बुधवार, 8 सितंबर 2010

वो ज़ालिम.......

कुछ  ऐसी बातें होती हैं, के भाषा चुप हो जाती है.
तब ख़ामोशी  ही  चुपके से सब, करने बयाँ आ जाती है.


कुछ ख़ास इबारत है इसकी, इसका भी इल्म ज़रूरी है.
गर पढ़ना इसे नहीं आता, तो हर तालीम अधूरी है.


हर बार पहल करते हम ही, ये भी तो हमारी   शराफत है.
इस पर भी वो खामोश रहें, तो ज़ाहिर है ये बगावत है.


आज - कल वो न जाने क्यों, बहुत मसरुफ रहते हैं.
पता हमको चला है, वो दिखावा भर ही करते हैं.


जो बोले बोल ही मीठे, तो समझो वो परिंदे हैं.
जो सब रस घोलता जाए, उसी के हम दीवाने हैं.


बहा कर खून वो ज़ालिम, ख़ुदा की बात करते हैं.
ख़ुदा ऐलान करता है, के वो वहशी दरिन्दे हैं.

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