशदता और व्यापकता का अभाव है । दक्षिणपंथियों की चिंतन और संप्रेषण शैली युवकों को पाखंडपूर्ण लगती है जबकि उसमें विशदता और व्यापकता का विहंगम आकाश होता है । कन्हैया और उमर ख़ालिद एक संकुचित विवर में बंदी हो कर रह गये हैं जबकि शेहला मुक्ताकाश की स्वतंत्र पंछी बन चुकी है । मैंने पहले जो लिखा वह उस समय का यथार्थ था. आज जो लिख रहा हूँ वह आज का यथार्थ है । 

वामपंथ से प्रभावित इस कश्मीरी लड़की की राजनीतिक यात्रा निर्भया कांड के विरोध प्रदर्शन से प्रारम्भ होती है जो धीरे-धीरे तत्कालीन सत्ता और व्यवस्था के विरोध की ओर बढ़ती रहती है । उस आयु में भ्रष्टाचार, असमानता, परम्परा और यथास्थिति आदि के प्रति विद्रोह और एक आदर्श व्यवस्था के लिए क्रांति का उत्साह होता है, होना भी चाहिये । मार्क्सवाद का यही पक्ष युवकों को आकर्षित करता है । वह बात अलग है कि कुछ दूर चलने के बाद इस आदर्श के पीछे का कुछ और ही सत्य सामने आता है । शेहला इसीलिए विशिष्ट है कि जो सत्य वह देख सकी उसे कन्हैया और उमर ख़ालिद नहीं देख सके । इसीलिए कश्मीर की एक विद्रोही लड़की ने मेरे जैसे अपने विरोधी को भी अपना समर्थक बना लिया है ।

मुझे इस लड़की में एक और विशेषता दिखायी देती है, वह यह कि शेहला स्वयं अपने प्रति भी विद्रोही हो सकने का पोटेंशियल रखती है । यदि यह लड़की कभी चुनाव में प्रत्याशी होती है और मुझे अवसर मिला तो मैं शेहला के समर्थन में चुनाव प्रचार करने का इच्छुक रहूँगा ।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

सेक्युलर पूजा-पाठ और प्रसादम्

“आराधना के लिए उलेमा की अनुमति”

एक उलेमा की आज्ञप्ति है कि गणेश पंडाल लगाने वाले लोगों को पहले उलेमाओं से अनुमति लेनी चाहिए। बिना उलेमा की अनुमति के गणेश पंडाल नहीं लगाया जा सकता । हिन्दुओं की पूजा-पाठ को भारत में सेक्युलर बनाने का यह प्रयास प्रशंसनीय है । जवाहरलाल की आत्मा को सुख-शांति और संतोष प्रदान करने के लिए उलेमा साहब को धन्यवाद ! 

मोहनदास के सपनों के देश में हिन्दुओं को पल-पल यह अनुभूति होती रहनी चाहिए कि वे नराधम हैं और उन्हें स्वाभिमानपूर्वक जीने का कोई अधिकार नहीं है । धर्मनिरपेक्ष देश में हिन्दुओं को हर काम के लिए मुस्लिम नेताओं/उलेमाओं और इस्लामिक स्कॉलर्स से अनुमति प्राप्त करने का अधिकार दिया जा रहा है यही क्या कम है ! “फ़ादर ऑफ़ द नेशन” मोहनदास की यही व्यवस्था है जो अब अपने पूरे स्वरूप में प्रकट हो चुकी है 

*प्रसादम् में सुअर की चर्बी*

तिरूपति बालाजी मंदिर में भोग और प्रसादम् के लिए बनाये जाने वाले लड्डू के लिए प्रयुक्त घी में वानस्पतिक तेलों की मिलावट के साथ ही टैलो (पशुओं की चर्बी), मछली का फैट और लार्ड (सुअर की चर्बी) की पुष्टि लैबोरेटरी की जाँच में हुयी है जिससे यह प्रमाणित हो चुका है कि भगवान को लगाये जाने वाले भोग और भक्तों को प्राप्त होने वाले प्रसादम् को अब पूरी तरह सेक्युलर बना दिया गया है । अब सभी सेक्युलर लोग बिना किसी झिझक के इस प्रसादम् का सेवन कर सकते हैं ।

*वामपंथियों को बधाई! यही है असली सार्वभौमिक सेक्युलरिज़्म, सेक्युलर अनुष्ठानम्, सेक्युलर भोगम् और सेक्युलर प्रसादम् । पशुओं के फैट्स के नाम पर वर्गीकरण करके उनके साथ नस्लीय भेदभाव करना पशुओं के साथ क्रूरता करना है, जो नहीं होना चाहिए ।*

खाद्यपदार्थों में भी शाकाहार और मांसाहार जैसा भेदभाव लोकतांत्रिक सिद्धांतों, भाईचारे और संविधान के विरुद्ध है । सेक्युलर सरकारों के निर्देशन में मंदिर प्रबंधन समिति द्वारा यह भेदभाव समाप्त कर दिया गया है । यही व्यवस्था बिहार, बंगाल, दिल्ली आदि अ-भाजपाई राज्यों में भी होनी ही चाहिए ।

दक्षिण भारतीय मंदिरों का नियंत्रण राज्य सरकारों के पास है और मंदिर प्रशासन समिति में अन्य मतावलम्बी सेक्युलर्स को भी रखा गया है, यही कारण है कि मंदिरों को धर्मनिरपेक्ष बनाने में सफलता प्राप्त हो सकी है जिसके लिए सभी सनातन विरोधी सेक्युलर्स बधाई के पात्र हैं । बस, एक ही अनुरोध है *कि मंदिरों की तरह मस्जिदों, चर्चों और सिनेगॉग आदि को भी सरकार अपने नियंत्रण में लेकर उनकी प्रशासन/प्रबंधन समिति में सनातनियों की नियुक्ति करे जिससे सभी पूजा-आराधना स्थलों में एकरूपता लायी जा सके और उन्हें भी सेक्युलर स्वरूप प्रदान कर दिया जाय ।*

साथ ही यह भी विनम्र निवेदन है कि भगवान भी सेक्युलर होने चाहिए, कुछ बहुत भले चित्रकार देवी-देवताओं के नग्न और विकृत चित्र बनाकर उनमें देवत्व के दर्शन कर लिया करते थे उस विधा को व्यापक किया जाना चाहिए साथ ही उस विधा में अन्य मतों के भी आराध्यों के नग्न और विकृत चित्र सम्मिलित किये जाने चाहिए जिससे भगवान लोग भी पूरी तरह सेक्युलर हो जाएँ । सामाजिक न्याय, विविधता, भाईचारे और संविधान की रक्षा के लिए यह सब आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य भी है ।

कितनी कश्मीरियत

                कश्मीर के पंपोर, त्राल, पुलवामा, राजपोरा, जैनापोरा, शोपियाँ, कुलगाम, अनंतनाग, पहलगाम, किश्तवाड़, भद्रवाह, डोडा आदि विधानसभा क्षेत्रों में प्रथम चरण का मतदान सम्पन्न हो गया । दृश्य-श्रव्य संचार माध्यम के लोगों ने स्थान-स्थान पर मतदाताओं से जो चर्चा की वह हतप्रभ कर देने वाली है । इस आधार पर कश्मीर के मतदाताओं को दो वर्गों में देखा जा सकता है – एक वर्ग में श्रमिक, प्रौढ़, राजनीतिक दलों से जुड़े और भारतविरोधी लोग सम्मिलित हैं जबकि दूसरे वर्ग में शिक्षित, युवा और विवेकशील लोग सम्मिलित हैं । प्रथम वर्ग के वक्तव्य विचित्र, विरोधाभासी और पूर्वाग्रही हैं –   

“....धारा तीन सौ सत्तर ही तो हमारी पहचान है, उसे ही समाप्त कर दिया तो अब बचा ही क्या! जब धारा ३७० थी तब सब अमन चैन था, पर हालात बहुत ख़राब थे, मिलिटेंसी थी, लोग घर से बाहर नहीं निकलते थे, बच्चे स्कूल नहीं जाते थे । मोदी के आने से नौकरी समाप्त हो गयी, किसी को भी पकड़ कर मार दिया जाता है ।“

“हमें ३७० वापस चाहिए, उससे नौकरी मिलेगी और अमन चैन वापस आयेगा । पहले पत्थरबाजी होती थी, अभी नहीं होती, पर इसमें अच्छा क्या हुआ! सब कुछ तो वैसा ही है । हमें पहले जैसा ही चाहिए, अभी जैसा नहीं चाहिए । मोदी ने महँगाई कर दी, पहले अब्दुल्ला के समय महँगाई ज्यादा थी, अभी कम है पर हमें पहले जैसा ही चाहिए, मोदी नहीं चाहिए, स्टेटहुड चाहिए और अब्दुल्ला चाहिए । अब्दुल्ला हमारा है, मोदी तो इंडिया का है.. बाहरी है, वो नहीं चाहिये ।“

“अभी बच्चे स्कूल जाते हैं, पहले नहीं जाते थे, पर इससे क्या होता है! हमें पहले जैसा ही चाहिए । जब अब्दुल्ला था तब शांति नहीं थी, अभी शांति है, हमें और शांति चाहिये इसलिए अब्दुल्ला की सरकार को ही लायेंगे, मोदी को हटाना है ।“

इससे भी अद्भुत यह है कि कश्मीर के कुछ हिंदू भी अब्दुल्ला, महबूबा और धारा ३७० ही चाहते हैं, कोई और नहीं । इस तरह के लोग और उनके वक्तव्य बहुत कुछ सोचने को विवश कर देते हैं। यह हमने कैसा भारत बनाया है! जिस कश्मीरियत की बात की जाती है वह इन लोगों के वक्तव्यों में कहाँ है ? फ़ारुख़, उमर अब्दुल्ला, महबूबा और बुरहान वानी में केंद्रित आम आदमी की सोच को कश्मीरियत कैसे मान लिया जाय!

अब तो पूरे भारत के सामने यह स्पष्ट हो चुका है कि कश्मीर में इतने वर्षों से आतंकवाद क्यों फलता-फूलता रहा है । कौन हैं वे लोग जो पाकिस्तानी आतंकियों को छिपने के लिए स्थान और खाने के लिए भोजन देते रहे हैं ! कौन हैं वे लोग जो सेना पर पथराव करते रहे हैं !

*कश्मीरियों का यह वंचित वर्ग ब्रेनवाश्ड है या कन्फ़्यूज़्ड है या भले-बुरे में अंतर कर पाने में असमर्थ है, या पाकिस्तान का हथियार है या.... जो भी हो इतना तो अब स्पष्ट है कि कश्मीर के नर्क के लिए केवल और केवल ऐसे कश्मीरी ही उत्तरदायी है।* जहाँ के लोगों का बौद्धिक स्तर ऐसा हो वहाँ पर्यटन के लिए कौन जाना चाहेगा?

कश्मीरियों का दूसरा वर्ग शिक्षित, युवा और प्रगतिवादी है । वह विकास और शांति के लिए धारा ३७० की नहीं, नये कश्मीर की माँग करता है, मोदी के शासन पर भरोसा करता है ...पर ऐसे लोगों की संख्या है ही कितनी?