रविवार, 1 मई 2011

                                        धर्म चिंतन ........1 


      मैं कोई नवीन बात बताने नहीं जा रहा हूँ.बस शब्दों का हेर-फेर है. मुझे लगता है कि हमें सुपरिचित शब्द "धर्म" से बार-बार परिचित होने की आवश्यकता है. अस्तु आज का चिंतन इसी विषय पर.
         यदि मैं कहूँ कि हम एक साथ कई धर्मों का पालन करते हैं तो आपको विचित्र सा लगेगा. पर वास्तविकता यही है कि जन्म से मृत्यु तक हमें कई धर्मों का पालन करना पड़ता है. भोर से अगली भोर तक ........और फिर नित्य यही क्रम...... उसी तरह .....जैसे पृथिवी को सामान्यतः  एक नहीं तीन-तीन गतियों से अपनी यात्रा करनी पड़ती है. एक अपनी धुरी पर, दूसरी सूर्य के चारो ओर ..और तीसरी उसके अपने भीतर.......इसके साथ ही गति के सारे सिद्धांतों का पालन भी. इतना ही नहीं  .....अपने अस्तित्व के लिए और भी न जाने कितने सिद्धांतों का पालन भी.  इन सबका पालन अनिवार्य है पृथिवी के लिए. ये पृथिवी के धर्म हैं. पृथिवी बंधी हुयी है इन धर्मों से. धर्मच्युत होने का परिणाम सहज ही समझा जा सकता है. 
       हमें भी .....ब्रह्माण्ड के असंख्य पिंडों की तरह ...मौसम की तरह .....चराचर जगत के अपने धर्मों का पालन करना पड़ता है. सोने-जागने से लेकर जीवन के सारे कर्मों के लिए एक निश्चित परिधि में कर्त्तव्य  करने होते हैं. 
    ब्रह्माण्ड के असंख्य स्थूल पिंडों की व्यवस्था कितनी आश्चर्यजनक है ! सबकी दिशाएँ भिन्न ..... गतियाँ भिन्न.....किन्तु कहीं पारस्परिक मुठभेड़ नहीं. भिन्नता के बाद भी टकराव नहीं. वस्तुतः भिन्नता के कारण ही टकराव नहीं है. एकरूपता होती तो सोचिये क्या होता.....? ब्रह्मांड के सभी सौर्य मंडल एक ही दिशा में एक ही गति से .......
       हाँ ! विशेषता यह है कि इनमें से कोई भी एक दूसरे के कार्यों में बाधा उत्पन्न नहीं करता ....यह नहीं कहता कि हमारी ही दिशा सही है ...हमारी ही गति सही है ...सब लोग हमारा ही अनुसरण करो. क्योंकि उन भौतिक पिंडों को पता है ...... पता है कि सब एक दूसरे का अनुसरण करने लगेंगे तो आपस में मुठभेड़ हो जायेगी . सब छिन्न-भिन्न हो जायेंगे ....अस्तित्व समाप्त हो जाएगा सबका.  इसलिए सब अपने-अपने रास्ते में अपनी-अपनी गति से गमनशील हैं. सब एक दूसरे का सम्मान करते हुए ...उनकी परम्पराओं का सम्मान करते हुए ...उनके सिद्धांतों का आदर करते हुए गतिमान हैं .  तथापि कुछ नियम हैं जिनका पालन सबके लिए अनिवार्य है. ......गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों का धर्मपालन किये बिना .......गति के सामान्य सिद्धांतों का धर्मपालन किये बिना ........कुल मिलाकर यह कि भौतिक शास्त्र के ज्ञाताज्ञात धर्मों का पालन किये बिना उनका अस्तित्व संभव ही नहीं है.  ऐसा ही है सनातन धर्म. इसी कारण सब धर्मों का पिता स्वरूप है यह. सनातन धर्म बड़ी उदारता से भिन्न-भिन्न सौर्य मंडलों को अपनी विशेष व्यवस्था बनाने की स्वतंत्रता प्रदान करता है. .....शर्त यह है कि एक व्यवस्था की  स्वतंत्रता दूसरे की व्यवस्था के लिए चुनौती न बन जाय. हम अलास्का के निवासी से यह नहीं कह सकते कि आप धोती कुर्ता पहनिए और हर पक्ष में मुंडन करवाइए. हाँ यदि वह भारत आता है तो उसे गरम कपडे छोड़ने ही होंगे ...अब वह यह नहीं कह सकता कि हमारे धर्मानुसार तो हमें सदैव गरम कपड़े ही पहनने हैं और रोज स्नान नहीं करना है.....क्योंकि हम अपने धर्म के विरुद्ध नहीं जा सकते. धर्म का यह जड़ स्वरूप है. यह हमारे लिए हानिकारक है. समाज के लिए हानिकारक है. हमारी जीवन शैली सदा सर्वदा सभी देश कालों में एक समान नहीं रह सकती. ....रहेगी तो कल्याणप्रद नहीं होगी. हमारा जीवन दुखों से भर जाएगा ..और हम समाज में उपहास के पात्र बन जायेंगे. 
     एक उदाहरण देखिये. छत्तीसगढ़ एक उष्ण क्षेत्र है ...यहाँ ग्रीष्म ऋतु में भी एक स्कूल के प्राचार्य पादरियों वाला ऊपर से नीचे तक लंबा चोंगा पहनते हैं. दूसरी कक्षा की एक छोटे बच्ची ने जिसे पादरी का नाम नहीं मालुम था ...पारस्परिक वार्ता में उन्हें " वो जो गले से पेटीकोट पहनते हैं ..........." संबोधन दिया. बड़े बच्चों ने सुना तो उनका नाम ही "पेटीकोट" रख दिया. अब वे जिधर से निकलते ...बच्चे मुंह दबाकर हंसने लगते. कितनी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न करली उन्होंने अपने लिए. इतनी ग्रीष्म में केवल धार्मिक जड़-परम्परा के पालन और अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखने के लिए उस चोंगे का धारण करना बुद्धिमत्ता का परिचायक नहीं है. धर्म प्रदर्शन की नहीं आचरण की चीज है. हिन्दुओं में कभी पर्दाप्रथा नहीं रही ....समय बदला .....तो पर्दे की आवश्यकता का अनुभव किया गया ......समय फिर बदला तो पर्दा शनैः-शनैः लुप्त होने लगा. यही धर्म है ...आवश्यकता के अनुरूप आवश्यक परिवर्तन. परिवर्तन के पीछे कोई कारण होते हैं...कोई तर्क होता है ....परिस्थितिजन्य  कारणों और तर्कों की उपेक्षा किसी भी धर्म को पाखण्ड बना देती है. धर्म जब पाखण्ड बन जाता है तभी वह अफीम की संज्ञा धारण करता है. 
       अपनी विशिष्ट धार्मिक पहचान को सबसे पृथक रखना विभिन्न धर्मावलम्बियों की एक बड़ी समस्या है. प्रश्न यह है कि आवश्यक क्या है जीवन के लिए ? पृथक पहचान या धर्मानुशीलन ? पहचान पाखण्ड है और धर्मानुशीलन आचरण है. आज जब शिक्षा इतनी सुलभ है ...विज्ञान ने लोगों को नयी दृष्टि प्रदान की है ....तब उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे जीवन में तर्क का समावेश करें. ....उचित-अनुचित की वैज्ञानिक दृष्टि से समीक्षा करें और फिर उसे जीवन में अनुकरण के योग्य बनाएं. विश्व के उन देशों के लिए जो गर्म हैं और जहाँ पानी की कमी है.....मैं खतने का समर्थन करता हूँ . कारण यह है कि वहां के लोगों में नित्य स्नान और शारीरिक स्वछता के अभाव में लिंगाग्र के चर्मावरण के नीचे जमा होने वाला स्राव किसी गंभीर व्याधि का कारण बन सकता है.  खतना उनके लिए आवश्यक है .......पर जहाँ पर्याप्त जल है ..और यूरोप जैसे देशों में जहाँ खूब शीत पड़ती है ऐसा करना आवश्यक नहीं है. मेरा आशय यह है कि धर्म यदि विज्ञान सम्मत है और आवश्यकतानुसार किंचित परिवर्तनशील हो तो ही समाज के लिए कल्याणकारी हो पाता है. भारत में ऋतु अनुरूप हमारी जीवन शैली में पर्याप्त परिवर्तन किये जाते रहने की गौरवशाली परम्परा रही है. 
      तालाबों, झीलों , झरनों , नदियों और समुद्रों के जल भंडारों के अपने-अपने धर्म हैं .....धर्मों की यह भिन्नता उनकी आवश्यकता है. पर तभी तक ......जब तक कि वे स्वसमूहों में रहते हैं. स्थान परिवर्तन के साथ ही उनके धर्म भी बदल जाते हैं. तालाब के पानी को नदी में डाल देने पर उसे नदी का धर्म मानना पड़ता है. वहाँ वह यह हठ नहीं कर सकता कि हमारी परम्परा तो स्थिर रहने की है ...हम प्रवाहित नहीं होंगे. ...प्रवाहमान होने से हम विधर्मी हो जायेंगे .  झरने का जल जब नदी में पहुंचे तो कहे कि हमारे धर्म में तो आदिकाल से ऊपर से नीचे झरते रहने की परम्परा है इसलिए हम यहाँ भी ऊपर से ही नीचे की ओर झरेंगे . नदी में आ गए तो क्या हुआ .......हमारी पृथक पहचान आवश्यक है हम अपनी धार्मिक परम्परा नहीं छोड़ेंगे. हमारी धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए हमें किसी ऊंचे स्थान पर ले चलो ताकि हम वहाँ से झर सकें और अपने धर्म की रक्षा कर सकें  .........विचारणीय  विषय है .....आप लोग सोचिये.....विभिन्न जल राशियों में विवाद खडा हो जाएगा . धार्मिक झगड़े होंगे और उनका विकास अवरुद्ध  हो जाएगा. धर्म के नाम पर हम सब भी यही कर रहे हैं ....ऊपर से इन अविवेकी बातों को संरक्षण देने के लिए धर्म निरपेक्षता नामक एक और अधर्म खड़ा कर दिया गया है  .  आप कल्पना कीजिये........ समुद्र में सभी जल राशियों के पहुँचने के बाद समुद्र की शासन व्यवस्था उनके लिए धर्म निरपेक्षता के नाम पर सभी को अपने-अपने धर्मों के पालन की स्वतंत्रता प्रदान करदे तो क्या होगा. मीठे-खारे का विवाद, मटमैले-साफ़ का विवाद, स्थिर रहने और बहने का विवाद ...न जाने कितने विवाद होंगे. फिर उनके धर्माधिकारी व्यवस्था दें कि प्रत्येक जल राशि की मछलियों को अपने-अपने जल राशि वाले धर्मपालन की स्वतंत्रता है.  साफ़ और मीठी नदी की मछलियों का धर्माधिकारी कहेगा कि समुद्र में मिल गए  तालाब के मटमैले जल के साथ रहने से हमारा धर्म नष्ट हो जाएगा इसलिए हमारी वाली मछलियो इधर आ जाओ. मछलियाँ परेशान होंगी ......समुद्र में जाएँ तो जाएँ कहाँ ? सारा जल तो मिल गया ...कैसे पहचाने कि कौन सी जल राशि समुद्र के किस भाग में है ?
     कल्याणकारी और अनुकरणीय धर्म वह है जो देश-काल की आवश्यकता के अनुसार निर्धारित और विकसित किया जाय. एक देश का एक धर्म हो . किसी एक देश में विभिन्न धर्मों का एक साथ होना अवैज्ञानिक है . उनकी निष्ठाएं पृथक हैं ...उनकी आवश्यकताएं पृथक हैं....उनकी प्राथमिकताएं पृथक हैं....उनकी कार्यशैली पृथक है....उनकी जीवन शैली  पृथक है .....
    भारत के विभिन्न सम्प्रदाय अपनी पृथक धारा के बाद भी राष्ट्रीय धारा में एक गति से ....एक दिशा में प्रवाहित होते हैं.  भारत के आयातित धर्म अपने को इनके समान नहीं बना सके हैं अभी तक ......विवाद का एक बड़ा कारण यही है. 
       आज की चर्चा में लौकिक धर्म पर किंचित चर्चा का प्रयास किया गया है ...अगली बार हम आध्यात्मिक धर्म के स्वरूप पर कुछ चर्चा और चिंतन -मनन करेंगे.           इति शुभम् .


       


       


      

31 टिप्‍पणियां:

  1. देश , काल और परिस्थिति के अनुसार व्यक्ति निरंतर बदलता जाता है और बदलना भी चाहिए । यही 'adaptation' कहलाता है । इसी को सकारत्माक बदलाव भी कह सकते हैं और यही धर्म है । जो कुछ भी शान्ति दे, सुकून दे , अपने साथ साथ परिवेश में भी शान्ति रखे, मानव-हित में हो , स्वस्थ ऊर्जा का संचार करे वही आचरण धर्म है , मेरी समझ से।

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  2. प्राकृतिक सिद्धांतो के अनुरूप प्रत्येक दृव्य का अपना धर्म होता है,आपने उदाहरण देकर लौकिक धर्म के स्वरूप को तथ्यपरक विश्लेषित किया। यह सच है,"भौतिक शास्त्र के ज्ञाताज्ञात धर्मों का पालन किये बिना उनका अस्तित्व संभव ही नहीं है." भौतिक सिद्धांतों से समर्थित हमें अपने अनुशासन नियत करने होंगे। प्रकृति के सर्व जीव-भूत के हितार्थ संयत रहने को ही मनुष्य का धर्म कहा जाएगा।

    सार्थक निरूपण किया कि "सभी जल राशियों के पहुँचने के बाद समुद्र की शासन व्यवस्था उनके लिए धर्म निरपेक्षता के नाम पर सभी को अपने-अपने धर्मों के पालन की स्वतंत्रता प्रदान करदे तो क्या होगा?"
    निश्चित ही एकता के भीतर ही स्वतंत्रता का व्यामोह भीतरघात है, यह तो एकता से ही विद्रोह है। इसीलिये समग्र एकता के लिये स्वीकार किया गया धर्मनिरपेक्षता विचार, एकता का ही विरोधाभास है, एकता का ही द्वेषी है।

    धर्मानुशीलन के लिए पृथक पहचान की कोई आवश्यकता नहीं, किन्तु दिखावे की भावना के बिना धर्मानुशीलन करते हुए, अगर सहज ही पहचान का आभास हो तो दोष भी नहीं है।

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  3. दिव्या जी एवं सुज्ञ जी ! ! आप दोनों के विचार वैज्ञानिक धर्म की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं ....धर्म का सार यही है . हम तीनो ही एक दूसरे के विचारों से सहमत हैं .....तीनो का त्रिगुट अच्छा जमेगा. प्रतुल जी एकांत साधना के लिए चले गए क्या ?

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  4. सुंदर ढंग से उदाहरण देकर आपने समझा दिया कि व्यक्ति को देश काल परिस्थिति के अनुरूप खुद को बदलते रहना चाहिए। मात्र धर्म का पाखंड नहीं करना चाहिए।

    यह संभव तो नहीं हो पायेगा लेकिन क्या ही अच्छा होता कि एक ऐसी व्यवस्था बनती जिसमें जन्म लेने वाले बच्चे को सभी धर्मों का ज्ञान कराया जाता बगैर यह कहे कि तुम हिंदू हो, ईसाई हो या मुस्लिम हो..
    जब वह बालिग हो जाता तो अपनी इच्छा नुसार धर्म का चयन करता। आखिर धर्म भी ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग ही तो है।

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  5. कौशलेन्द्र जी, बुरा न मानें तो कहना चाहूँगा कि सामान्य दृष्टि में आधुनिक वैज्ञानिक हमें अधिक ज्ञानी प्रतीत होते हैं क्यूंकि इतिहास बताता है कि उन्होंने कुछ सदियों के भीतर ही शून्य से आरम्भ कर कई आविष्कार किये जो हमारे सम्मुख प्रतक्ष्य रूप में उपलब्ध हैं, जिनके कारण हमारे शहरी जीवन में, रहन सहन में, बहुत बदलाव आया है,,,यदि जल की सतह पर स्वयं अपनी शक्ति और बुद्धि से मानव चल सकता है तो शायद इन आविष्कारों को मानव हित में भला नहीं कहेंगे,,, और हम भूल नहीं सकते कि भारतीय 'सिद्ध पुरुष', भले ही वे प्राचीन ही क्यूँ न हों, जहां तक ज्ञान का सम्बन्ध है पहुंची हुई आत्माएं थीं जो मानव को (निराकार) ब्रह्म का प्रतिरूप जाने...

    इस कारण ईश्वर और मानव (जिसके भीतर स्वयं ईश्वर विराजमान हैं) दोनों को समझना अत्यंत कठिन है, विशेषकर कलिकाल यानि वर्तमान में,,, और जैसे आपने पानी का धर्म समझाया, यदि आप (ब्रह्मपुत्र समान) किसी विशाल नदी में बहते पेड़, मृत पशु, आदि को देखें तो पायेंगे कि एक ही नदी की विभिन्न धाराओं में कुछेक वस्तु, जो बीच धारा में बहते हैं, वे सीधे बहते चले जाते हैं, जबकि किनारों की ओर कुछ वस्तुएं भंवर में फँस अपना धर्म, समुद्र की और बहना, भूलते प्रतीत होते हैं (ऊपर वाले के संकेत?)...इसे मानव के सन्दर्भ में माया जाल में फंसना कहा गया...
    "हरी अनंत हरी कथा अनंता..." अनंत को शब्दों द्वारा समझने का प्रयास करना ऐसा ही होगा जैसा अंधों का हाथी को छू कर वर्णन कर पाना (?)...

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  6. पाण्डेय जी ! धर्म तो एक जीवन पद्यति है जो विश्वबंधुत्व और विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है .......ईश्वर को पाने के लिए आध्यात्म की साधना करनी पड़ेगी.

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  7. कौशलेन्द्र जी मेरी स्थिति इस समय कई धर्म एक साथ् निभाने जैसी ही है. क्या इस स्थिति को पृथ्वी की गतियों की ही तरह बहु-धर्मी मानूँ अथवा धर्म-सङ्कट कहूँ.
    — पत्नी धर्म कहता है कि उसकी नेक सलाह मानूँ और ब्लोग से कुछ समय के लिए दूर ही रहूँ. कल मुझे एक जगह जोइनिंग देनी है. उसकी कुछ तैयारी करूँ.
    — पुत्र धर्म कहता है कि बुढी माँ की रसोई मे सहायता करूँ, पिता का हालचाल पूछूँ. उनसे कुछ समय साहित्यिक वार्तालाप करके उनकी स्मृतियाँ ताजा कर दूँ.
    — मित्र धर्म कहता है कि इस धर्म-चर्चा मे शामिल होकर पूरा आनन्द लूँ.
    ......... बुरी तरह असमंजस मे हूँ .... स्नान कर आता हूँ. शायद कोई राह सूझे.

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  8. *पत्नी-धर्म को पति धर्म समझें. लेखन की जल्दबाजी में कभी-कभी आपसी धर्म बदल जाया करते हैं
    लौटता हूँ एक ब्रेक के बाद.

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  9. हम एक साथ कई धर्मों का पालन करते हैं
    @ बात कितनी सही है? फिर से सोचना होगा... किन्तु आप जिसे कई धर्म कह रहे हैं वह वास्तव में एक ही है. बाह्य धर्म और आभ्यंतर धर्म... दो होकर भी एक ही हैं.
    संबंधों के विभिन्न दायित्व भी ... संस्कारगत रूप में एक ही हैं.
    अब आप पृथ्वी की चार गतियों की समरूपता से धर्म की व्याख्या करेंगे तो भी 'धर्म' अंततः एक रूप होकर ही समझा जा सकता है.
    धर्म की परिभाषा 'धारण करना है'. अब क्या धारण करना है और कितना धारण करना है? .... यह विचार का विषय है ... फिर भी १० या १०० गुण धारण करने पर भी वह एकल धर्म रूप में ही समझा जाएगा.
    हम सबसे निकटस्थ उदाहरण से समझते हैं :
    क्रिकेट में स्पिन बॉलर बॉल फैकता है. उसका उद्देश्य (धर्म) है विकेट लेना.
    — बॉल बॉलर की बाँह में गोलाकार झूलकर स्वयं में बॉलर की शक्ति का सन्निवेश काराती है.
    — बॉल लम्बवत गमन करती है.
    — बॉल स्वयं में घूर्णन गति करती है.
    — बॉल टप्पा खाकर टर्न (स्पिन) होती है.
    ... कुलमिलाकर तमाम गतियों के बाद भी लक्ष्य एक ही रहता है. जिसे बॉलर के इकलौते धर्म के रूप में समझा जा सकता है 'विकेट लेना'

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  10. @ किसी विशाल नदी में बहते पेड़, मृत पशु, आदि को देखें तो पायेंगे कि एक ही नदी की विभिन्न धाराओं में कुछेक वस्तु, जो बीच धारा में बहते हैं, वे सीधे बहते चले जाते हैं, जबकि किनारों की ओर कुछ वस्तुएं भंवर में फँस अपना धर्म, समुद्र की और बहना, भूलते प्रतीत होते हैं

    ॐ नमोनारायण जे.सी.बाबा जी ! सत्य कथन है आपका. बहुत अच्छा उदाहरण दिया है आपने.

    हे आर्य पुत्र प्रतुल जी ! आप जगत के भंवर में फंसते जा रहे हैं .......बहुत सी लीलाएं करनी पड़ती हैं इस जगत में रहते हुए.....पहचानना होगा कि रोगी जब व्याधि समूह से पीड़ित हो तो प्रथम चिकित्सा किसकी की जाय ? महर्षि अग्निवेश के उपदेशानुसार गंभीर व्याधि की चिकित्सा पहले करनी चाहिए जे.सी. बाबा के वक्तव्य पर ध्यान दिया जाय ....कल्याण होगा.

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  11. बाह्य धर्म में हमारा पहनावा और बाह्य आचरण आ जाता है. अर्थात हमारा प्रदर्शन वाला शिष्टाचार और हमारे रिवाज हमारा बाह्य धर्म हैं. इसे कर्मकांड के रूप में भी समझ सकते हैं.

    आन्तरिक धर्म में नैतिक मूल्य और कर्तव्य-दायित्व बोध आ जाते हैं. अर्थात हार्दिक शिष्टाचार और सामाजिक दायित्व बोध हमारा आंतरिक धर्म है. इसे संस्कार के रूप में भी समझ सकते हैं.

    दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं. दो होकर भी एक हैं.

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  12. उन भौतिक पिंडों को पता है ...... पता है कि सब एक दूसरे का अनुसरण करने लगेंगे तो आपस में मुठभेड़ हो जायेगी . सब छिन्न-भिन्न हो जायेंगे ....अस्तित्व समाप्त हो जाएगा सबका. इसलिए सब अपने-अपने रास्ते में अपनी-अपनी गति से गमनशील हैं.
    @ लेकिन वे टकरायेंगे भी तो किसी न किसी दिन... क्या तब उनका टकराना उनकी इच्छा से ही होगा क्या?
    मुझे नहीं लगता कि पिंडों में इतनी समझ है कि वे अलग-अलग रास्ता पकडे हुए हैं.
    अरे जिसको टकराना था वह टकराकर एकाकार हो चुका और जो दूर था वह अपनी कक्षा में चक्कर लगा रहा है.

    ... इसमें एक दूसरे के सम्मान की बात नहीं उठती और न ही वे परस्पर परम्पराओं का सम्मान करते हुए गतिमान हैं.

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  13. @ प्रतुल जी !
    "धारणात धर्मः ".......धारण करने से ही धर्म है ......जब तक धारण न किया गया तब तक वह धर्म नहीं हो पाता....धारण करना क्या है .....तय यही करना है ...जो समूह के लिए .....विश्व के लिए कल्याणकारी हो वही धारण करना है ......
    आभ्यंतर और बाह्य धर्म अपनी अपनी सीमाओं में व्यवहृत होते हैं .....भौतिक दृष्ट्या उनमें विरोध होते हुए भी उनका उद्देश्य समग्रता को पाना ही रहता है. फिजिक्स के सिद्धांतों से देखेंगे तो यह समानांतर ब्रह्माण्ड या प्रति ब्रह्माण्ड की विपरीत ऊर्जा जैसा लगता है.......किन्तु अनिवार्य है उसका होना.
    विकेट लेना धर्म अवश्य है पर धर्म का भी एक धर्म होता है ...और वह है सत्यान्वेषण जिसके माध्यम से हम चरमानंद की प्राप्ति करते हैं. यहाँ आकर लौकिक धर्म पीछे छूट जाता है .......और यहीं से प्रारम्भ हो जाता है आध्यात्म. अगले लेख में इसी विषय पर चर्चा की जानी है ...प्रतीक्षा किया जाय.

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  14. @ मैं प्रतीक्षा करूँगा. शुभ रात्रि.

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  15. @ मुझे नहीं लगता कि पिंडों में इतनी समझ है कि वे अलग-अलग रास्ता पकडे हुए हैं.

    प्रतुल जी @ यदि आप ह्यूमन फिजिओलोजी का अध्ययन करेंगे तो आश्चर्य करेंगे कि शरीर के अन्दर की व्यवस्था कितनी सुचारू रूप से चलती है ......एक प्रतिक्रया है "फीड बैक एक्शन" लगता है जैसे किसी समझदार व्यक्ति ने आदेशित किया हो ...वहाँ मांग और आपूर्ति का व्यवहार शास्त्र भी लक्षित होता है.......ब्रह्मांडीय पिंड फिजिक्स के सिद्धांतों का पालन करते हुए गतिमान होते हैं. वहाँ कोई त्रुटि नहीं होती. मानव निर्मित यंत्र धोखा दे जाते हैं पर वहाँ ब्रह्मांडीय पिंडों के संचालन में ऐसी कोई संभावना नहीं होती....यह किसी समझदारी से कम है क्या ? " पुरुषोयं लोक संमितः " इसका विपरीत भी कर सकते हैं ..अयं लोकः पुरुष संमितः ...... जब दोनों समान हैं तो सारे पदार्थ और उनके तत्व भी समान हैं. पिंडों के पास भले ही हमारे जैसा मस्तिष्क नहीं होता पर वे जिस नियम से संचालित होते हैं उनके पालन में कहीं कोई त्रुटि नहीं होती. एक और उदाहरण देखिये ... चक्षुविहीन व्यक्ति के चक्षु अपने कार्य में असमर्थ हैं..पर उसकी इन्द्रिय प्रबल होती है. आँख वाले तो रोज टकराते हैं पर चक्षुविहीन व्यक्ति को टकराते नहीं सुना होगा.
    @ ... इसमें एक दूसरे के सम्मान की बात नहीं उठती और न ही वे परस्पर परम्पराओं का सम्मान करते हुए गतिमान हैं.
    अपने-अपने धत्र्म का पालन करना ही एक दूसरे का सम्मान करना है . परमाणु के एलेक्ट्रोंस रेंडोम्ली नहीं गति करते .........एक दूसरे की कक्षाओं का अतिक्रमण न करना ही सम्मान करना है. प्रतुल भाई ! हर जगह लोक और पुरुष को समानांतर मान कर चलिए तो भ्रम नहीं होगा .
    @ लेकिन वे टकरायेंगे भी तो किसी न किसी दिन... क्या तब उनका टकराना उनकी इच्छा से ही होगा क्या?

    टकराना अनिवार्य नहीं है ...न ही पिंडों की प्रकृति है ....यदि टकराते हैं कभी तो निश्चित ही यह वैधर्म्य है ...पिंडधर्म कदापि नहीं.

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  16. आनंद आ गया इस धर्मचर्चा का!!

    धर्म का व्यवहारिक अर्थ है, स्वभाव। भौतिक शास्त्रों में यह वस्तु के स्वभाव से अभिप्रेत है, और आध्यात्म में यह निज-आत्मा के स्वाभाव के रूप में।

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  17. इस हफ्ते जरा व्यस्त हूँ..मगर आप के ब्लॉग पर आने का प्रलोभन रोक नहीं सका..लेख लम्बा है..कॉपी कर के रख लिया है..यहाँ से ३ घंटे का सफ़र है..रास्ते में ज्ञान बढ़ने का साधन मिल गया..

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  18. सुज्ञ जी ! आपने सूत्र रूप में धर्म का सार प्रस्तुत कर दिया है. जो स्व-भाव है वही प्रकृति है ...जो प्रकृति है वही धर्म है ......जो स्व-भाव से विपरीत है वह विकृति है ....जो विकृति है वही अधर्म है. किन्तु कम ही लोग समझ पाते हैं इतनी सरल बात को. आज सुना है ओसामा बिन लादेन अपनी प्रकृति को प्राप्त हो चुका है .....अमेरिका में उसके अंत पर प्रसन्नता मनाई जा रही है ....हमारे यहाँ समाचार तक पर प्रतिबन्ध है ......गोया रावण के अंत के सिवा हम और किसी के अंत पर मुक्ति की प्रसन्नता नहीं मना सकते ......यह स्वभाव वैगुण्य होने से अधार्मिक कृत्य है हमारी सरकार का ...चलिए हम एक-दूसरे को बधाई देते हैं ....आतंक से मुक्ति के लिए.
    प्रतुल जी ! आज आप कहीं ज्वाइन करने वाले थे क्या हुआ ?

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  19. कौशलेन्द्र जी! आज मेरा नेशनल बुक ट्रस्ट में पहला दिन था. घर से काफी दूर है. दो घंटे लगते हैं. लौटते समय तीन घंटे लग गये. अभी कई काम भी निपटाने हैं. थक भी गया हूँ. केवल पढूँगा 'धर्म-चिंतन' की टिप्पणियाँ, और ब्लॉग जगत थोड़ा टहल आऊँ. देखूँ किसने क्या नया लिखा है? आपके मानस-समुद्र से ज्ञान-अमृत निकालने के लिये कभी-कभी तर्क और कुतर्कों के बीच प्रश्न-वासुकी की खींचतान करवा देता हूँ. सचमुच सुज्ञ जी को भी छेड़ना बौद्धिक सुख देने लगा है. फिलहाल शांत भाव से पढ़ने का सोचा है. आज़ विलम्ब से ऑफिस पहुँचा और अब कल समय से बुलाया है. इसलिये घंटे भर टहलने के बाद ..... शवासन.

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  20. संक्षिप्त में, हिन्दू मान्यता अनुसार मृत्यु तो एक बहाना है अजन्मी और अनंत आत्मा का नए रूप धारण करने का...राम लीला में त्रेता युग के ज्ञानी, किन्तु मनको नियंत्रण में न रख पाने वाले स्वार्थी दशानन रावण को, हर वर्ष जला जोर दिया गया है दशरथ बनने का प्रयास करने का,,, यानि दसों दिशाओं का ज्ञान शांत परोपकारी भाव से ग्रहण करने का,,, और पश्चिम में (काल-चक्र का धर्म?) दर्शाने हेतु कहा गया " ") ...

    'हिन्दू' मान्यता को वर्तमान में, यानि कलियुग में, आम आदमी जो यद्यपि अनंत ब्रह्माण्ड का, नादबिन्दू ईश्वर का ही माया जनित स्वरुप है, किन्तु वो रोटी, कपडा, मकान पाने के चक्कर में ऐसा फंसा दिया गया प्रतीत होता है कि उसके पास समय ही नहीं रह जाता, ('संन्यास आश्रम' के अतिरिक्त जिसे भी वर्तमान में 'गणेश का वाहन चूहा' कुतर गया प्रतीत होता है क्यूंकि चूहा-दौड़ में सब शामिल हैं :), गहराई में जाने के लिए... यद्यपि ज्ञानी हिन्दुओं के अनुसार मानव रूप में ही माया को समझ पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है, क्यूंकि यह वैसा ही है जैसे नदी की रेत को छान उसमें से सोने के कण एकत्र करना, (किन्तु उनका व्यय भी होते जाना ("बूँद बूँद से घट भरे/ रीता खली होए" :(... इस लिए सोने के सार चन्द्रमा तक मन में ही पहुँचने का प्रयास करना,,, जिसे शिव के मस्तक पर दिखा संकेत भी छोड़ा गया है उनके द्वारा!... मानव को क्यूंकि उन्होंने सौरमंडल के ९ सदस्यों के सार से बना जाना, जिसमें चन्द्रमा, 'विष्णु का अमृत दायिनी 'मोहिनी रूप', को सर्वोच्च स्थान दिया गया 'सहस्रारा चक्र' के रूप में...

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  21. koshlendr bhaai yqin manaiye hm to apke fen ho gaye bhaai mujh se bhaichara rkh kar dosti kroge are kar lo yaar of pliz aapkaa aek fotu jo aapne chhupa rkha hai meri i d sadafakhtar02@gmail.com par zrur bhej den . akhtar khan akela kota rajsthan

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  22. जो प्राचीन ज्ञानी, योगी सिद्ध पुरुष आदि थे, वो अनेक संकेत छोड़ गए, और "मैं कौन हूँ?" प्रश्न के उत्तर में कह गए "ब्रह्मास्मि",,, अथवा शिवोहम" (अथवा 'मैं' शिव हूँ - यानि अजन्मा और अनंत परमेश्वर, परमात्मा हूँ! और दूसरों को भी उन्होंने भगवान्, परमात्मा का ही प्रतिरूप, आत्मा बताया, किन्तु 'आम आदमी' को, (भूतनाथ) नटराज शिव के पैरों की धूल समान, 'अपस्मरा ' पुरुष' दिखाया, यानि भुलक्कड़, जो अपना भूत नहीं जानता है,,,

    योगिराज कृष्ण को, इशारे से हताश सिद्ध धनुर्धर अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में,,, सौर मंडल के मुख्य पिंड सूर्य के प्रतिरूप, समझाते हुए दर्शाया प्राचीन 'सिद्ध पुरुषों' ने कि अर्जुन, (हमारी तरह!), केवल अपना वर्तमान ही जानता था, जबकि द्वापरयुग की सर्वोच्च पहुंची हुई आत्मा (हीरो), 'सुदर्शन-चक्र धारी कृष्ण', शंख-चक्र-गदा-पद्म धारी विष्णु का अष्टम यानि आठवाँ अवतार है,,, (और आज भी गणितज्ञं लेटे हुई संख्या '8' द्वारा अनंत को दर्शाते आते हैं, जबकि हिन्दू अनंत विष्णु को शेषनाग के ऊपर लधरते, योगनिद्रा में अपने तीसरे नेत्र में फिल्म समान अपना भूत अथवा इतिहास देखते दर्शाते आये हैं !),,, और मान्यतानुसार कृष्ण का जन्म उसके, माँ देवकी से ही उत्पन्न सात भाई-बहन की मृत्यु के पश्चात हुआ था, (जो इशारे से 'योग' के द्वारा सहस्रारा चक्र, मस्तक पर स्थित एक बिंदु, पर शरीर के भीतर ही सात अन्य चक्रों में बंटी कुल शक्ति के अंशों को नीचे से ऊपर उठाने की प्रक्रिया दर्शाता है),,, और वो अर्जुन का भूत भी जानता था, (यानि सूर्य की उत्पत्ति का, जिसका सार मानव के पेट, " " में दर्शाया जाता है), क्यूंकि वो उसके साथ आरम्भ से ही जुड़ा था,,, और विष्णु की नाभि के साथ ब्रह्मा को जुड़ा दिखाते आये हैं हिन्दू!...

    किन्तु, यद्यपि आज पश्चिमी खगोल-शास्त्री, और भारतीय भी जो वर्तमान में काल-चक्र के कारण उनकी नक़ल कर रहे हैं, यद्यपि सौर-मंडल के अतिरिक्त अनंत तारों आदि के अध्ययन में व्यस्त तो हैं, किन्तु भंवर में ही घूमते जैसे, अपना लक्ष्य न जानने के कारण सार में पहुँचने में असमर्थ,,, जिस कारण, प्राचीन हिन्दुओं समान, परम सत्य तक पहुँचने में असमर्थ हैं,,, जो आम आदमी के लिए केवल सत्य युग में ही संभव है,,, कह गए हमारे पूर्वज,,,

    किन्तु सत्य की अनुभूति अपने मन में कभी भी और कहीं भी संभव है केवल उन योगियों के लिए जिनका शरीर के भीतर ही योगमाया द्वारा विराजमान श्री कृष्ण से, (लगभग शून्य आकार किन्तु अपार शक्ति वाले 'ब्लैक होल' के सार से, 'छटी इन्द्रिय' से), सम्बन्ध स्थापित हो जाए,,, जो गीता के अनुसार 'कृष्ण में आत्म समर्पण' द्वारा ही संभव है !

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  23. जे सी बाबा जी ! ॐ नमोनारायण ! इतने अच्छे विमर्श और पुस्तकों के सुझाव के लिए आभार !
    कोटा राजस्थान वाले अख्तर खान अकेला जी ! जब दुश्मनी नहीं है तो भाईचारा ही है ...रही बात दोस्ती की ...तो ऐसे निर्णय इतनी शीघ्रता और भावावेश में नहीं ले पाता मैं ....हमारी ट्यूबलाईट थोड़ी देर में जलती है ...मैं आपके लेख पढ़ता रहता हूँ ...रही बात मेरे फोटो की तो डोकरों के फोटो में क्या रखा है ...यूं भी बड़ा ही भौंडा और डरावना सा फोटो आता है मेरा ....इसलिए उसकी जगह पर एक फूल रख दिया है ...कमसे कम दिखता तो अच्छा है ........एक ताज़गी का अहसास ....हालांकि यह बहुत ही ज़हरीला है...जैसे की मैं भी कभी कभी कटु हो उठता हूँ...... फिर भी है बड़े काम का ...इसके बीज बहुत महंगे बिकते हैं . इसका नाम है ग्लोरिओसा सुपर्बा......

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  24. कौशलेन्द्र जी,

    ग्लोरिओसा सुपर्बा पुष्प की व्याख्या करते हुए, आपने कोमलता और गरल के सम्मिश्रण को अच्छी तरह निरूपित किया है।

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  25. अंग्रेजी में पश्चिम दिशा में कहा गया "One man's meat is another man's poison",,, जबकि हलाहल विषपान केवल नीलकंठ शिव के कार्य क्षेत्र मैं जाना हिन्दुओं ने :)

    आपने अपनी अपनी कक्षा में घूमते पिंडों की बात करी तो एक पिंड, जो सूर्य की कक्षा में घूमने के अतिरिक्त पृथ्वी से ही उत्पन्न हो उसकी भी, उसके गुरुत्वाकर्षण की उसकी तुलना में अधिकता के कारण, केवल लगभग तीन लाख किलोमीटर की दूरी में रह, परिक्रमा करते चला आ रहा है,,, यानि हम (निराकार परमात्मा समान ?) रहस्यमय किन्तु साकार चन्द्रमा की बात अनंत शब्दों में कर सकते हैं...

    सबसे पहले, हम आज जानते हैं कि कैसे 'हम' पृथ्वी से चन्द्रमा का एक ही भाग देख पाते हैं (पैर?), जबकि उसका दूसरा भाग (अथवा चेहरा?) नहीं देख पाते हैं,,, और प्राचीन ज्ञानी हिन्दुओं ने इसको बयान किया: द्वापर में महाभारत की मनोरंजक कहानी द्वारा, "(राक्षश प्रकृति के) कौरवों का (परोपकारी) पांडवों की पत्नी द्रौपदी के चीर हरण के, किन्तु योगेश्वर कृष्ण की कृपा के कारण असफल रहे प्रयास से",,, और त्रेता युग से सम्बंधित रामलीला में "लक्ष्मण का सीता के 'चन्द्रहार' को नहीं पहचान पाने से, क्यूंकि वर्षों सात साथ रहने पर भी उसने उसके केवल चरण ही देखे थे न कि उसका चेहरा" ! ...

    यदि हम सौर-मंडल के राजा शक्तिशाली सूर्य, दूधिया सफ़ेद (किन्तु गर्म) किरणों के स्रोत को दिन का राजा माने तो चन्द्रमा को रात की रानी मान सकते हैं (यदि पिंडों को, मानव समान, लिंग के आधार पर माना जा सकता है तो!)... खैर, आज वैज्ञानिक जानते हैं कि सूर्य और (अमावस्या और पूर्णिमा के) चन्द्रमा, दोनों, मिलकर समुद्र में ऊंची ऊंची लहरों, ज्वार-भाटा, के लिए उत्तरदायी हैं, जबकि केवल सूर्य की उपस्तिथि में लहरें इतनी ऊंची नहीं उठतीं... इस कारण यह तो चन्द्रमा की रहस्यमय शक्ति के संकेत तो हैं किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक की पहुँच के बाहर,,, जबकि हिन्दुओं ने चन्द्रमा को शिव-पार्वती के विवाह की कथा द्वारा 'हिमालय पुत्री' पार्वती को अर्धनारीश्वर शिव की पहली पत्नी सती (शक्ति?) का ही साकार स्वरुप बताया (और आज हम जानते हैं कि हिमालय श्रृंखला भी, चंद्रमा समान, पृथ्वी के कोख से ही पैदा हुई...

    आदि, आदि (चन्द्रमा के सार को परमात्मा के प्रतिरूप मानव के मस्तिष्क में जताया योगियों, सिद्ध पुरुषों ने)...

    (इस पृष्ठभूमि में आवश्यकता है हमारी पौराणिक कथाओं, लीला, आदि को दुबारा वर्तमान में प्राप्त ज्ञान के सन्दर्भ में पढने की,,, क्यूंकि शायद यही काल का इशारा भी हो सकता है, युग के अंत में (?)......

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  26. लौकिक धर्म पर सारगर्भित आलेख!!

    शाकाहार का भी समर्थन करें, निरामिष पर पधारें

    निरामिष: अहिंसा का शुभारंभ आहार से, अहिंसक आहार शाकाहार से

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  27. @ इस पृष्ठभूमि में आवश्यकता है हमारी पौराणिक कथाओं, लीला, आदि को दुबारा वर्तमान में प्राप्त ज्ञान के सन्दर्भ में पढने की,,,
    जी ! जे.सी. बाबा जी ! सहमत हूँ आपके विचारों से आज के परिप्रेक्ष्य में पौराणिक तथ्यों की नवीन व्याख्या की आवश्यकता है.

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  28. नमन है गुरुदेव आपके चिंतन को .....

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.