सोमवार, 31 दिसंबर 2012

यौन अपराधियों के लिये वरदान है ये ढिठायी


जिस समय ठिठुरती दिल्ली की सड़कों पर दामिनी के साथ हुये कलंकाचरण के विरोध में निश्चेत सत्ता को सचेत करने स्वस्फूर्त जनसमूह का रक्त उबल रहा था ठीक उसी समय भारत के न जाने अन्य कितने भागों में वैसे ही कलंकाचार की कहानियाँ बहुगुणित हो रही थीं। यह घटना उत्तर-बस्तर जिले के आलोर ग्राम की है जहाँ एक आदिवासीमहिला सामूहिक दुष्कर्म की शिकार हुयी। इस घटना के कई दुःखद पक्ष हैं --- 1- आरोपियों में महिला के सगे देवर का सम्मिलित होना, 2- गाँव में सुशासन के लिये जनता का विश्वास जीतकर सुव्यवस्था बनाये रखने के उत्तरदायी सरपंच का दुष्कर्म में सहभागी होना, 3- निर्लज्जता और पारिवारिक शील की धज्जियाँ उड़ाते हुये दो सगे भाइयों का अपने सगे जीजा के साथ मिलकर दुष्कृत्य  में सम्मिलित होना, 4- पुलिस के द्वारा सही रिपोर्ट न लिख कर केवल मारपीट की रिपोर्ट लिखा जाना, 5- जानबूझकर पुलिस द्वारा सरपंच का नाम रिपोर्ट में नहीं लिखना,  6- पुलिस द्वारा पीड़िता को अस्पताल में भर्ती न करवा कर उसे अपने हाल पर मरने के लिये छोड़ देना।

हम इस घटना के सामाजिक-मानसिक पक्षों पर बाद में चर्चा करेंगे। अभी तो पुलिस की ढिठायी की चर्चा अधिक आवश्यक है। ये वो दिन थे जब पूरे देश में पुलिस, प्रशासन और व्यवस्था को जनता रोज कटघरे में खड़ा कर रही थी और दुष्कर्मियों को मृत्युदण्ड देने की माँग करने वालों में राष्ट्र के प्रथम नागरिक की पुत्री भी सम्मिलित हो चुकी थी। ऐसे माहौल में भी इस आदिवासी क्षेत्र की दुस्साहसी पुलिस अपनी अमानवीयता का परचम लहराती रही ; नहीं लिखेंगे सही रिपोर्ट .....बचाते रहेंगे रसूख वालों को .....नहीं पहुँचायेंगे घायल स्त्री को अस्पताल जिसे जो करना हो कर ले हमारा। अद्वितीय है पुलिस की ढिठायी।

घायल महिला को उसके घर वालों ने एक निजी चिकित्सक के अस्पताल में भर्ती किया, जहाँ से दुष्कर्म की वास्तविकता आमजनता के बीच आ सकी। चिकित्सक ने मानवीयता का परिचय देते हुये उसे एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में रेफर किया जहाँ के डॉक्टर्स को उसकी गम्भीर स्थिति देखते हुये रायपुर मेडिकल कॉलेज रेफर करना पड़ा।

उल्लेखनीय यह है कि दुष्कर्म के अनंतर घायल हुयी महिला की स्थिति इतनी गम्भीर हो चुकी थी कि डॉक्टर्स को उसे मेडिकल कॉलेज भेजना पड़ा जबकि पुलिस की दृष्टि में यह आपसी मार-पीट का सामान्य मामला था। जो बात, जो दृश्य, जो गम्भीरता किसी आम आदमी को दिखायी दे जाती है वही उस कार्य के लिये उत्तरदायी लोगों को क्यों नहीं दिखायी दे पाती? पुलिस की संवेदनहीनता और अमानवीयता न केवल एक गम्भीर पुलिसिया परम्परा है अपितु अपने पदीय कर्तव्यों की घोर उपेक्षा भी है जिसके लिये उन पर एक पृथक से मुकदमा चलाया जाना चाहिये।

पुलिस चाहे दिल्ली की हो या बस्तर की उसकी कार्यप्रणाली में गज़ब की एकरूपता है। जनता जब तक कोई आन्दोलन नहीं करेगी, .....जब तक हो-हल्ला नहीं होगा, ...जब तक आम नागरिक गुस्से में नहीं आ जायेगा तब तक न तो सही रिपोर्ट लिखी जायेगी और न अपराधियों को पकड़ा जायेगा। इस कठोर सत्य को जान चुकी जनता को दिल्ली के ही समानांतर यहाँ की सड़कों पर उतरना पड़ा तब कहीं सही रिपोर्ट लिखी गयी और सभी आरोपियों को पकड़ा जा सका।

प्रश्न यह है कि यह कैसी व्यवस्था है जिसके शासकीय अधिकारी-कर्मचारी इतने निकम्मे, ढीठ, असत्यभाषी, दुस्साहस की सीमा तक निष्ठाहीन और अमानवीय हो गये हैं? आख़िर व्यवस्था के लिये हर बार जनता को ही क्यों सामने आना पड़ता है?

यह चिंता का विषय है कि यौन दुष्कर्मियों के लिये मृत्युदण्ड का विधान भर बना देना किसी पीड़िता को न्याय दिलाने में कितना सहायक हो सकेगा जबकि अपराधियों को चिन्हित करने और दण्ड दिलाने के लिये उन्हें पकड़ कर न्यायालय तक पहुँचाने वाली व्यवस्था ही पंगु हो गयी हो? सत्ताधीशों की प्रतिबद्धतायें समाज के प्रति कितनी और क्या हैं ? सड़क के खुरदुरे आदमी की ओर से राजप्रासादों में रहने वाले कोमलांगी सत्ताधीशों के लिये यह एक कठोर प्रश्न हो सकता है .....किंतु उत्तर तो उसे देना ही होगा।         

रविवार, 30 दिसंबर 2012

निष्प्राण हुआ सारा समाज

 
रुष्ट हुयी रति
क्रुद्ध कामिनी
कुटिल मदन है
दमित दामिनी।
यह निकृष्ट संसर्ग
न माने प्राणों का उत्सर्ग।
धरा प्रकम्पित,
ब्रह्म अचम्भित
विष्णु लाज से हैं भूलुंठित,
डाल मृत्यु का जाल
हो रहे शिव भी कुंठित।
मानवता हो गयी कलंकित
निष्प्राण हुआ सारा समाज
हो गया न्याय का अंत।
आह! 
तू कहाँ खोज लेता आनन्द ?
वृद्धा हो ..तरुणी हो .....युवती हो ..
किशोरी हो या बच्ची अबोध 
यह नहीं भोग
रे निर्लज्ज!
यह कुभोग दुर्भोग।
कर
छिन्नमना
भग्न देह 
की भंग  
न्याय की आस।
पड़ी अकेली
विवश भोगने
पतितों का सामूहिक संत्रास!
सहमी धरा
भयभीत गगन है
अश्रु
नहीं आँखों से मेरी
रोम-रोम से झरते हैं।
इस सभ्य जगत में
अर्थ खो गये जीने के
प्रतिपल
हम केवल मरते हैं।
ज्ञानयोग की धरती पर होता
सामूहिक दुर्भोग!
क्यों तेरे ही साथ काम का
केवल कलुषित अतियोग।
कुम्भकर्ण है राजा
उपमा किससे दें मंत्री की?
जाग प्रजा ! अब जाग !!
देश को आवश्यकता क्षत्रिय की।

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

यौन अपराध

 



धर छ्द्मवेष
कर हरण
अपयश का भागी बन
जलता लंकेश आज
नगर-नगर पुतला बन।
रखा था सीता को गीता की ही तरह
नहीं लाज लूटी थी
रे क्रूर ! तेरी तरह।

उत्सव सा मनाता तू क्रूरष्ट दुष्कृत्य जिसमें
चीख है पुकार है
अपनों का हाहाकार है।
चीखों में पा लेता आनन्द का चरम तू
अधम से अधम तू
पतित से पतित तू।  
सारे अपशब्द भी
कुंठित हैं बौने बन
जो भी हो दण्ड तेरा
होगा वह बहुत कम।
बेटी के जीवन में  
कैसा अन्धकार है  
मर गयी तो मुक्ति है
बच गयी तो मृत्यु है।
रोज उगता रहे सूरज
पर न अब होगा सबेरा।    
क्षणिक यह काम का उन्माद तेरा  
न मात्र
पल भर संत्रास देता  
यह तो लाड़ली बहन की ....   
दुलारी बेटी की ....   
यावत्जीवेत
पल-पल की हत्या है
माँ के सम्मान की
धधकती चिता है
सामाजिक ढाँचे का भयानक विस्फोट है।

कामी निर्लज्ज कलियुग में क्रूर हुये
अपराधी तो थे ही अब और ढीठ हुये।  
बारबार करते दुष्कृत्य
बताते सबको धता
क्योंकि  
व्यवस्था का महलों में खो गया है पता।
कटा-फटा समाज है
सत्ता चुपचाप है
मिथ्या दिलासा का पुराना आलाप है।
देख-देख  
काम का क्रूरतम यह भाव   
लज्जित हो कामदेव
व्यथित हो कह उठे -
वीभत्स है ...वीभत्स है  
जा  
षंढ हो यह श्राप है। 





सोमवार, 24 दिसंबर 2012

स्त्रियों को शक्ति स्वीकारने वाले देश में स्त्रियों के सम्मान और प्राणरक्षा के लिये आन्दोलन

यह संयोग की ही बात है कि बिहार की साहसी बेटी अनायास ही पूरे भारत की चहेती बेटी बन गयी। आज पूरा देश चिंतित है फ़िजियोथेरेपिस्ट कुमारी दामिनी के लिये ......लोग आन्दोलित हो रहे हैं। भारत की राजधानी में प्रदर्शन हो रहे हैं। प्रदर्शनकारियों के गुस्से का समर्थन कर रही हैं दिल्ली की मुख्य मंत्री और उनके सांसद बेटे। पुलिस अपने परम्परागत तरीके से उत्पीड़न में आनन्द लेने के अवसर से चूकना नहीं चाहती ...ब्रिटिश युग के तरीके आज भी भारत में अस्तित्व में हैं ....यह पूरी दुनिया को देखने का अवसर प्राप्त हो रहा है। कल सुबह से दिक्षित परिवार के माँ-बेटे के वक्तव्य प्रसारित होते रहे ...कि लोगों का गुस्सा जायज़ है ...कि पुलिस को सब्र से काम लेना चाहिये .....कि कानून में परिवर्तन की ज़रूरत है .....कि वर्तमान कानून लोगों को न्याय दिलाने में समर्थ नहीं है ...। दूसरी ओर इन वक्तव्यों से पूरी तरह निर्लिप्त पुलिस प्रदर्शनकारी लड़के-लड़कियों पर  अपराधियों की तरह लाठियाँ भाँजती रही।

इस बीच पूर्वांचल से समाचार आया कि बलात्कार का विरोध करने वाले एक पत्रकार की हत्या कर दी गयी। मुझे याद है, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब होश सम्भाला तो मेरठ की माया त्यागी काण्ड से दहला हुआ दिल आज इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक भी शांत होने का नाम नहीं ले रहा। बलात्कार और पुलिसिया उत्पीड़न की घटनाओं का यह सिलसिला स्वतंत्र भारत की एक त्रासदी बन चुका है। बलात्कार की न जाने कितने घटनायें आये दिन होती रहती हैं। पूरे देश में पच्चानवे हज़ार यौनौत्पीड़न के वाद न्यायालयों में लम्बित हैं। अधिकांश घटनाओं में अपराधी बिना सजा पाये मुक्त हो जा रहे हैं। यह जनमानस को उद्वेलित करने के लिये बहुत है।

भारत वह देश है जिसका इतिहास स्त्री सम्मान की वकालत के लिये पूरे विश्व में विख्यात रहा है। प्राचीन भारत की यह वह परम्परा है जिसने पिता की अपेक्षा माँ को समाज में अधिक सम्मान देने की घोषणा की। इसी परम्परा ने कन्याओं को नवरात्रि के दिनों में देवी का प्रतीक स्वीकारते हुये पूज्यनीय बनाया। इसी परम्परा ने आधुनिक विश्व के विकसित देशों से पहले भारत की स्त्रियों को समान अधिकार प्रदान किये। यही वह देश है जहाँ आज भी विश्व के किसी भी देश की अपेक्षा विवाह-विच्छेद के कानून सर्वाधिक कड़े हैं। फिर ऐसा क्यों है कि आज उसी भारत के लोग अपने पड़ोसी की बेटियों के सम्मान के प्रति इतने निस्पृह हो गये हैं। यौन उत्पीड़क निर्भय हो विचरने के लिये स्वतंत्र  हैं। कोई किशोरी जब तक स्कूल से वापस नहीं आ जाती माँ-बाप के दिल बेचैन बने रहने के अभ्यस्त हो गये हैं। स्त्रियाँ अपने पड़ोस में भी जाने से डरने लगी हैं।

निश्चित ही हमारे नैतिक मूल्यों में हुआ पतन इन सारी स्थितियों के लिये उत्तरदायी है। किंतु तब प्रश्न यह उठता है कि समाज में एक सुव्यवस्था बनाये रखने का उत्तरदायित्व किसका है? हम आत्मनियंत्रित समाज की कल्पना भर सकते हैं। किंतु समाज कभी ऐसा हो नहीं पाता। ऐसा हो नहीं पाता इसीलिये किसी शासन/प्रशासन की आवश्यकता होती है। किंतु दुर्भाग्य से हमारा शासन/प्रशासन घोटाला अपसंस्कृति से ग्रस्त हो चुका है, कहीं किसी प्रकाश की कोई किरण नज़र नहीं आती। पूरा देश स्त्री सुरक्षा के लिये चिंतित और आन्दोलित हो रहा है। देश की बेटी दामिनी जीवन और मृत्यु के बीच झूल रही है। एक सप्ताह में उसके छोटे-बड़े कुल नौ ऑप्रेशन हो चुके हैं अभी तक। उसकी आँत को निकलना पड़ा है, उसे नैज़ल फ़ीड भी नहीं दिया जा सकता। वह जीवन रक्षक प्रणाली के सहारे किसी तरह साँसें भर ले पा रही है। दूसरी तरफ़ सरकार के ज़िम्मेदार लोग अभी तक कोई ऐसी पहल कर पाने में असमर्थ रहे हैं जिससे आम जनता शांत हो सके। आज एक सप्ताह से भी अधिक दिन बीत जाने के बाद पूरा देश निराशा में डूबा हुआ है। मुख्यमंत्री के वक्तव्य उन्हें "भीड़ के साथ खड़ी" दिखाते हैं, ऐसा लगता है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री ख़ुद दिल्ली की सल्तनत के तौर-तरीकों के ख़िलाफ़ हैं। तब प्रश्न यह है कि दिल्ली की सल्तनत पर आज क़ाबिज़ है कौन? मुख्यमंत्री इतनी असहाय क्यों हैं? सल्तनत के मातहत अधिकारी अपने हुक्मरानों  के ख़िलाफ़ कैसे जा सकते हैं? यह कैसा शासन-प्रशासन है? या कि सारा ठीकरा पुलिस के सर पर फोड़ कर ख़ुद को बचाने की नाकाम कोशिश की जा रही है?

लोग यौनोत्पीड़कों को मृत्यु दण्ड देने से कम की बात पर तैयार नहीं। पर जरा गम्भीरता से विचार किया जाय तो जनता की यह माँग भावना और उत्तेजना के वशीभूत है। वस्तुतः विचार इस बात पर किया जाना है -

1- कि दर्ज़ होने वाले केसेज में अधिकांश अपराधी मुक्त क्यों हो जाते हैं?

2- निर्णय में इतना विलम्ब क्यों होता है?

3- वर्तमान कानून में क्या ख़ामियाँ हैं?

4- क्या यौनोत्पीड़न के लिये वर्तमान दण्ड व्यवस्था अपर्याप्त है?

5- यौनोत्पीड़न की सभी घटनाओं में से मात्र कुछ घटनाओं की ही रिपोर्ट क्यों दर्ज़ हो पाती है? वास्तविक घटनाओं और दर्ज़ घटनाओं के बीच यह अंतर क्यों है?

दण्डविधान पर चर्चा करने से पहले न्याय तक पहुँचने के मार्ग पर चर्चा करना आवश्यक है। बात शुरू होती है घटना के बाद की न्यायिक प्रक्रियाओं से जो प्रारम्भ होती हैं पुलिस इंवेस्टीगेशन से। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु है जिसकी प्रायः उपेक्षा की जाती है। पुलिस इंवेस्टीगेशन अधिकारी की तकनीकी और कानूनी ज्ञान में दक्षता, साक्ष्य संग्रह में दक्षता और तकनीकी साधनों की उपलब्धता, उसकी ईमानदारी, अपने उत्तरदायित्वों के प्रति निष्ठा, राजनीतिक दबाव ..आदि ऐसे कुछ कारण हैं जिन पर इंवेस्टीगेशन की सत्यता निर्भर करती है। मृत्युदण्ड का कानून बना देना पर्याप्त नहीं, पर्याप्त है दण्ड तक अपराधी को पहुँचाने का मार्ग। इसलिये पुलिस इंवेस्टीगेशन की प्रक्रिया पर सर्वाधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।

आम जनता के सहयोग और उसकी अपनी अंतरात्मा की जागृति की नैतिक बात अभी हम नहीं करेंगे। फाँसी की बात पर विचार करते हैं। किसी स्त्री के साथ यौनोत्पीड़न और क्रूरता एक ऐसा अमानवीय कुकृत्य है जिसकी जघन्यता की तुलना किसी अन्य अपराध से नहीं की जा सकती। मृत्युदण्ड भी इस अपराध के लिये बहुत न्यून दण्ड है। यूँ भी मृत्यु तो भवसागर से मुक्ति का सहज उपलब्ध साधन है ...दण्ड नहीं। इसलिये मृत्युपर्यंत कठोर सश्रम कारावास के साथ-साथ प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व के दिनों में बलात्कार के इन सज़ायाफ़्ता लोगों की अपने-अपने जिलों में हथकड़ी-बेड़ी के साथ सार्वजनिक परेड की सज़ा से ही हमें संतोष करना पड़ेगा।   

     

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

मैं आम नहीं कुछ ख़ास नहीं, रुक कर पल भर फिर चल दूँगा

 
 

मैं आम नहीं

जो ओढ़ लूँ

नयी चादर

हर पतझड़ के बाद

और हो जाऊँ ख़ास

कुछ ख़ास लोगों के लिये।

मैं तो पौधा हूँ

नन्हा सा धान का

जो नहीं ओढ़ता

नई-नई चादरें

बस

सौंप कर

  सुनहरी बालियाँ

   हर आम के लिये

   हो जाता हूँ विदा

         सदा के लिये।     

 

 
 

ये कौन मूर्तिकार है.....



ये कौन मूर्तिकार है ......


ये कौन मूर्तिकार है जो अर्थ को है गढ़ रहा

अमूर्त को बना रहा, मूर्त को सजा रहा  


दृष्य में कहाँ धरा जो दृष्टि में है खिल रहा।

ये कौन मूर्तिकार है जो अर्थ को है गढ़ रहा॥

 


ये राग भी विराग भी ये साज को बजा रहा।

ये कौन मूर्तिकार है जो अर्थ को है गढ़ रहा॥


रूप भी विरूप भी ये कैसी सृष्टि रच रहा।

ये कौन मूर्तिकार है जो अर्थ को है गढ़ रहा॥


मंगलवार, 27 नवंबर 2012

काश! मुझे भी ईश्वर नें बनाया होता

तो मौत के बाद कोई ठिकाना तो मिला होता। 

 

यूँ न इतराओ अपनी ख़ूबसूरती पे

कसम से ....कभी हमारे भी जलवे हुआ करते थे 

 

आकाश भी हमारा न रहा

यहाँ भी बिछा दिया सामान .....हमारी मौत का 

 

सल्फ़ी ने बाँध लिये ......सिर पे फिर सेहरे

 

सिर रहे न रहे पर झुकेंगे नहीं। दम हो तो झुका के दिखाये कोई।

 

कट गया धान ...अब हमारी बारी।

 

एइलेंथस एक्सेल्सा ...ज्वरनाशक है स्टेम बार्क का जूस।

 

सोमवार, 12 नवंबर 2012

तकदीर बनाने प्यासों की अब कुयें स्वयं ही चलते हैं

     दया, दान, क्षमा, उदारता, प्रेम और अहिंसा .... आदि उदात्त मानवीय गुण समाज में संतुलन बनाये रखते हुये एक सहिष्णु और सौम्य समाज के  निर्माण में सहायक होते हैं। इसीलिये धर्मग्रंथों में इन गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है। समाज के भौतिक विकास के साथ-साथ ये गुण अपने लक्ष्य खोते गये और आज दूषित कुविचारों के साधन मात्र बनकर रह  गये हैं।

     पात्रता का निर्धारण युक्तियुक्त तरीके से न करना उदात्त मानवीय गुणों का दुरुपयोग ही कहा जायेगा।  भिखारी को भीख देना उस पर दया करना है किंतु इस दया से उसकी तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति के अतिरिक्त कोई और उद्देश्य पूरा नहीं होता। एक आदर्श व्यवस्था तो यह है कि उसके भीख मांगने के कारणों को दूर करते हुये उसे आत्मनिर्भर बनने में सहयोग किया जाय।

     हमें यह समझना होगा कि सत्तायें सदा ही समाज में ऐसे कारण उत्पन्न करने में लगी रहती हैं जो शासन की ज्वलंत आवश्यकता को बनाये रखें। सत्ताओं की रुचि समस्या के समाधान में कम, उनके निर्माण में अधिक रहती है। आदिम समाज में सत्ता कभी समाज की आवश्यकता थी जो कि अब मनुष्य की आवश्यकता बन गयी है। जब हम समाज से मनुष्य की ओर आते हैं तो व्यक्तिवाद प्रकट होने लगता है। यह व्यक्तिवाद ही प्रभावी होकर कुविचारों और कुनीतियों को जन्म देता है।

     भारत जैसे प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न देश में अभाव, दरिद्रता, अपराध, अनीति, आतंक, असंतोष, हिंसा, बलात्कार,  रोग, अधोपतन और बौद्धिक पलायन जैसी समस्यायें हैं ......परंतु क्यों हैं यह गम्भीर चिंतन का विषय है। ये समस्यायें अनियंत्रित क्यों हैं ....इनका समाधान क्यों नहीं मिल पा रहा ....कहीं ये समस्यायें जानबूझकर निर्मित तो नहीं की गयीं? हम जिन आदर्शों के बारे में पढ़ते हैं ...जिन उपदेशों को सुनते हैं वे कहीं भी दिखायी क्यों नहीं देते ? और दिखायी देते हैं तो सुदूर उत्तर में स्वीडेन और फ़िनलैण्ड जैसे देशों तक ही सीमित क्यों हैं?

     इन प्रश्नों के उत्तर हमें खोजने होंगे। वस्तुतः भारत में सत्ता का उद्देश्य़, जैसा कि मैंने कहा, मनुष्य़ और समाज का निर्माण करना नहीं अपितु मनुष्य और समाज पर शासन करना भर ही रह गया है। सत्ता के लिये समाज को बांटने और लोगों में परस्परिक फूट डालने जैसे दुष्ट विचारों के लिये हमें अंग्रेज़ों को ही दोष देने की आदत से मुक्त होना होगा। स्वतंत्र भारत में अंग्रेज़ों की इस विरासत में निरंतर वृद्धि करने वाले लोग कौन हैं .....किस देश के निवासी हैं?

      भारत में आर्थिक अपराध घोटालों के रूप में मान्य हो चुके हैं। अपराध ने राजनीति को निगल कर पचा लिया है और राजनीति पूरी तरह अपराध के शरणागत् हो चुकी है। आज इन दोनों की एक-दूसरे के बिना कल्पना नहीं की जा सकती। भारत के किसी भी राजनीतिक दल में या समाज में भी भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव ही दिखायी दे रहा है। प्रशासन के उच्चाधिकारी प्रायः समाज के लिये कम किंतु  सत्ता के लिये अधिक समर्पणभाव से कार्य करते हैं। उनकी कार्यशैली इस बात का प्रमाण है। उनका सामंती तौर-तरीका और अन्य विभाग के अधिकारियों के साथ अकारण ही निरंतर अपमानजनक व्यवहार आश्चर्यजनक है। कई बार सन्देह होता है कि कहीं वे किसी अन्य ग्रह के प्राणी तो नहीं। उनके निर्णय अव्यावहारिक और समाज के लिये अनुपयोगी होते जा रहे हैं। तर्क उन्हें पसन्द नहीं ...केवल अपमानजनक तरीके से अव्यावहारिक आदेश देना ही उनके अस्तित्व का एकमात्र लक्षण बन गया है। यह एक शोध का विषय होना चाहिये कि भारत का एक आम नागरिक मसूरी से लौटने के बाद किसी दूसरे ग्रह का प्राणी कैसे और क्यों बन जाता है?

     आधी शताब्दी की स्वतंत्र यात्रा के पश्चात् अब यह स्पष्ट हो चुका है कि सत्ता बनाये रखने के लिये समाज को निरंतर और निरंतर दुर्बल बनाये रखने की आवश्यकता ही आज भारत का एकमात्र आदर्श रह गया है। जातिगत् आरक्षण की व्यवस्था समाज को अव्यवस्थित करने की स्थायी व्यवस्था के रूप में अपना दृढ़ स्थान बना चुकी है। आरक्षण अपने उद्देश्य को पाने में असफल रहा है, समाज का एक वर्ग यह समझने के लिये तैयार नहीं हो पा रहा। उन्हें यह समझना होगा कि किसी स्वस्थ्य समाज को उत्कृष्ट गुणों और दक्षता की आवश्यकता होती है न कि इनमें शिथिलता की? विश्व के किसी भी देश में गुणों और दक्षता में शिथिलता के साथ विकास की कल्पना नहीं की गयी, और इसका परिणाम सबके सामने है। हम एक चम्मच भात खाकर ही भूख मिट जाने की कल्पना को भारतीय समाज में स्थापित कर चुके हैं और यह कल्पना किसी परजीवी की तरह भारतीय समाज को खोखला करती जा रही है। दुर्बल और अक्षम को सबल और सक्षम बनाने के प्रयास किये जायें न कि उन्हें योग्यता और दक्षता में शिथिलता प्रदान की जाय। यह समाज निर्माण की नहीं समाज विघटन की प्रक्रिया है।

     सुविधा के नाम पर समाज को अपंग बनाने की कला में हम दक्ष हैं। सत्तायें नहीं चाहतीं कि लोग आत्मनिर्भर हों। गरीबों पर दया करना और उन्हें आगे बढ़ने के लिये सहयोग करना अच्छा है पर सीमा और औचित्य का निर्धारण आवश्यक है। गरीबों को कम मूल्य में खाद्यान्न उपलब्ध कराने का प्रभाव यह हुआ कि अब लोग काम ही नहीं करना चाहते। शिक्षकों को यह लक्ष्य दे दिया गया कि वे घर-घर जाकर बच्चों को पढ़ने के लिये शाला आने के लिये प्रेरित करें, उनके बच्चे रुग्ण हों तो उनकी चिकित्सा करायें, उन्हें भोजन करायें ...उनके लिये सब कुछ करें पर स्वयं उन्हें एक अच्छे नागरिक बनने के लिये आवश्यक आत्मनिर्भरता के पाठ से सदा दूर रखें। सचेष्ट विकास के स्थान पर निश्चेष्ट विकास को ही सत्ता और व्यवस्था ने अपना लक्ष्य बना लिया है। सुदूर और पहुँचविहीन अंचलों में स्वास्थ्य सेवाओं के लिये सचल औषधालय की व्यवस्था स्वागतेय है किंतु इससे भी अधिक स्वागतेय होगा उन पहुँचविहीन अंचलों को पहुँचयुक्त और सुगम बनाना। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत के आम नागरिक को अपना उत्तरदायित्व समझने और उसे स्वस्फूर्त निर्धारित करने के लिये प्रतिकूल स्थितियाँ निर्मित की गयी हैं। किसी रुग्ण को अपने स्वास्थ्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं रह गयी, यह शासन के चिकित्सकों का उत्तरदायित्व बन गया है कि वे उनके लिये न केवल चिंतित हों अपितु औषधियाँ लेकर उनके पीछे-पीछे जगह-जगह डोलते फिरें। जहाँ कहीं भीड़ दिखे डॉक्टर्स को वहाँ पहुँचना ही होगा, जैसे कि रोगियों को भीड़ में जाना बहुत प्रिय हो। रुग्ण होने पर लोग घर में आराम करना नहीं बल्कि भीड़ में घुसना पसन्द करते हों। स्वास्थ्य मेलों का आयोजन घर पहुँच सेवा का एक प्रकार है। इसके लिये डॉक्टर्स को पहले से पर्याप्त प्रचार करना होता है कि हम आपके गाँव आ रहे हैं ...आपकी चिकित्सा के लिये..... हमारे आते तक वहीं ठहरो। यह प्रचारित करने की आवश्यकता नहीं है कि आपके गाँव में ही या आपके गाँव के समीप ही स्वास्थ्य केन्द्र हैं जहाँ रोगी को पहुँचना उसका अपना उत्तरदायित्व है। आखिर कब हमारी व्यवस्था लोगों को अपने जीवन की आवश्यकताओं को स्वयं समझने और अपने उत्तरदायित्व स्वयं निभाने के लिये आत्मनिर्भर बनने का अवसर देगी? आम नागरिक को अपंग बनाती इस व्यवस्था का परिणाम दिखायी देने लगा है। छत्तीसगढ़ में शिक्षक और चिकित्सक सबसे दयनीय प्राणी बन गये हैं। छोटे शहरों या गाँवों के  डॉक्टर्स का अपने व्यक्तिगत् कार्य से भी बाहर निकलना मुश्किल हो गया है। लोग रास्ता रोक कर ताकत और कामशक्ति बढ़ाने वाली दवाइयाँ मांगने लगे हैं। लोग चिकित्सालय आने की आवश्यकता नहीं समझते बल्कि कहीं भी चिकित्सक को देखते ही उन्हें अपनी बीमारी याद आ जाती है फिर भले ही वह कोई विवाह समारोह ही क्यों न हो। क्या यह गम्भीर चिंतन का विषय नहीं कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हम अपने नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में स्वयं पहल करने की सोच तक विकसित नहीं कर पाये? विकास और प्रगति की यह छद्म अवधारणा आत्मनिर्भरता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है, और यह बात भारत के आम नागरिक को समझनी होगी।

तक़दीर बनाने प्यासों की, अब कुयें स्वयं ही चलते हैं

दीपक हैं सारे बुझे हुये, अब पथ ही हरदम जलते हैं॥

पथ सारे जल जायेंगे तो पथहीन बनेगा यह भारत

भटकेगा सारा देश तभी, होगा फिर नया महाभारत॥  

 

रविवार, 11 नवंबर 2012

आयुष्यदाता

धन्वंतरिदेव आयुष्यदाता!

नमन देव स्वीकार कर लो हमारा।

अज्ञान से जन्म लेते रहे हम

अज्ञान में मृत्यु बुनते रहे हम॥

पुरुषार्थ का मंत्र अब गुनगुना दो

हमें मुक्ति का मार्ग अब तो बता दो॥

रहस्य तन औ मन का है क्या कहो तो

जीवन सहजतम ये कर दो हमारा॥

 

जीवन है पथहीन, घनघोर वन सा

शरीरं इदं गूढ़ ब्रह्माण्ड जैसा॥

दुर्गम जटिलतम विचित्रं रहस्यम्

हमें पथ बता दो सहजतम सरलतम॥

मन शांत हो और निर्मल हो तन भी

हितं हो परं, कर सकें परहितं भी॥

कैसे जियें, भेद सबको बता दो

अनुरोध स्वीकार कर लो हमारा॥

 

जब भी थकें हम, तुम शक्ति देना

कैसे चलें, मार्ग भी तुम बताना॥

हर जीव जग का, करे लक्ष्य पूरा

सुख से जिये, हो न जीवन अधूरा॥

बने दिव्य जीवन, वरदान यह दो

हटा कर तमस ये भर दो उजाला॥

घनी पीर है और है तेरा सहारा

नमन देव स्वीकार कर लो हमारा॥   


शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

राज्योत्सव

स्थापना दिवस ....यानी स्वतंत्र भारत के एक राज्य का जन्म दिन । जन्म दिन है तो उत्सव का स्वस्फूर्त कारण तो है ही।

  

हुक़्म हुआ है कि उत्सव को हर्षोत्साह के साथ मनाया जाय।

सभी सरकारी विभागों के अधिकारी सारे विभागीय नित्य कर्म त्याग कर योजना बनाने और जन्म दिन मनाने की तैयारियों में जुट गये हैं। कुछ विभाग बेहद गरीब हैं तो कुछ बहुत ही सम्पन्न। ज़ाहिर है, जन्म दिन मनाने में धन का अपव्यय तो होना ही चाहिये। उत्तर प्रदेश की याद आती है जहाँ की एक महिला का जन्म दिन उतर प्रदेश के लोग बड़े ही उत्साह के साथ मनाते हैं। हीरे और स्वर्णाभूषणों के अम्बार लग जाते हैं। एक गरीब महिला केवल अपने प्रतिवर्ष मनाये जाने वाले जन्म दिनों से ही अरबपति बन गयी है।

यह छत्तीसगढ़ है ...प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर एक गरीब प्रांत जहाँ के लोग बड़े गर्व से गीत गाते हैं -"मैं छत्तिसगढ़िया हौं .....मैं चटनी-बासी खात हौं। नदी किनारे मोर झोपड़ी ....जंगल-जंगल जात हौं॥"

 

तो इसी गरीब प्रांत के जन्म दिन पर करोडों की धनराशि उत्सव पर खर्च की जा रही है। जनता और राष्ट्र की सेवा में लगे सभी विभागों के अधिकारी और कर्मचारी व्यस्त हैं ...जन्मदिन की तैयारियों में। भव्य पण्डाल लगाये गये हैं। प्रशासनिक अधिकारी घूम-घूम कर निरीक्षण कर रहे हैं। भव्यता और उपलब्धियों के प्रदर्शन में कोई कमी नहीं रहनी चाहिये। आवश्यकता न होने पर भी वे विभागीय अधिकारियों को कुत्ते की तरह डाँट भी रहे हैं। अधिकारीगण एक प्रशिक्षित दासानुदासानुदास की तरह बड़े ही विनयपूर्वक उनकी उद्दण्डता को आत्मसात कर रहे हैं। अत्यंत हर्षमय वातावरण निर्मित हो गया है जिसमें प्रशासनिक अधिकारियों के सहज आतंक ने उसे कोटि गुणित  कर दिया है। दासानुदासानुदास धन्य हो रहे हैं।  

 

कुछ दरिद्र विभागों के दीन-हीन अधिकारियों ने भयभीत हो कर अपनी आर्थिक हैसियत से कहीं ज़्यादा खर्च करके प्रदर्शनी की भव्यता निर्मित करने का प्रयास किया।

 

आयुष विभाग के पण्डाल में चिकित्सा अधिकारियों की पूरी एक फ़ौज़ थी। वे  स्थानीय विधायक और सांसद को चिकित्सा विज्ञान की भारतीय परम्परा की विशेषतायें बताने में व्यस्त रहे, व्यस्त कैसे न होते, दो दिन में उनके पण्डाल में प्रवेश करने वाले एलिट लोगों में वे पहले प्राणी थे। प्रशासनिक अधिकारियों ने तो फूटी आँख उठाकर देखना तक मंज़ूर नहीं किया।  उनका ध्यान गुण से अधिक संख्या पर है। वे चाहते हैं कि स्वास्थ्य विभाग के लोग जहाँ कहीं सशरीर उपस्थित हों तुरंत उपस्थित लोगों की चिकित्सा में लग जायें। गोया पूरा देश रुग्ण है। जन समस्या निवारण शिविर हो या राज्योत्सव या अन्य कोई कार्यक्रम .....डॉक्टर्स को चलते-फिरते हर समय केवल और केवल रोगियों को दवाइयाँ बांटते रहना चाहिये। डॉक्टर यानी एक ऐसा मज़दूर जो हर समय ...हर स्थिति में फावड़ा चलाने के लिये तत्पर रहे। प्रशासनिक अधिकारियों की यह मानसिकता अनुकरणीय है ...अद्भुत् है ....स्तुत्य है। वारे जाऊँ इस मानसिकता पर। स्वास्थ्य विभाग चाहता है कि लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक किया जाय जिससे वे कम से कम रुग्ण हों। प्रशासकीय अधिकारी चाहते हैं कि लोग अधिक से अधिक रुग्ण हों जिससे कि उनकी चिकित्सा की जा सके और फलित आँकड़े दर्शनीय हो सकें। यूँ भी डॉक्टर्स लोग काम ही क्या करते हैं ....बस जरा सी कलम हिलायी और प्रिस्क्रिप्शन पूरा। यह भी कोई काम हुआ?

एक साहब बड़े गुस्से में आये, आते ही कच्ची ककड़ी की तरह भक्षण करने की मुद्रा में डॉक्टर्स को घूरते हुये हुक़्म दिया "बस चाय ही पीते रहोगे या मरीजों को कुछ दवा भी बांटोगे? चलो, टॆबल लगा कर दवा बांटो।"

बैंक के लोग किसानों को ऋण बांटते हैं, वन विभाग के लोग पौधे बांटते हैं, पशु विभाग के लोग सुअर बांटते हैं, महिला एवं बाल विकास विभाग के लोग रेडी टु ईट मील बांटते हैं, मन्दिर में पुजारी जी पंजीरी बांटते हैं .....ऐसा उत्तम विचार मन में लाते हुये भय को प्राप्त हुये डॉक्टर्स ने आनन-फानन में टेबल मंगाई कुछ दवाइयाँ मंगाईं और धूप से भरे-पूरे पंडाल में चुचुआते पसीने से युक्त होकर बैठकर रोगियों के आने की प्रतीक्षा करने लगे।

आह! बहुत देर हो गयी, एक भी रोगी नहीं .....इतिहास का रट्टा लगाकर बड़ा साहब बना कोई प्राणी फिर आयेगा और न जाने कितने विषवाण छोड़ेगा .....इस चिंता से ग्रस्त हुये डॉक्टर्स राज्योत्सव के विशाल प्रांगण में एक अदद रोगी खोजने की लालसा से यत्र-तत्र विचरण करने लगे। गरीब की आशा बड़ी दुखदायी होती है, बड़े यत्न के बाद भी कोई रोगी नहीं मिला। तब एक भयभीत डॉक्टर ने पड़ोस के पण्डाल में बैठे एक कर्मचारी से अनुनय विनय करते हुये कहा- "हे स्वतंत्र भारत के परतंत्र शासकीय कर्मचारी जी! आपके मुख पर छाये विषाद से प्रतीत होता है कि आप के मन में कोई शल्य है जो आपको पीड़ित कर रहा है। आप कृपा करके हमारे पण्डाल तक चलिये जिससे आपके मनोशल्य को दूर किया जा सके।" 

एक दुःखी प्राणी ने दूसरे दुःखी प्राणी के दुःख को समझा और चुपचाप उपकार भाव से दवा ले कर चला गया। रोगी पंजी में एक रोगी दर्ज़ हुआ। तभी एक बुज़ुर्ग सज्जन आये ...बिना किसी के प्रयास किये आ गये।  बोले, दूसरा विवाह किया है, कुछ कृपा हो जाय। उन्हें बड़ी विनम्रता से  कहा गया-"हे कामी पुरुष! शासन की ओर से ऐसी औषधियों का प्रदाय वर्ज्य है। आप किसी ख़ानदानी शफ़ाख़ाने वाले से संपर्क स्थापित करें।"

दुःखी डॉक्टर्स उन्हें दवा बांटने से वंचित रह गये ...किंतु रोगी पंजी में उनका शुभ नाम दर्ज़ कर उन्हें किसी उपयुक्त स्थान के लिये रेफ़र कर दिया गया।    

 

अहिंसा के गीत गाने वाले देश में मांसाहार को बढ़ावा देने के लिये पशुधन विकास विभाग की ओर से दो टर्की लाकर रखे गये हैं। विदेशों में भारतीय गाय(बॉस इण्डियाना) को पसन्द करने वालों की विदेशी गाय (बॉस टौरस) को प्रचारित करने के लिये एक बड़ा सा कट आउट लगाया गया है। भारतीय गाय का एक छोटा सा चित्र भी कहीं खोजे नहीं मिला। पूछने पर बताया गया कि सब कुछ हुक़्म के अनुसार हो रहा है। यह हुक़्म कौन देता है?

विदेशों में भारतीय गाय को सर्वोत्तम माना गया और भारत में भारतीय गाय को विदेशी साँड़ से संकर बनाया जा रहा है! अहो दुर्दैव! क्या उत्तम योजना है! भारत से भारतीय श्रेष्ठ गाय को सदा के लिये समाप्त कर देने की अद्भुत् योजना स्तुत्य है ...अनुकरणीय है।  

 

किराये पर लाये गये गरीब आदिवासियों से नृत्य कराया गया। भव्यता में वृद्धि हुयी, अधिकारीगण हर्षित हुये। आतंक किंचित कम हुआ।

 

एक प्रथम श्रेणी अधिकारी अपने पण्डाल की तैयारी में स्वयं ही जुट गयीं। ऐसे लोगों की सरलता के प्रति सहज श्रद्धा उत्पन्न हुयी।

 

रेडी टु ईट मील से संवरता भोला बचपन


 

मनुष्य तो नहीं ...हाँ! कीचड़ में खिले कमल अवश्य ही हमारी आशा के स्रोत हैं।  

मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

ये रिश्ते

 
 
   लड़के को चोट लगी तो दर्द से कराह उठी लड़की, और जब दिल दुखा लड़की का तो तड़प उठा लड़का। बचपन में देखी लैला-मजनू की नौटंकी के कुछ दृष्य आज भी याद हैं मुझे। मगर मोहब्बत की दीवानगी और इबादत के ऐसे किस्से अब कहाँ? आदिवासी गाँव कुआँपानी की किशोर लड़की ने कभी नौटंकी नहीं देखी अलबत्ता लैला-मजनू की अमर मोहब्बत के बारे में ज़रूर सुन रखा था उसने। कुआँपानी, यानी बस्तर के ऊँचे पहाड़ों की तलहटी में बसा छोटा सा आदिवासी गाँव।
    जंगल में हिन्नी सी घूमने वाली निर्भीक किशोरी को एक दिन कॉलेज में एडमीशन के लिये एक बड़े से गाँवनुमा कस्बे में जाना पड़ा। कॉलेज की इत्ती बड़ी बिल्डिंग देखकर ही लड़की के होश उड़ गये। जैसे-तैसे लड़की ने एडमीशन फ़ॉर्म लिया ...पर अब परेशान, कैसे भरूँ इसे?
   लड़के को लगा कि लड़की को किसी के सहयोग की आवश्यकता है। ऐसे अवसर को भला कौन लड़का हाथ से जाने देना चाहेगा? लड़का पास आया, बड़ी विनम्रता से बोला- “लाइए, मैं भर दूँ!”
   जंगल की हिन्नी कुछ सकुचाई फिर बिना कुछ बोले हाथ का फ़ॉर्म लड़के के सुपुर्द कर दिया। लड़का पूछता रहा, लड़की बताती रही, और फ़ॉर्म भरता गया। जब तक फ़ॉर्म पूरा हुआ तब तक लड़के के पास हिन्नी की सारी जानकारी आ चुकी थी। अपने गाँव से बाहर के किसी मरद से यह उसकी पहली मुलाकात थी।
   मुलाकात अगले दिन फिर हुई, उसके अगले दिन भी हुई ....रोज हुई ... होती रही।
   चार साल हो गये मुलाकात होते। इस बीच लड़की ने अपनी ज़िन्दगी के पाँच मौसम देख लिये थे। पाँच मौसमों की अलग-अलग तासीर ने लड़की की मोहब्बत को पर दे दिये थे। जंगल की हिन्नी के पास अविश्वास का कोई कारण नहीं था ....एक दिन उसने लड़के को सौंप दिया अपना सब कुछ। पहाड़ी नदी बह चली पूरे वेग से। बह चली ..बहती रही ....बहती रही ...ख़ूब बही ......  
   फिर एक दिन लड़की मैना बन गयी। बस्तर की गाने वाली मैना। वह लड़के को एक गीत सुनाने लगी ..मधुरगीत....सहज प्रेम का मधुर प्रेमगीत। लड़के को गीत अच्छा नहीं लगा। उसे रिश्तों के व्यापारिक स्वरूप में गहरा यकीन था। उसकी रगों में बहने वाले ख़ून में कुशल व्यापारी के रिश्ते निभाने की काबिलियत थी।
   लड़की गीत गाती रही ... उसने सुन रखा था कि मैना पक्षी अपने जीवन में केवल एक ही जोड़ा बनाते हैं इसलिये जंगल की हिन्नी पूरे यकीन और आत्मविश्वास के साथ गीत गाती रही।
   एक दिन लड़के ने मैना को बुलाया, मैना उड़ कर झट उसके पास आ गयी। लड़का उसे लेकर पास के एक जंगल में गया। लड़की आज छठा मौसम देखने वाली थी। जंगल में पहुँचते ही लड़का एक बहेलिया बन गया। उस दिन मैना ने अपनी ज़िन्दगी में पहली और अंतिम बार पतझड़ को देखा ...अनुभव किया ....और फिर उड़ गयी ...एक अनन्त यात्रा पर। वह सारे मौसमों के अनुभवों की सीमा से दूर चली गयी।
   अगले दिन समाचार पत्र में लोगों ने पढ़ा- “जंगल में एक अज्ञात लड़की की लाश पायी गयी”।
   पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर ने लड़की की निश्चल देह को एक बार देखा फिर भरे कण्ठ से बुदबुदा कर अपने आप से कहा –“जंगल, शिकार और शिकारियों के ये रिश्ते कोई हुक़ूमत कभी ख़त्म नहीं कर सकती।”
   मैना तो उड़ गई। पर उसकी आत्मा आज भी मुस्कराकर पूछती है शिकारी से- “सुनो, मोहब्बत के चमन में पाँच ही मौसम काफ़ी नहीं थे क्या?”

यह फ़िक्शन नहीं, एक सच्ची घटना है...और आज मैं बेहद दुःखी हूँ।

 
 

शनिवार, 27 अक्टूबर 2012

आत्महत्याओं का दौर

 

दुःखी होकर
पुजारी के मुखौटों से
आत्महत्या कर ली है
मन्दिर के देवता ने,
ठीक उसी तरह
जैसे
राष्ट्रवाद,
शुचिता,
सदाचरण,
निष्ठा,

सद्भावना .......

और चरित्र जैसे शब्दों नें
आत्महत्या कर ली है।
अब
कोई अशोक नहीं निकलता
भीड़ से,
न जन्म लेता है
कोई कृष्ण
किसी बन्दीगृह से।
किसी भिखारी की भूख की पीड़ा का
क्या अनुमान लगा पायेगा
कोई मोटा।
किसी लक्ष्मीपुत्र से
क्या आशा की जाय
राष्ट्रवाद, शुचिता, सदाचरण, निष्ठा,
सद्भावना और चरित्र की।
इन लुभावने शब्दों को तो
दफ़न कर दिया है
तथाकथित राष्ट्रभक्तों ने।

आप

मुझे राष्ट्रद्रोही कह सकते हैं 

पर यह सच है

कि मुझे

अगले चुनाव के लिये
नहीं दिखता कोई ऐसा चेहरा
जिसे दे सकूँ

अपना बहुमूल्य मत।
मेरी चिंता पर

एक अज़ब सी ख़ामोशी है,

पूरे परिदृष्य में

बेशर्मी का आलम है 
और राष्ट्रवाद

लाल हो गया है
पता नहीं
गुस्से से
या शर्म से
या

अपनी पीठ और पेट में भोंके गये
नेज़ों से बहते ख़ून से।