लोग
मुग्ध होकर देख रहे हैं
कि कैसे
पाषाणों के वक्ष को चीरकर
बाहर आ गई है
वो
अपने पूरे अस्तित्व के साथ.
धन्य है उसकी जिजीविषा.
पूरे उमंग के साथ आगे बढती है
वो
मार्ग की बाधाओं से जूझती
बढती ही जाती है
आगे ....और आगे .......और-और आगे ...
जैसे कि अब रुकेगी ही नहीं
शांत होगी, तो बस ......समुद्र में मिलकर ही.
पर .....
हर पहाड़ी नदी के भाग्य में ऐसा कहाँ ?
धरती के मुक्त .....विस्तृत आँगन तक आते-आते
अपनी ही रेत में फंसकर रह गई है
वो ......
गंगा की तरह ....यमुना की तरह ........
लोग
चिंतित हो उठे हैं
कि कहीं यह भी तो सरस्वती कि तरह ......
नहीं-नहीं .....बचाना ही होगा इसे ....
सबको तृप्त करती ....सृजन करती ......, आगे बढती
यह
मात्र कोई सरिता, कविता, या ............गीता ही नहीं
नारी की अस्मिता भी है.
आप चाहें
तो इसे कुछ और भी नाम दे सकते हैं.
में तो इसे ..........''अन्वेषिका'' कहता हूँ.
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