यदि मैं कहूँ कि आम भारतीय विरोधाभासों के बीच जीने का अभ्यस्त है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी .एक ओर तो हम आध्यात्म कि बात करते हैं दूसरी ओर अनुचित तरीके से उपलब्धियां हासिल करने में भी पीछे नहीं रहना चाहते. कम से कम परिश्रम में अधिक से अधिक लाभ की प्रवृत्ति ने हमें मानव से दानव बना दिया है. पूजा-पाठ-मंदिर-कथा-भागवत.......इस सबके बाद भी पाप में प्रवृत्त होने से अपने को बचा नहीं पा रहे हैं हम.
एक दूसरे से श्रेष्ठ दिखना मानव समाज का विशिष्ट गुण है. इसके पीछे मूल प्रवृत्ति प्रतिस्पर्धा की है.लोगों ने श्रेष्ठता प्रदर्शन के कई तरीके खोज लिए हैं.हिटलर स्वयं को आर्य कहता था, हम भी अपने को आर्य कहते हैं. हम मिथ्या अभिमान के साथ जीने के अभ्यस्त हो गए हैं जिसके परिणाम स्वरूप हमारे चारो ओर कई विषमताओं ने भी जन्म ले लिया है.
आपकी तरह हमें भी अपनी श्रेष्ठता पर गर्व है. इसीलिए मैंने अपने समाज में, अपने चारो और इस श्रेष्ठता को खोजने का बहुत प्रयास किया पर असफल रहा. वैदिक ज्ञान की धरोहर की बात को यदि अभी छोड़ दिया जाय तो हमारे शेष इतिहास में गर्व करने जैसी कोई बात मुझे कहीं नहीं दिखी. भारतीय दर्शन एवं आध्यात्म का व्यावहारिक धरातल अत्यंत निराशा जनक है. हमारे समाज में विरोधाभासों की भरमार है. भारत में मंदिरों की संख्या, धार्मिक उत्सवों एवं राष्ट्र व्यापी भ्रष्टाचार के बीच कहीं कोई संतुलन या नियंत्रण जैसी स्थिति देखने को नहीं मिलती. आइये हम अपने को गर्व करने के योग्य बनाने का प्रयास तो करें.....मूल्यों को स्थापित करने और भ्रष्टाचार के विरोध में एक अभियान छेड़ कर ही हम आर्य कहलाने के योग्य बन सकेंगे.
एक दूसरे से श्रेष्ठ दिखना मानव समाज का विशिष्ट गुण है. इसके पीछे मूल प्रवृत्ति प्रतिस्पर्धा की है.लोगों ने श्रेष्ठता प्रदर्शन के कई तरीके खोज लिए हैं.हिटलर स्वयं को आर्य कहता था, हम भी अपने को आर्य कहते हैं. हम मिथ्या अभिमान के साथ जीने के अभ्यस्त हो गए हैं जिसके परिणाम स्वरूप हमारे चारो ओर कई विषमताओं ने भी जन्म ले लिया है.
आपकी तरह हमें भी अपनी श्रेष्ठता पर गर्व है. इसीलिए मैंने अपने समाज में, अपने चारो और इस श्रेष्ठता को खोजने का बहुत प्रयास किया पर असफल रहा. वैदिक ज्ञान की धरोहर की बात को यदि अभी छोड़ दिया जाय तो हमारे शेष इतिहास में गर्व करने जैसी कोई बात मुझे कहीं नहीं दिखी. भारतीय दर्शन एवं आध्यात्म का व्यावहारिक धरातल अत्यंत निराशा जनक है. हमारे समाज में विरोधाभासों की भरमार है. भारत में मंदिरों की संख्या, धार्मिक उत्सवों एवं राष्ट्र व्यापी भ्रष्टाचार के बीच कहीं कोई संतुलन या नियंत्रण जैसी स्थिति देखने को नहीं मिलती. आइये हम अपने को गर्व करने के योग्य बनाने का प्रयास तो करें.....मूल्यों को स्थापित करने और भ्रष्टाचार के विरोध में एक अभियान छेड़ कर ही हम आर्य कहलाने के योग्य बन सकेंगे.
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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.