रविवार, 7 दिसंबर 2025

हिड़मा तो अजेय था, उसे मारा कैसे गया?

माओवादी गुरिल्ला कमांडर हिड़मा को जानने वालों का तर्क है कि साठ से सत्तर लड़ाकों के चार स्तरीय सुरक्षा घेरे को भेदकर हिड़मा तक पहुँचना ही असंभव था, उसे मारा कैसे गया, निश्चित ही कोई गड़बड़ है। 

समाजसेविका सोनी सोढ़ी पहले ही कह चुकी है कि हिड़मा तो आत्मसमर्पण करने गया था पर पुरस्कार के लालच में पुलिस ने उसे मार दिया । यह हिड़मा के प्रति पुलिस और सरकार का अन्याय है। 

कई लोगों की हत्यायें करने वाले कामरेड की मृत्यु से बस्तर के लोगों का व्यथित होना यह प्रमाणित करता है कि कुछ लोगों की सोच कितनी पक्षपातपूर्ण होती है कि उन्हें परिभाषायें और मानदंड बदलने में देर नहीं लगती।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

अबोधों का वैचारिक बालविवाह

(...पिछले अंक से निरंतर)

उग्रमाओवादियों की काल्पनिक "जनताना-सरकार" में वैचारिक बाल-विवाह को प्राथमिकता दी जाती रही है क्योंकि यह अपेक्षाकृत सुविधाजनक है, परिपक्व युवकों का वैचारिक प्रक्षालन सरल नहीं होता।
अबूझमाड़ के दुर्गम वनों में मांडवी हिड़मा जैसे कई किशोरों और किशोरियों का उग्र-माओवाद से वैचारिक बालविवाह किया जाता रहा है जिस पर न तो मानवाधिकारवादियों ने कभी कोई चिंता प्रकट की और न कभी कोई अतिबुद्धिजीवी व्यथित हुआ। पाँचवी कक्षा तक शिक्षित परवर्ती गाँव के हिड़मा को मात्र सत्रह की आयु में कार्लमार्क्स, हेगल, माओ, लेनिन और स्टालिन की विचारधारा समझ में आ गयी थी! साम्यवाद, पूँजीवाद और बुर्जुआ जैसे शब्दों के अर्थ भी समझ में आ गये थे ! यह भी समझ में आ गया था कि न्याय और अधिकार बंदूक की नली से ही उत्सर्जित होते हैं जिन्हें पाने के लिए गुरिल्ला युद्ध के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। यह भी समझ में आ गया था कि विकास के लिए आधारभूत संरचनाओं के निर्माण की कोई आवश्यकता नहीं इसलिए उन्हें तोड़ कर नष्ट कर दिया जाना चाहिए, ...और यह भी कि देश के विधान को अस्वीकार कर रक्तपात करना ही प्रगतिशीलता और न्याय की उपलब्धता है।
सत्रह वर्ष की आयु में हिड़मा अपना घर-परिवार त्यागकर माओवादी संगठन का सक्रिय सदस्य बन गया, फिर एक-एक चरण आगे बढ़ते हुये वह संगठन के उच्च पद तक भी पहुँच गया।
इसी तरह कक्षा चार तक शिक्षित राजे ने भी मात्र दस वर्ष की आयु में ही माओवादी संगठन को गले लगा लिया था जो बाद में हिड़मा की सहचरी भी बनी।
बस्तर की पृष्ठभूमि में पले-बढ़े किशोर देश के बारे में भले ही न जानते हों पर वे माओवाद की गूढ़ता को जान जाते हैं। यह अद्भुत है... और अविश्वसनीय भी, पर बुद्धि के वैचारिक प्रक्षालन से सब कुछ संभव है।
प्रिय हिड़मा प्रेमियो! एक बार तो अबूझमाड़ आइये, वनवासी जीवन को समीप से देखिये...और कर सको तो उसे अनुभव भी कीजिये।
क्या यह सत्य नहीं है कि शोषण और भ्रष्टाचार हमारे सबसे प्रिय शत्रु हैं जिनका परित्याग आप भी नहीं करना चाहते। जल-जंगल-जमीन पर वनवासियों का नैसर्गिक अधिकार था, है और रहेगा पर उसके लिए क्या कोई शासन व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? तुम्हारे नारे वनवासियों को लुभाते हैं, उनका भला नहीं करते। आदिवासीसंस्कृति संरक्षण के नाम पर अभी तक कितना संरक्षण कर सके हैं आप?
वे प्रकृति के उपासक हैं, आपने उन्हें प्रकृति के विरुद्ध खड़ा कर दिया है, अपने ही लोगों की हत्या कर देने के लिए प्रेरित किया है, उन्हें शिक्षा से वंचित करने के लिए विद्यालयभवन तोड़ दिये हैं, वहीं आप अपने बच्चों को पढ़ने के लिए पश्चिमी देशों में भेज रहे हैं। यह कैसी क्रांति है जो केवल हिंसा और क्रूरता की दीर्घकालिक नींव पर खड़ी की गयी है, जबकि आदिवासियों को मिला कुछ भी नहीं!
श्रीमान् कामरेड जी! मई २०१३ का वह दिन भी स्मरण कीजिये, जब झीरम घाटी में आपने घात लगाकर महेंद्रकर्मा, नंदकुमार पटेल और विद्याचरण शुक्ल सहित कई नेताओं की नृशंस हत्या ही नहीं की प्रत्युत उनके शवों पर कूद-कूद कर नृत्य किया, शवों को जूतों से ठोकरें मारी और उन पर मूत्रत्याग भी किया। क्या यही आदिवासी संस्कृति है?
परिवर्तन जगत का नियम है, हम उसका स्वागत करते हैं पर हिंसा का नहीं कर सकते।

एक करोड़ का इनामी माड़वी हिड़मा

नायक या खलनायक!

बस्तर का दुर्दांत माओवादी हिड़मा मारा गया। पुलिस व्यवस्था और सजगता के कारण उसकी शवयात्रा में अधिक लोग नहीं आ सके, केवल सोनी सोढ़ी जैसे कुछ समर्थक, निकट संबंधी, ग्रामीण और पत्रकार ही सम्मिलित हो सके। शवयात्रा के साथ रोती हुयी ग्रामीण स्त्रियों को भी देखा गया। जो लोग तर्क देते नहीं थकते कि ग्रामीण नक्सली(माओवादी) नहीं होते, उन्हें अपने तर्क की सत्यता जानने के लिए अबूझमाड़ जाकर कुछ दिन रहना चाहिए।
शवयात्रा में अर्थी पकड़कर चलती हुयी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोढ़ी को भी आक्रोशित होकर पुलिस और सरकार के विरुद्ध वक्तव्य देते देखा गया, जो माओवादियों की समर्थक एवं पुलिसप्रताड़िता मानी जाती है और जेएनयू वालों की विशेषरूप से प्रिय "समाज उद्धारक" है। अंतिम संस्कार के समय सोनी ने हिड़मा के शव पर काले रंग की एक पेंट-शर्ट भी डाली जो सशस्त्रक्रांति की प्रतीक है।

उधर महानगरीय अतिबुद्धिजीवियों और कल्पनाजीवियों के प्रिय नारों के पात्र स्थानापन्न हो गये हैं - "तुम कितने हिड़मा मारोगे, हर घर से हिड़मा निकलेगा"! "इंकलाब जिंदाबाद"! "शहीद हिड़मा अमर रहे"!
बस्तर टाकीज़ चैनल वाले विकास तिवारी सधे शब्दों में प्रश्न करते हैं हिड़मा तो मारा गया पर "कहीं यह विचारधारा फिर तो नहीं आ जायेगी"? तिवारी मानते हैं कि कोई विचारक तो मर सकता है पर विचारधारा कभी नहीं मरती, अनुकूलता पाते ही वह किसी दूसरे कलेवर में पुनः प्रकट होगी ही।
हाँ! सत्य यही है, असुरत्व और देवत्व स्थायी भाव से रहने वाले तत्व हैं जो तमस और तेज के लिए निरंतर संघर्षरत रहते हैं, उनके नाम बदल सकते हैं, संघर्ष और सफलताओं के अनुपात बदल सकते हैं, ...पर अस्तित्व तो रहता ही है। जगत का यही गतिमान सत्य है।

माओवाद! यानी बंदूक की नली से न्याय निकालने का हठ और आश्वासन।
बस्तर से लेकर जेएनयू, जाधवपुर विवि, और यहाँ तक कि टिस (TATA institute of social studies) तक फैली इस डरावनी विचारधारा का गंभीरविश्लेषण बहुत आवश्यक होता जा रहा है।
बस्तर का एक सत्य यह भी है कि हमें प्रायः यह नहीं पता होता कि हमारे आसपास बैठे लोगों में से कौन व्यक्ति माओवादी है! यह जिले का कलेक्टर भी हो सकता है, कोई डॉक्टर, कोई प्रोफेसर, कोई साहित्यकार, कोई सामाजिक कार्यकर्ता या फिर कोई विचारक भी हो सकता है।
यह हम सभी का अनुभव है कि सत्ता तो अवसरवादी होती ही है, हमारा शासनतंत्र भी निरंकुश है, नैतिक और मानवीय मूल्य धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं। धूर्त और निर्लज्ज राजनेताओं की दुष्टतायें किसी से छिपी नहीं हैं। ये परिस्थितियाँ किसी भी सशस्त्रविद्रोह की आधारभूमि निर्मित कर सकती हैं। किंतु आज तक के इतिहास में ऐसे कितने विद्रोह अपने लक्ष्य तक पहुँच सके हैं?
भारतीय स्वतंत्रतासंग्राम में भी कितने लोगों ने आत्मोत्सर्ग किया पर सत्ता के नाविक बन गये जवाहरलाल जिनका भारतीयता और सनातन मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं था।
जब अन्याय निरंकुश हो, न्याय न्यायाधीशों के यहाँ ही बंदी हो तो क्रांति सैद्धांतिकरूप से आकर्षित करती है पर उसके भटकने और धूर्तों के हाथों में जाने की भी प्रबल आशंकायें होती हैं।
माओवादी जल-जंगल-जमीन की सुरक्षा की बात करते हैं, की भी जानी चाहिए, पर किस तरह? वे शासन-प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशस्त्रक्रांति की बात करते हैं किंतु स्थानीय व्यापारियों और सरकार से चौथ वसूलना अपना अधिकार मानते हैं।

चलो माना कि सागौन के जंगल सत्ता, प्रशासन और संगठित अपराधियों की भेंट चढ़ गये पर बस्तर के जंगलों से आँवला और चिरौंजी के वृक्ष किसने काट डाले ? आप किस जंगल को बचाने की बात करते हैं? वनवासी गांवों में सरकारी स्वास्थ्यकेंद्रों और विद्यालयों के नवनिर्मित भवन कौन तोड़कर ढहा देता है? अबूझमाड़ में सड़कें क्यों नहीं बनने दी जातीं? दल्लीराजहरा-जगदलपुर रेल लाइन निर्माण का विरोध करने के क्या उद्देश्य हैं?
कौन हैं जो आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का विरोध करते हैं और किस लिए? क्या यह विश्लेषण का विषय नहीं होना चाहिये कि क्यों शीर्ष माओवादियों के बच्चे विदेशों में पढ़ायी करते हैं, और वनवासी "जनताना सरकार" की स्थापना के लिए एक-दूसरे की निर्मम हत्या कर रहे हैं?

भ्रष्टाचार सत्ता में है, समाज में है... और संगठनों में भी है, फिर वह कोई भी संगठन क्यों न हो! इसीलिए कोई निर्दुष्ट शासन व्यवस्था कभी बन नहीं पाती। किसी अच्छी और लोकहितकारी शासन व्यवस्था के लिए सतत सजगता, संघर्ष और निरंतर परिमार्जन की आवश्यकता होती है। हमें माओवाद की प्रतिबद्धतायें समझनी होंगीं और उनके सामाजिक न्याय की व्यावहारिक सीमायें भी।

क्रमशः....

शनिवार, 15 नवंबर 2025

आतंकवाद- विवशता, प्रतिक्रिया या विश्वास

नाम - आफिया सिद्दीकी, *न्यूरोसर्जन*

जन्म - २ मार्च १९७२, कराची, सिंध, पाकिस्तान
शिक्षा - मैसाचुएट्स इंस्टीट्यूट्स आॅफ़ टेक्नोलाॅजी से बी.एस. ; ब्रांडीज यूनिवर्सिटी से न्यूरोसाइंस में पीएच.डी.
कार्य - समाज सेवा
प्रियकार्य- कट्टर इस्लामिक जिहाद
इस्लामिक दायित्व - इंस्टीट्यूट आॅफ़ इस्लामिक रिसर्च एंड टीचिंग की बोर्ड मेंबर।
सांप्रदायिक धारा - कट्टरसुन्नी
उपाधि- लेडी अल-क़ायदा
वर्तमान स्थिति - जिस अमेरिका से शिक्षा ग्रहण की उसी के विरुद्ध अफ़ग़ानिस्तान जाकर जिहाद किया। अमरीकी सेना के अधिकारियों की हत्या के प्रयास में गजनी में पकड़ी गयी और फ़ेडरल मेडिकल सेंटर, कार्सवेल, टेक्सास में ८६ वर्ष का कारावास भोग रही है।
सामाजिक प्रतिष्ठा- *पाकिस्तान से लेकर अमेरिका तक आफिया की मुक्ति के आंदोलन चल रहे हैं जिसमें खालिस्तान के पीले झंडे भी चमकते दिखाई देते हैं*।

आफिया का विश्वास है कि धरती पर मुसलमान के अतिरिक्त अन्य किसी को जीने का अधिकार नहीं है। वह पूरी दुनिया को सुन्नी बनाने में विश्वास रखती है। वह फिलिस्तीन की समर्थक है और उसे स्वतंत्रदेश के रूप में मान्यता दिलाने के लिये प्रयासरत है।
*जो लोग काफिरों को जीने का अधिकार नहीं देना चाहते वे अपने स्वयं के जीने के मानवीय अधिकारों के लिये आंदोलन कर रहे हैं।*
*इधर भारत में जो कहते थे कि अशिक्षा और निर्धनता लोगों को आतंकवादी बनाती है, वही विद्वान अब कहने लगे हैं कि मोदी सरकार मुसलमानों को आतंकवादी बनने के लिए विवश करती है*।
जनता को तय करना है कि कराची की न्यूरोसर्जन डाॅक्टर आफिया सिद्दीकी को अमेरिका में आतंकवादी किसने बनाया, मोदी ने या वहाँ के सत्ताधीशों ने?

*कुछ लोग मानते हैं कि सिद्दीकी उत्तर भारत के कायस्थ थे जो मुसलमान बन गये। हिंदू से मतांतरित होकर मुसलमान बने लोगों को अरब के लोग मुसलमान नहीं मानते, वे उन्हें कट्टर और आतंकवाद प्रेरित मानते हैं। पाकिस्तान बनाने के पीछे ऐसे ही लोगों का हाथ था जिनका इस्लाम से कोई लेना देना नहीं था।*

मंगलवार, 11 नवंबर 2025

आर्यों का इतिहास - गौरवपूर्ण या कलंकित

कोई देश जब पराधीन होता है तो वहाँ के निवासी सबसे पहले अपने स्वाभिमान, संस्कृति और इतिहास को विस्मृत करने के लिये बाध्य होते हैं । उस पराधीन देश का इतिहास, गौरव और आदर्शपुरुष विजेता देश के अधीन हो जाते हैं । युद्धों और पराधीनता का यही सत्य है ।  

इस्लामिक पराधीनताकाल में भारत के गुरुकुल और विश्वविद्यालय नष्ट किये गये किंतु ब्रिटिशकाल में गुरुकुलों को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया । विदेशी शक्तियों द्वारा हमें यह पढ़ने और सीखने के लिये बाध्य किया गया कि भारत के वर्तमान आर्य वास्तव में विदेशी प्रवासी थे जो ईसवी सन् से पंद्रह सौ वर्ष पूर्व मध्य एशिया से भारत आकर बस गये थे ।
आर्यों की पहचान में बताया जाता रहा कि वे कृषक थे, योद्धा थे, प्रवासीप्रवृत्ति के थे; मध्य एशियायी देशों यथा - ईरान, ऑस्ट्रिया और रूस के क्षेत्रों से अफ़गानिस्तान के मार्ग से भारत में प्रवेश कर सरस्वती नदी के किनारे बस गये । वे घोड़ों और रथों पर बैठ कर भारत आये; अपनी संस्कृति, सभ्यता, योरोप की संस्कृतभाषा, वेद और परम्परायें भी साथ लेकर आये । विदेशी आर्यों ने भारत के मूलनिवासियों से सम्बंध स्थापित किये और एक मिश्रित नृवंश की उत्पत्ति की जो वर्तमान भारत के निवासी हैं ।
विश्वासघाती विद्वानों और धूर्तों द्वारा रचित नव-इतिहास में आर्यों को विदेशी और आक्रमणकारी लिखा जाता रहा, पर अब तो काले अंग्रेजों द्वारा यह भी लिखा जाने लगा है कि वेदों की रचना द्रविणों और आदिवासियों ने की जिनपर विदेशी आर्यों ने अपना अधिकार कर लिया ।
विश्व के प्राचीनतम् लिखित अभिलेखों में मान्य वैदिक संहिताओं, वैदिकोत्तर ग्रंथों, स्मृतियों, पुराणों, उपनिषदों, श्रीमद्भाग्वद्, रामायण और साहित्यिक ग्रंथों आदि में समाये भारत के वास्तविक इतिहास को नष्ट करने के लिए कृत्रिम युगपुरुषों के षड्यंत्रों द्वारा स्थापित किये गये उपाय तो स्वाधीन भारत में भी अनवरत् हैं ही, देखना यह है कि बंदी इतिहास कब मुक्त हो पाता है ! तब तक तो “धूर्तता ही कलियुग की विद्वता है” का डंका बजता रहेगा ।

*सनातनियों के नरकंकाल*

  जिस देश में शवदाह संस्कार की परम्परा रही हो वहाँ खनन में सैकड़ों की संख्या में प्राप्त होने वाले सहस्रों वर्ष प्राचीन नरकंकाल किन लोगों के हैं ? ऐसे नरकंकालों के आनुवंशिक अध्ययन से मिलने वाले तथ्य क्या प्रमाणित कर सकते हैं, क्या यह कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे, प्रत्युत् वे मध्य-एशिया या रूस से आकर भारत में बस गये थे ?
  भारत पर चीन और फारस जैसे सीमावर्ती देशों द्वारा आक्रमण होते रहे हैं, सुदूर यूनान द्वारा भी आक्रमण किये गये । भारत के साथ एशिया, अफ़्रीका और यूरोप के सुदूर देशों से व्यापारिक सम्बंध भी रहे हैं, स्पष्ट है कि उनमें परस्पर आवागमन भी होता रहा है । इन सभी विदेशियों में शवदाह की परम्परा न तब थी और न अब है, उनके शवों का भूमिगत संस्कार ही किया जाता रहा है । भारत की भूमि पर आकर परलोक सिधारने वाले विदेशी सैनिकों और व्यापारियों में से कितने लोगों के शव उनके देश वापस ले जाये गये, और कितने शव यहीं समाधिस्थ किये गये, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकना असम्भव नहीं है । क्या इन समाधियों ने निकले नरकंकालों से भारत के मूलनिवासियों के नृवंशीय आनुवंशिक इतिहास का पता लगाया जा सकना सम्भव है ? 
सूक्ष्मदर्शी और इलेक्ट्रॉन-सूक्ष्मदर्शी के आविष्कार के पश्चात् आनुवंशिकी अध्ययन में भी एक क्रांति आयी । विज्ञान की स्थूल से सूक्ष्म की ओर ज्ञान-यात्रा प्रारम्भ हुयी । आयुर्वेदोक्त गुणसूत्रीय ज्ञान को पुनर्व्यवस्थित किया गया, Mitochondrial DNA lineages (Genes located in the 37-gene)  को पाकर वैज्ञानिक उत्साहित हुये और उन्होंने नृवंश के विकास एवं विस्तार पर पुनः कार्य करना प्रारम्भ किया । उन्हें ज्ञात हुआ कि mt-DNA की अनुवंशिकता पूरी तरह माँ पर निर्भर करती है, पिता पर नहीं । अर्थात् माइटोकॉन्ड्रियल डी.एन.ए. से माँ के पूर्वजों का तो पता लगाया जा सकता है, पर पिता के पूर्वजों का नहीं, फिर चाहे वे भारतीय हों या विदेशी ।
टीवी वार्ताओं में छाये रहने वाले भारतीय राजनेताओं, प्रवक्ताओं, साहित्यकारों और इतिहासकारों को किसी वैज्ञानिक तथ्य या तार्किक चिंतन की आवश्यकता नहीं होती, वे जो भी चीख-चीख कर कहते हैं वही परम सत्य होता है । लोकतंत्र में झूठ के महिमामंडन की स्वतंत्रता और सत्य को बंदी बनाकर रखने की व्यवस्था होती है इसलिये वार्ताओं में झूठों और दुष्टों का बोलबाला रहता है, वे यह मान कर चलते हैं कि द्रविण, आदिवासी, बौद्ध और मुसलमान ही भारत के मूलनागरिक हैं, शेष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बाहर से आकर बसे आर्यों की संतानें हैं इसलिये उन्हें तो भारत से भगा देना चाहिये पर बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों को भारतीय नागरिकता दी जानी चाहिये ।

रविवार, 9 नवंबर 2025

धवल नहीं, नित-नवल के पाश में बेचारा अमेरिका

 मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, विक्रम संवत् २०८२

सम्प्रदायप्रेमी मदनानी जीत गया, अमेरिकाप्रेमी ट्रम्प हारकर गहन विषाद में चला गया । न्यूयार्क के मुसलमान अल्ला-हू-अकबर के नारे लगा रहे हैं, वे आश्वस्त हैं कि अब न्यूयार्क में उन्हें कोई अपनी मनमानी करने से नहीं रोक सकेगा, क्योंकि अब उनका अपना शासन प्रारम्भ हो गया है । कुछ लोगों ने अमेरिका के झण्डे नोच कर फेक दिये, उनके साथियों ने इस्लामिक झण्डे लगा दिये । मदनानी ने मुसलमानों को यह भी आश्वस्त किया है कि यदि नेतन्याहू कभी न्यूयार्क आये तो वे उन्हें बंदी बना लेंगे । कट्टरपंथी मदनानी की जीत से उत्साहित अमेरिका के एक मौलवी ने तो यह भी माँग कर डाली कि अब न्यूयार्क में काफ़िरों पर जिजिया लगा देना चाहिये । यह पूरी तरह न्यायसंगत है और कुर-आन के दिशा निर्देशों के अनुसार भी । जो काफ़िर हमें जिजिया देंगे हम उनके जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा का उन्हें वचन देंगे, और उनके दिये जिजिया से अपने इस्लाम को और भी सुदृढ़ करेंगे ।

मुस्लिम राष्ट्रों के लोगों को मदनानी के रूप में एक ख़लीफ़ा मिल गया है, पर क्या अरब के मुसलमान भी यही सोचते हैं ? कदाचित् नहीं, वे तो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, अमेरिका, यूरोप और अफ़्रीका के मुसलमानों को मुसलमान ही नहीं मानते ।   

ट्रम्प ने भारतीयों का अपमान किया, वीजा को लेकर भारतीय युवकों को बेड़ियों में जकड़कर सामग्री की तरह वापस भेजा; भारतीय उद्योगों को अपने नियंत्रण में लेने के लिये टैरिफ़ और अर्थदण्ड लगाया; भारत के प्रधानमंत्री का बारम्बार अपमान ही नहीं किया प्रत्युत उन्हें सत्ता से हटाने और यहाँ तक कि उनकी हत्या तक के प्रयास किये । ट्रम्प पूरे विश्व के लिये खलनायक बन गया । न्यूयार्क के भारतीयों ने ट्रम्प से प्रतिकार लेने के लिये मदनानी को चुना; इसलिये नहीं कि उन्हें मदनानी से कोई प्रेम है, प्रत्युत इसलिए कि उन्हें ट्रम्प से बैर है, …ठीक भारत में आपातकाल के पश्चात् हुये आमचुनावों की तरह । जनतादल से जो भी प्रत्याशी खड़ा हो गया, जनता ने उसे ही वोट दिया । जनता का उद्देश्य जनतादल को जिताने से अधिक कांग्रेस को हराना था । यह भीड़ की सहज प्रतिक्रिया का परिणाम था । जनतादल को सत्ता मिली पर अगले चुनाव में कांग्रेस पुनः सत्ता में वापस आयी जिसके दुष्परिणाम भारत की जनता को अद्यतन भोगने पड़ रहे हैं ।  

आक्रोश में लिया जाने वाला प्रतिकार प्रतिक्रियात्मक होने से प्रायः कल्याणकारी नहीं होता । भीड़ की प्रतिक्रिया में गुण-दोष विवेचना, दूरदर्शिता और लोककल्याण के उद्देश्यों का अभाव होता है । न्यूयार्क के भारतीयों और यहूदियों की तरह ही सन् सात सौ बारह में भी सिंध के बौद्धों ने अपने राजा दाहिर को सत्ता से हटाने के लिये दाहिर के शत्रु मोहम्मद-इब्न-कासिम का सिंध में स्वागत किया जिसके दुष्परिणाम अखण्ड भारत के लोग आज तक भोग रहे हैं । 

ममदानी की माँ मीरा नायर वामपंथी विचारों से प्रेरित रही हैं जिन्हें मुम्बई के मुसलमानों का दुःख तो दिखायी दिया पर धारावी में रहने वाले दक्षिण भारतीय हिंदुओं का दुःख द्रवित नहीं कर सका । उन्होंने सलाम बॉम्बे, कामसूत्र और मिसीसिपी जैसी चर्चित और धनवर्षा करने वाली फ़िल्में बनायीं । वे फ़िलिस्तीन की समर्थक रही हैं, यहूदियों की नहीं, गोया कोई भारतीय पाकिस्तान का तो समर्थक हो पर भारत का नहीं । यह अपने पूर्वजों के तिरस्कार और विदेशी आक्रमणकारियों के स्वागत की कहानी है जो लगभग एक समान रूप से इज़्रेल और भारत में चित्रित होती रही है । सनातनी वंश में जन्म लेने वाली मीरा नायर कभी भारतीय नहीं हो सकीं, उनका पुत्र भी भारतीय हितों का घोर विरोधी है, यही कारण है कि ममदानी की विजय पर पूरे पाकिस्तान में हर्ष की उद्दाम लहरें हिलोरें मारने लगी हैं । 

वामपंथ ‘स्थापित परम्पराओं’ से विद्रोह कर ‘नयी परम्पराओं’ की स्थापना में विश्वास रखता है । कुछ धवल हो या न हो पर वह नित नवल अवश्य होना चाहिये, फिर वह रक्तक्रांति हो या छद्माक्रमण, पक्षपातपूर्ण आचरण हो या एकांगी दृष्टि, लिव-इन-रिलेशन हो या पतियों का आदान-प्रदान ।

पुनः न्यूयार्क वापस चलते हैं जहाँ कट्टरपंथी उत्साहित हैं और उदारपंथी भयभीत । समर्थन और विरोध की प्रतिक्रियायें सामने आ रही हैं, ट्रम्प अपनी सारी चालों के बाद अब हतप्रभ है और अदूरदर्शी न्यूयार्कियन भारतवंशी एवं यहूदी न्यूयार्क को मोहम्मद-इब्न-कासिम का विजित सिंध बनाकर मौन हो गये हैं; उन्हें पूर्ण विश्वास है कि वृक्ष कोई भी लगाया जाय, उसमें खिलेंगे तो पारिजात के ही पुष्प । वैचारिक पक्षाघात से ग्रस्त न्यूयार्क के भारतीयों और यहूदियों को अभी बहुत कुछ देखना और भोगना शेष है । जो अपने इतिहास की उपेक्षा करते हैं, समय उनकी उपेक्षा करता है । न्यूयार्क में जो हुआ, जो हो रहा है, जो होगा ...वह सब इतिहास के पृष्ठों में पहले भी लिखा जा चुका है, इस बार तो केवल पुनरावृत्ति ही होगी, कोई नवीनता नहीं ।

बुधवार, 5 नवंबर 2025

अल-तकिया

 अरबी शब्द अलतकिया (प्रच्छन्नता) का दुरुपयोग – 

अरब के लोग प्रच्छन्नता (अल-तकिया) को प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यक्तिगत सुरक्षा के लिये प्रशस्त उपाय मानते रहे हैं । यह एक सुरक्षात्मक उपाय है जिसे केवल प्रतिकूल परिस्थितियों में ही किसी अन्याय या अत्याचार से बचने के लिये उपयोग में लाया जाता था, किंतु भारतीय उपमहाद्वीप में यह उसी रूप में नहीं है ।
विषम स्थितियों में योजनापूर्वक संस्कारित(Medically modified)विष का उपयोग चिकित्सा जगत में किया जाता रहा है, यह सामान्य चिकित्सा के लिये नहीं है । सामान्य स्थितियों में इसका प्रयोग किया जाना कभी भी शुभ नहीं हो सकता । प्रारम्भ में यही सिद्धांत अल-तकिया(प्रच्छन्नता) के लिये भी व्यवहृत किया जाता रहा है जिसे अब धर्मसम्मत अनिवार्यता बना दिया गया । आज पूरे विश्व में अल-तकिया का दुरुपयोग अन्य सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के उन्मूलन के लिये किया जाने लगा है ।  

भारत में निवास करने वाले जो विद्वेषीहिंदू और विदेशी घुसपैठिये भारतीय संस्कृति और सभ्यता को निकृष्ट मानकर उसके उन्मूलन में लगे हुये हैं उनके लिये ऋग्वेद का यह मंत्र नेत्रोन्मीलक हो सकता है – 
“कृधी न ऊर्ध्वान् चरथाय जीवसे” – ऋग्वेद, १-३६-१४
हमें उन्नति और सुखद् जीवन के लिए उत्कृष्ट बनाइए, Make us noble for progress and happy life. …उत्कृष्ट बनाइये, उत्पीड़क और नरसंहारक नहीं, और इस कामना के लिये प्राकृतिक शक्तियों से प्रार्थना की गयी है । क्या यह वैदिक संस्कृति की उत्कृष्टता का प्रमाण नहीं!