बुधवार, 16 मई 2012

कांकेर से जगदलपुर के मार्ग पर ...

इनकी भाषा बाँची जिसने, ईश्वर के वह निकट हुआ है।
सखा वृक्ष हैं, सखी प्रकृति है, रिश्ता ये ही अमर हुआ है॥ 

 

 भंग भयो ध्यान, अंग गदरायो देख,
तपती दुपहरिया पथिक भरमायो है।
पात-पात रक्षक बन खूब डरवायो किंतु, 
     मिली, नत नयन कर पथिक जो आयो है॥    



आये
तब बिखराया कंचन,
विदा हुये
तब भी बिखराया।
फिर भी वंचित रहा मूढ़ मैं,
समझा,
तब तक तम घिर आया॥


    अंग-अंग विरह से धधक-धधक जल्यो आज।
    है जंगल में काना-फूसी, तार-तार भयी लाज॥
   


सुन्दर पथ, वृक्षों की छाया, छिपी यहाँ नक्सली माया।
कब विस्फ़ोट कहाँ हो जाये, घूम रहा आतंकी साया॥


मुड़े हुये हों कितने भी पथ, पर ये वापस कब आते हैं ?
अब बाधाओं से डरना क्या, हम आगे ही बढ़ते जाते हैं॥


वस्त्र नहीं
पर हया हमें है,
कोई घोटाला किया नहीं है।
तुमने किये घोटाले इतने,
असली जीवन जिया नहीं है॥


पीत अंग पीत वसन पिय में ही लगन लगी।
धूप से न भीत भयी, मन ही मन मगन भयी॥

8 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद ख़ूबसूरत चित्र हैं...बिलकुल नयनाभिराम ...
    उन्हें वर्णित करती पंक्तियाँ चित्रों की खूबसूरती और बढ़ा रही हैं..

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  2. प्रकृति के अनुपम सन्देश सुन्दर शब्दों में पहुंचा दिए आपने . काश कि मनुष्य समझ पाता.

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  3. बधायी हो ...दोनो सखियों का एक साथ शुभागमन हुआ है....दर्शन मंगलमय हुआ ...मैं धन्य हुआ। अहो भाग्य। आप दोनो का स्वागत कैसे करूँ ...कैसे करूँ ....कुछ समझ में नहीं आ रहा। चलिये बाद में सोचेंगे। फ़िलहाल ....
    सन्देश अपने लक्ष्य तक पहुँच सका प्रयास सार्थक हुआ।

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  4. :) सुन्दर शब्द, सुन्दर चित्र!

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  5. वाह.........यादें ताज़ा हो गयीं..................
    कंकर के एक रेस्ट हाउस में जो टिक जाते फिर मन ना होता हिलने का.....
    बहुत प्यारी जगह है बस्तर....

    अनु

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  6. मनोहारी तस्वीरें, परिचित एवं सा पथ एवं सुन्दर एवं सार्थक संदेश ! आनंद आ गया आपके ब्लॉग पर आकर ! शुभकामनायें !

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  7. एक झलक उस बे-बाक जीवन की प्राकृतिक सौन्दर्य की ,बिंदास मन की दिखला दी आपनें .कर दी चुनरी तार तार आपने .

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.