मंगलवार, 26 जुलाई 2016

भारतीय राष्ट्रवाद

   

27 फ़रवरी 2016 को जे.एन.यू. के ए.डी. ब्लॉक में एक जनसभा का आयोजन किया गया था जिसका विषय था “Demilitarizing Nationalism: Anti-War Perspective on Patriotism”दोपहर में सांस्कृतिक कार्यक्रम के बाद थी भाषण श्रंखला जिसमें भाग लेने के लिये उपस्थित होना था एडमिरल रामदास, ललित रामदास, कुमार सुन्दरम, सांसद धरमवीर गांधी और सेवानिवृत्त अधिकारी लक्ष्मेश्वर मिश्र को । इसके बाद लोकगीतों का कार्यक्रम था जिसक तुरंत बाद मृदुला मुखर्जी का व्याख्यान होना था “Civil Liberties And Indian Nationalism” और अंत में सन्ध्या 5 बजे सी.पी.आई.एम.एल. के ज़नरल सेक्रेटरी दीपंकर भट्टाचार्य का  “Solidarity Address” होना था ।
माह फ़रवरी में ही वैश्विकसमाज के वामपंथी पुरोधाओं द्वारा जे.एन.यू. में छेड़े गये “आज़ादी के लिये बर्बादी” अभियान को वैश्विक स्वीकार्यता दिलाने के लिये प्रयास प्रारम्भ कर दिये गये जो अद्यावधि किये जा रहे हैं । जे.एन.यू. परिसर और देश के  विभिन्न भागों में विभिन्न आयोजनों के माध्यम से “खण्ड राष्ट्रवाद” और “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के असीमित विस्तार” जैसे विषयों पर बौद्धिक चर्चाओं का आयोजन प्रारम्भ किया गया जिसका उद्देश्य अपने विचारों को न्यायसंगत ठहराते हुये प्रचारित और स्थापित करना है । वामपंथ का सत्ता पक्ष पर आरोप है कि उसने राष्ट्रवाद का सैन्यीकरण कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया है । उसने देश में युद्ध और आपातकाल जैसी स्थितियाँ निर्मित कर दी हैं । अस्तु... इन सभी विषयों पर हमारा दृष्टिकोण बौद्धिक विमर्श हेतु इस वैश्विक चौपाल पर प्रस्तुत है –  

1     राष्ट्रवाद का सैन्यीकरण :- जेनुयाइयों का आरोप है कि केन्द्र की भाजपा सरकार ने राष्ट्रवाद के नाम पर पूरी व्यवस्था का सैन्यीकरण कर दिया है । उनका विरोध “भगवाकरण” को लेकर है जबकि भगवाकरण अपने आप में एक भ्रामक शब्द है । जेनुयाइयों और वामपंथियों के अनुसार संस्कृत भाषा, प्राचीन भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन, आध्यात्म की भारतीय अवधारणा, आर्यों के आराधना स्थल, ईश्वर के विषय में प्राचीन भारत की दार्शनिक अवधारणा, राम, कृष्ण, वेद, पुराण, उपनिषद् , स्मृति ग्रंथ, वर्णव्यव्स्था, ब्राह्मण, कालिदास, भवभूति, महाभारत, रामायण एवं वह सब कुछ जो प्राचीन भारतीय सभ्यता, संस्कृति और विज्ञान को प्रतिष्ठित करने का कारण बनता है, भगवाकरण के प्रतीक हैं । ईसा पश्चात् सातवीं शताब्दी से लेकर अद्यतन भारत और भारतीयता पर निरंतर विदेशी आक्रमण होते रहे हैं । भारत पर होने वाले इस सांस्कृतिक आक्रमण में स्वाधीनता पश्चात् हिंदुओं की सहभागिता भी बड़ी तीव्रता से बढ़ी है । आज यदि हम भारत के गौरव को पुनर्स्थापित करने की दिशा में चिंतन भी करते हैं तो उसे “भगवाकरण” की संज्ञा दे दी जाती है और इसे बड़ी हेय दृष्टि से देखा जाता है ।
भारत पर सातवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ आक्रमण आज भी जारी है, केवल उसका स्वरूप बदल गया है । शताब्दियों की पराधीनता से भारतीयों में उत्पन्न हीनभावना और विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा भारतीय स्त्रियों के साथ किये गये बलात्कारों से उत्पन्न संतानों की निष्ठाहीनता ने भारत के लिये नित नये संकट ही खड़े किये हैं । भारत का सबसे बड़ा संकट है भारतीयों की निष्ठाहीनता और शताब्दियों की पराधीनता से उत्पन्न स्वाभिमानशून्यता । आज भारत के राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य में विसंगतियों और विरोधाभासों की भरमार है । राजनीति में दुष्ट मूर्खों, अपराधियों, स्वाभिमानशून्य लोगों और भारतीयता विरोधी तत्वों का वर्चस्व हो गया है । ऐसे ही लोगों द्वारा “भगवाकरण” जैसे शब्दों को गढ़ कर भारत को पुनः पराधीनता की ओर ढकेलने के कुत्सित प्रयास किये जा रहे हैं । हम ऐसे शब्दों के गढ़न की भर्त्सना करते हैं ।   
“राष्ट्रवाद का सैन्यीकरण” एक ऐसा कूटरचित दुष्टपद है जो प्रथम् दृष्ट्या भारत पर विदेशी आक्रमण के समर्थन की उद्घोष्णा करता है । राष्ट्रवाद को लेकर सत्तापक्ष द्वारा किये गये तथाकथित “सैन्यीकरण” के विरुद्ध जेनुयाइयों के असैन्यीकरण अभियान के साथ-साथ वैश्विक संस्कृति, वैश्विक भाषा और वैश्विक राज्य की वकालत करने वाला वामपंथ राष्ट्रवाद के नाम पर भारत के विभाजन के पक्ष में खड़ा दिखायी देता है । जब वे कश्मीर, केरल, बंगाल आदि प्रांतों की आज़ादी के लिये भारत को “बर्बाद” करने की प्रतिज्ञा करते हैं, भारत के हजार टुकड़े होने तक जंग जारी रखने की प्रतिज्ञा करते हैं तब वे अपनी ही वैश्विक राज्य की यूटोपियन अवधारणा की धज्जियाँ उड़ाते स्पष्ट दिखायी देते हैं । वास्तव में जेनुयाई चिंतन भारतीय विश्वबन्धुत्व, वसुधैव कुटुम्बकम् और स्वयं अपनी ही तथाकथित वैश्विक अवधारणा के विरुद्ध “केवल विरोध के लिये विद्रोह” की असुर परम्परा का द्योतक है । जेनुयाई चिंतन “राष्ट्रवाद” के विरुद्ध “विश्ववाद” की बात करता है किंतु भारत के प्रांतों की आज़ादी के पक्ष में पाकिस्तान और आतंकवाद के साथ खड़ा दिखायी देता है । वास्तव में हम जेनुयाई चिंतन को “चिंतन” की श्रेणी में रखे जाने के पक्ष में नहीं हैं । उनके पास लोकहितकारी चिंतन का पूर्ण अभाव है... उनके विचार भ्रामक और स्वयं में उलझे हुये हैं जो केवल और केवल “बर्बादी” ही कर सकते हैं ।   

2     देशप्रेम का युद्धविहीन दृष्टिकोण –  वामपंथपोषक जेनुयाई विचार देशप्रेम के युद्धविहीन दृष्टिकोण की वकालत करता है किंतु जब “लड़ के लेंगे आज़ादी” का संकल्प किया जाता है तो युद्धविहीन दृष्टिकोण की धज्जियाँ उड़ जाती हैं । जेनुयाई विचार ग़रीबी, असमानता, जातिवाद, शोषण, भ्रष्टाचार और सत्तावाद के विरुद्ध खड़े होकर मनुस्मृति को जलाने के लिये उद्यत दिखायी देता है क्योंकि उनकी दृष्टि में इन सबका कारण ब्राह्मणवाद और मनुस्मृति है । यह उसी तरह है जैसे कोई आम के पेड़ में बौर न आने के लिये द्वापर युग को दोषी ठहरा दे । मानव स्वभावगत दुर्बलताओं के लिये ब्राह्मणों और मनुस्मृति को दोष कैसे दिया जा सकता है ? जबकि कोपीनधारी और भिक्षाजीवी ब्राह्मण प्रायः सत्ता के शीर्ष पर रहा ही नहीं । भ्रष्टाचार, शोषण और वर्गभेद से मुक्त समाज किस देश में है ? क्या पश्चिमी देश इन विकृतियों से मुक्त हैं ? यदि मुक्त नहीं हैं तो क्या वहाँ भी ब्राह्मणों और मनुस्मृति की सत्ता है ? और क्या भारत की ही सत्ता या समाजव्यवस्थायें ब्राह्मणों और मनुस्मृति द्वारा संचालित हैं ?
जेनुयाई प्रदर्शन युद्धविहीन समाज व्यवस्था के पाखण्ड द्वारा स्वयं को शांति और अहिंसा के दूत के रूप में प्रतिष्ठित कर लोकसमर्थन जुटाने के छद्माचरण में विश्वास रखता है किंतु भारत में होने वाली आतंकी घटनाओं पर मौन रहता है ।   

3    भारतीय राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ – सच तो यह है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी भारतीयों के मन और कर्म में राष्ट्र, नागरिक स्वतंत्रता, नागरिक कर्तव्य और मौलिक अधिकार जैसे विषयों पर किसी स्पष्ट धारणा और वांछित आचरण का प्रायः अभाव ही रहा है । चीन, रूस और ज़र्मनी के आदर्शों से अनुप्राणित भारतीय वामपंथ भारत के विरुद्ध खड़ा दिखायी दे तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिये । हम सब अपने आदर्श को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, अपने आदर्श के भौतिक स्वरूप को अपनाना चाहते हैं और अपने आदर्श के प्रतीकों को पूजना चाहते हैं । तब एक साधारण सा प्रश्न उठता है कि भारतीय वामपंथ किसे पूजना चाहेगा, राम-कृष्ण को या कार्लमार्क्स, लेनिन और माओ को ? उसका प्रेम किस धरती के लिये होगा, राम-कृष्ण की धरती या मार्क्स, लेनिन और माओ की धरती के लिये ? ऐसे लोगों के लिये नागरिक स्वतंत्रता के अर्थ और उद्देश्य वे नहीं हो सकते जो एक भारतीय राष्ट्रवादी के लिये होंगे । उनकी नागरिक स्वतंत्रता भारती मान्यताओं के विरुद्ध और वर्जनाओं के पक्ष में उतावली दिखायी देती है । वे विवाह के विरुद्ध लिव इन रिलेशनशिप के पक्ष में और प्राकृतिक लैंगिक आचरण के विरुद्ध समलैंगिक सम्बन्धों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के पक्ष में उत्पात करते दिखायी देते हैं । वे भारत के लिये मुर्दाबाद के और पाकिस्तान के लिये ज़िन्दाबाद के पक्ष में दिखायी देते हैं । वे भारतीय आराधना स्थलों को पाखण्ड का प्रतीक और भारत की धरती पर विदेशी आराधना स्थलों को आज़ादी के सम्मान के प्रतीकरूप में स्थापित करते हैं । वे भारतीय वेशभूषा को दकियानूस किंतु अरबी वेशभूषा को पूज्य और व्यावहारिक मानते हैं । वामपंथ की दृष्टि में स्वतंत्रता का उद्देश्य भारतीयता को पूरी तरह समाप्त करने देने की “आज़ादी” से है ।  
जेनुयाई दृष्टि में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरंकुश आचरण और उच्छ्रंखलता को स्पर्श करती है । उनकी दृष्टि में “भारतीय राष्ट्रवाद” भाजपा द्वारा किया जाने वाला एक ऐसा आपराधिक कृत्य है जिसका हर स्थिति में कड़ा विरोध होना ही चाहिये । 

सोमवार, 25 जुलाई 2016

सोमैया की बेटी

विकास की बहती आँधी उसे उड़ा ले गयी । उसने अभी-अभी किशोरावस्था से युवावस्था में कदम रखा ही था कि उसे विकास का चस्का लग गया । आज उसने एक सस्ती सी जींस पहनी, उबले हुये नमकीन चने के साथ देशी ठर्रा गटका और बीड़ी न पीकर सिगरेट पी ।
मुम्बइया विकास टी.वी. से होता हुआ एक छोटे से आदिवासी ग्राम जकरबेड़ा तक पहुँच गया था । वीडियो फ़िल्मों की सहज उपलब्धता ने तो आधुनिक विकास में और भी चार चाँद लगा दिये थे । वनोपज की उपलब्धता, मनरेगा में काम की गारण्टी, सस्ता अनाज... उसे और क्या चाहिये !  
वह ग्यारहवीं तक स्कूल भी गया था । विकास का असली चस्का तो स्कूल से ही लगा था उसे । वहाँ सुन्दर-सुन्दर लड़कियाँ थीं, स्कूल यूनीफ़ॉर्म की शर्ट में वे और भी उत्तेजक लगती थीं । कोण्डागाँव के मार्केट में निकलता तो जैसे वहाँ बस्तर नहीं बम्बई का सा नज़ारा दिखायी पड़ता । पहले से ही उत्तेजक लड़कियों के लिबास उन्हें और भी उत्तेजक बना देते थे । एक दिन मंगलू ने उसे वीडियो पर एक ब्ल्यू फिल्म दिखायी थी उसके बाद से तो जैसे उसके ऊपर भूत ही सवार हो गया था ।       
जकरबेड़ा के सोमैया की बेटी सुबह स्कूल के लिये निकली थी, शाम तक घर वापस नहीं आयी तो पिता को चिंता हुयी । वह बेटी को खोजने निकला, सोचा पहले स्कूल जाकर देखूँ । वह स्कूल की दिशा में बढ़ चला । एक जगह उसे झाड़ियों के पास बेटी का स्कूल बैग दिखायी दिया तो सोमैया की धड़कनें बढ़ गयीं । वह झाड़ी की ओर बढ़ा, देखा, वहाँ घसीटे जाने के कुछ निशान भी थे । सोमैया का जैसे ख़ून सूख गया, शरीर निर्जीव सा लगने लगा । निशान का पीछा करते-करते वह कुछ ही दूर और गया तो उसे अपनी बेटी भी दिखायी पड़ गयी । वह झाड़ियों में पड़ी थी, अर्धनग्न ! सोमैया चीख पड़ा, रोते हुये बेटी के पास जाकर उलट-पुलट कर देखा तो पता चला कि वह तो एक लाश थी ।
सोमैया की बेटी आधुनिक विकास की लाश हो गयी थी । झाड़ी के पास उसे कामोत्तेजनावर्द्धक दवा की शीशी भी पड़ी मिली । उसने जैसे-तैसे पुलिस तक ख़बर भेजी और ख़ुद बेटी के शव को जंगली जानवरों से बचाने के लिये गोद में लेकर बैठ गया ।
सोमैया रात भर झाड़ियों में बेटी के शव को अपनी गोद में लिये रोता रहा । गाँव के ही विकाशशील युवक ने बेटी को बुरी तरह नोच डाला था । उसने अपने बचाव के लिये जमकर संघर्ष भी किया किंतु अंततः तीन युवकों के आगे हार गयी । विकासशील युवकों ने लड़की की इज़्ज़त भी लूटी और जान भी ले ली ।    
धरमू ने सुनील और जगतू के साथ मिलकर देशी ठर्रा पी थी । ठर्रा पीने के बाद तीनों की आँखों में लड़कियों के शरीर के अंग ही अंग तैरने लगे थे । नहीं, अब और नहीं... कुछ करना ही होगा । उन्हें लड़की चाहिये थी, अभी... तुरंत । लेकिन कहाँ मिलेगी लड़की !
तभी उन्हें दिखायी दी सोमैया की चौदह साल की बेटी ! बस, शराब के नशे ने तीनों युवकों के विकास की गति को तीव्रता प्रदान की और वे लड़की को झाड़ियों में खींच ले गये ।
अगले ही दिन अख़बार ने छापा- “आदिवासी छात्रा से बलात्कार कर हत्या” ।
उस समय विकासशील युवकों के लिये आदिवासी या गैर आदिवासी का भेद अर्थहीन था । उन्हें एक स्त्री चाहिये थी जिसमें वे अपने कामस्वप्नों को पूरा कर पाते । वे कामस्वप्न जो उन्हें टी.वी. विज्ञापनों, फ़िल्मों के आइटम साँग में नाचती लड़कियों, सहज उपलब्ध ब्ल्यू-फ़िल्मों, पोर्न पत्रिकाओं, स्कूल आती-जाती शर्ट पहने लड़कियों और मार्केट में घूमती लड़कियों के लिबासों से उभरती कामोत्तेजना ने दिखाये थे । आज वे युवक उस आँधी में उड़ जाने के लिये बेताब हो चुके थे जिसे वे वर्षों से अपने आसपास देखते आ रहे थे । युवकों ने विकास को अपने आसपास देखा था, बस, वह केवल उनके लिये ही नहीं था किंतु आज वे भी विकसित होने की प्रतिज्ञा कर चुके थे । उन्हें एक अदद स्त्री चाहिये थी, वह कोई भी हो सकती थी, आदिवासी या कोई अन्य भी... जो भी उस वक्त वहाँ से निकली होती । उस वक्त उन्हें एक अदद स्त्री चाहिये थी... वह तीन साल की बच्ची से लेकर सत्तर साल की वृद्धा तक कोई भी हो सकती थी ।
          युवकों की विकास थ्योरी से बेख़बर अख़बार वालों ने जो आदिवासी छात्रा से बलात्कार कर हत्या” की ख़बर छापी उससे आदिवासियों और ग़ैरआदिवासियों के बीच घृणा की एक और कंटीली बाड़ उग आयी । राजनीतिज्ञों ने अपनी आँखें उन्मीलित कर घटना की ओर दृष्टिपात किया फिर उसके वजन को नापा-तौला और नये आन्दोलन की रूपरेखा बनाने में जुट गये... बिना इस बात पर गौर किये कि बलात्कारियों में से दो लोग आदिवासी भी थे ।  

शनिवार, 23 जुलाई 2016

दर्द बना मसाला

शहर में
आज फिर आतंकी हमले हुये हैं  
कुछ ज़िन्दा आदमी
फिर कतरा-कतरा होकर लाश हुये हैं ।
घायल चीख रहे हैं
लोग दहशत में भाग रहे हैं ।  
लाशों के छितरे हुये कतरों पर
मड़राने लगे हैं
कौवे, मक्खियाँ, चीटियाँ,
पत्रकार और कैमरे ।
होने लगे हैं
सीधे प्रसारण,
परोसी जाने लगी हैं
हादसाई ख़बरें
गोया सुनाया जा रहा हो ।    
कोई चटपटा किस्सा ! 
सनसनी ने ले ली है
दर्द की जगह ।
व्यापार चमक उठा है
दर्द, लाशों, आतंक ...
और सनसनी का ।
मौत! 
यहाँ एक मसाला है ।
मौत!
यहाँ एक किस्सा है ।
चलो, अच्छा है...
दुनिया

दुःखनिरपेक्ष हो गयी है । 

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

तीन कविताएं

1- 
फटी हुयी है जींस
मेरी भी
और तुम्हारी भी ।
मेरी
ग़रीबी के कारण,
तुम्हारी
अमीरी के कारण ।
मेरी ग़रीबी
फ़ैशन बन गयी है
तुम्हारी अमीरी का ।
मेरे ख़यालात
बहुत पुराने हैं
इसीलिये फ़ैशन नहीं करता,  
फ़ैशन करूँगा
तो मुझे भी उड़ाना पड़ेगा मज़ाक
तुम्हारी अमीरी का
जो बहुत भारी पड़ेगा
तुम्हारे लिये ।

2- 
जो काम
नहीं कर सकेंगे तुम्हारे भगवान !
वो मैं कर सकूँगा
इसलिये  
आप ही हो आइये मन्दिर !
छोड़ दीजिये मुझे
यहीं मन्दिर के बाहर
तुम्हारे जूतों की रखवाली के लिये,
यह काम
भगवान के वश का नहीं है न !

3- 
शहर में देवालय है
शहर में मदिरालय है  
शहर में चकला है 
शहर में थाना है
शहर में सरकार है
शहर में दीवार है ।
दीवारों ने खींच दी हैं
सरहदें
इन सबके बीच,  
इसीलिये
शहर में कोई नहीं सुन पाता  
किसी की आवाज़ ।

आज फिर हुआ है
सामूहिक बलात्कार
जिसकी एक भी चीख
नहीं भेद सकी है   
इन दीवारों को ।
दीवारें बड़ी सख़्त हैं
जब तक रहेंगी
बलात्कार होते रहेंगे ।

आओ !
आज हम ढहा दें सारी दीवारें
मुक्त कर दें
भगवान को भी
देखने दें उसे भी
होता हुआ बलात्कार ।
मेरा दावा है

वह अंतिम बलात्कार होगा । 

बुधवार, 20 जुलाई 2016

धर्म को कोई नाम न दो


धर्म के सन्दर्भ में बात करें तो पायेंगे कि मनुष्य का आचरण या तो धर्मसम्मत होगा या फिर धर्मविरुद्ध । आचरण को लेकर होने वाले विवाद धर्म और अधर्म के मध्य होते हैं । धर्म स्वयं में अविवादित है । धर्म के नाम पर किये जाने वाले विवाद भी “धर्मों” के बीच नहीं बल्कि धर्म और अधर्म के बीच ही होते हैं । धर्म एक है, अधर्म  भी एक है इसलिये “विविध धर्मों” जैसे शब्द तात्विक न होकर लौकिक और राजनैतिक हुआ करते हैं । यह उसी तरह है जैसे प्रकाश का होना या न होना । फ़ोटॉन में भेद-उपभेद नहीं होते । धर्म में भी भेद-उपभेद नहीं होते, हो ही नहीं सकते । जो प्रकाश और धर्म में भेद-उपभेद देख पाते हैं वे प्रकाश और धर्म को नहीं बल्कि अंधकार और अधर्म को देख पाते हैं ।  
मनुष्य के लिये मानवता से बड़ा धर्म और कुछ हो ही नहीं सकता । जिस आचरण में मानवता न हो वह धर्म सम्मत नहीं हो सकता । सच्चे धर्म की बात करें तो धर्म को किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं होती । सच्चा धर्म सबका होता है, वह न तो केवल तुम्हारा है और न केवल हमारा इसलिये धर्म को कोई नाम न दो । धर्म आचरण है, धर्म करुणा है, धर्म संवेदना है, धर्म प्रेम है... और प्रेम का कोई नाम नहीं होता । प्राचीन भारत में धर्म की सनातनता को देखते हुये सत्-आचरण को सनातन कहा गया । यह किसी धर्म का नाम नहीं, धर्म का गुण है । बाह्य आक्रमणकारियों और विघटनकारियों ने इसे एक विभेदक नाम दे दिया – “हिन्दू धर्म” ।
          उनके पास विभेदक दृष्टि थी, उनके पास विभेदक नाम थे । उनके पास इस्लाम था, उनके पास क्राइस्ट था । धर्म के सनातन तत्व को जान लेने के बाद वह क्या था जिसे जानना शेष था ?
सनातन के पश्चात् प्रतिलोमाचरण और अ-सनातन के अतिरिक्त शेष और क्या हो सकता है ? आज हमें हिंदू-इस्लाम या क्राइस्ट धर्म की नहीं बल्कि केवल और केवल मानव धर्म की आवश्यकता है । यही एक है जिसे विश्व मानव धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किये जाने की आवश्यकता है ।
हम भिन्न धर्म सूचक नाम विशेषों को प्रतिबन्धित किये जाने के पक्ष में हैं । भिन्न धर्मों का विभेदकतत्व एक सीमित “वाद” या धार्मिक “कट्टरता” को जन्म देता है । विभेदकत्व का यह स्वाभाविक परिणाम है जो अवश्यम्भावी है । नाम विशेष वाले धर्मों को लेकर होने वाले विवादों और युद्धों में न जाने कितनी बार रक्त बहता रहा है और न जाने कितनी सभ्यतायें नष्ट होती रही हैं । जहाँ हिंसा और क्रूरता हो वहाँ धर्म नहीं “अधर्म” होता है ।   

 “धर्म निरपेक्षता” जैसी भ्रामक अवधारणायें हमें एक ऐसे बन्द रणक्षेत्र की ओर ढकेलती हैं जहाँ विवाद और युद्ध अवश्यम्भावी हैं । इस अवधारणा का लोक कल्याण से कोई प्रयोजन नहीं होता, यह एक शुद्ध राजनैतिक अवधारणा है जिसका उद्देश्य कुछ लोगों के राजनैतिक हितों का संरक्षण करना ही है । इसलिये हम विभेदकारी धार्मिक पहचानों को भी समाप्त कर दिये जाने के पक्ष में हैं । मानवता की रक्षा के लिये यह आवश्यक है । धर्म के नाम पर हो रहे विवादों और अतिवादों में धधकती दुनिया को बचाने के लिये यही एक अंतिम उपाय बचा है । 

उच्च शैक्षणिक संस्थानों में व्याप्त गुण्डागर्दी...


एक निजी मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाली श्रावणी को तीसरे वर्ष यह समझ में आ सका कि ऊपर वाले ने उसे डॉक्टर बनने के लिये नहीं बल्कि फ़िल्म डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर बनने के लिये भेजा है । उसने अपने माता–पिता से बात की और मेडिकल की पढ़ायी छोड़कर सत्यजित रे फ़िल्म एण्ड टेलीविजन इण्स्टीट्यूट में एडमीशन दिलाने का अनुरोध किया । एक लम्बे विमर्श के बाद श्रावणी की बात मान ली गयी । श्रावणी अब चौथे वर्ष मेडिकल कॉलेज में न पढ़कर एफ़.टी.आई. में बी.एससी. प्रथम वर्ष की पढ़ायी करने के लिये तैयार हो चुकी थी किंतु मेडिकल कॉलेज में एडमीशन के समय जमा किये गये हाई स्कूल और हायरसेकेण्ड्री के मूल प्रमाणपत्र वापस ले पाना एक बहुत बड़ी समस्या थी ।
भारत में उच्च शिक्षा के लिये निजी संस्थानों में प्रवेश मिलना जितना सरल है उतना ही मुश्किल है वहाँ से मुक्ति पाना । छात्र को यदि किसी कारण से बीच में ही अध्ययन छोड़ना पड़े तो ये संस्थान शेष अवधि की पूरी फ़ीस वसूल करने के बाद ही उसके मूल प्रमाणपत्र वापस करते हैं । निजी संस्थानों में यह एक शैक्षणिक गुण्डागर्दी है जिसे श्रावणी ने प्रारम्भ में तो गम्भीरता से नहीं लिया था किंतु जब ख़ुद पर आ पड़ी तो उसे एक लम्बी लड़ाई के लिये ख़ुद को तैयार करना पड़ा । उसे पता था कि भारत में कुछ भी पाने के लिये एक लम्बे संघर्ष की आवश्यकता होती है ।
राजनैतिक संरक्षण के बिना शैक्षणिक संस्थानों में ऐसी खुले आम होने वाली गुण्डागर्दी असम्भव है । आख़िर किसी संस्था द्वारा अवार्डेड प्रमाणपत्र दूसरी संस्था द्वारा यूँ गिरवीं कैसे रखा जा सकता है ? शैक्षणिक प्रमाणपत्र छात्र की अर्जित सम्पत्ति है, उस पर कोई डाका कैसे डाल सकता है ? किंतु यह डाका डाला जा रहा है... खुले आम डाला जा रहा है ।
श्रावणी के पिता झंझट में नहीं पड़ना चाहते थे । वे कलकत्ता से बंगलोर पहुँचे, मेडिकल कॉलेज प्रबन्धन से कई दौर की चर्चा हुयी किंतु महापापी कॉलेज प्रबन्धन टस से मस नहीं हुआ । अंततः उन्होंने बेटी के मूल प्रमाणपत्रों का सौदा किया और बेटी को लेकर कलकत्ता वापस चले गये । इस बीच एफ़.टी.आई. में एडमीशन की तारीख निकल गयी और उन्हें एक बार फिर एक निजी फ़िल्म संस्थान में श्रावणी के सारे मूल प्रमाणपत्र सौंप देने पड़े ।

क्या माननीय प्रकाश जावडेकर जी सर्टीफ़िकेट स्नेचिंग की परम्परा का समूलोच्छेद करने पर गम्भीरता से विचार करेंगे ?  आख़िर हर पिता श्रावणी के पिता जैसा सम्पन्न तो नहीं हो सकता न !

हिम्मत नहीं कर पाते

वे
वारदात करते हैं
हम
वक्तव्य देते हैं ।
वे
हमारे घर में घुस कर
सिर काट ले जाते हैं
हम
इसकी कड़ी निन्दा करते हैं ।
वे
माहिर हैं
हमें गोलियों से भून देने में । 
हम
माहिर हैं
मुँह तोड़ ज़वाब देने में । 

हमें
बड़ा नाज़ है
कि हम बन्द कर देते हैं उनकी बोली
उन्हें
बड़ा नाज़ है
कि वे नहीं छोड़ते हमें बोलने के लायक भी  
कर देते हैं ख़ामोश
हमेशा के लिये ।
हम
शांति की अपील में विश्वास रखते हैं
वे
शांति से बलात्कार करने में यक़ीन रखते हैं ।
वे
भारत के शहरों में
फहराते हैं अपने झण्डे
हम
हिम्मत नहीं कर पाते
उन्हें पकड़ने की ।
वे
करते हैं भारत में शरीयत की बातें
हम
नहीं कर पाते
कश्मीरी पण्डितों के अधिकार की बातें ।      
सच !
हमारा देश महान है
हमारी महानता बेशुमार है

और भारत की आत्मा बेहद शर्मसार है ।