विकास की बहती आँधी उसे उड़ा ले गयी । उसने अभी-अभी किशोरावस्था
से युवावस्था में कदम रखा ही था कि उसे विकास का चस्का लग गया । आज उसने एक सस्ती
सी जींस पहनी, उबले हुये नमकीन चने के साथ देशी ठर्रा गटका और बीड़ी न पीकर सिगरेट
पी ।
मुम्बइया विकास टी.वी. से होता हुआ एक छोटे से आदिवासी ग्राम जकरबेड़ा
तक पहुँच गया था । वीडियो फ़िल्मों की सहज उपलब्धता ने तो आधुनिक विकास में और भी
चार चाँद लगा दिये थे । वनोपज की उपलब्धता, मनरेगा में काम की गारण्टी, सस्ता
अनाज... उसे और क्या चाहिये !
वह ग्यारहवीं तक स्कूल भी गया था । विकास का असली चस्का तो
स्कूल से ही लगा था उसे । वहाँ सुन्दर-सुन्दर लड़कियाँ थीं, स्कूल यूनीफ़ॉर्म की
शर्ट में वे और भी उत्तेजक लगती थीं । कोण्डागाँव के मार्केट में निकलता तो जैसे वहाँ
बस्तर नहीं बम्बई का सा नज़ारा दिखायी पड़ता । पहले से ही उत्तेजक लड़कियों के लिबास
उन्हें और भी उत्तेजक बना देते थे । एक दिन मंगलू ने उसे वीडियो पर एक ब्ल्यू
फिल्म दिखायी थी उसके बाद से तो जैसे उसके ऊपर भूत ही सवार हो गया था ।
जकरबेड़ा के सोमैया की बेटी सुबह स्कूल के लिये निकली थी, शाम तक
घर वापस नहीं आयी तो पिता को चिंता हुयी । वह बेटी को खोजने निकला, सोचा पहले
स्कूल जाकर देखूँ । वह स्कूल की दिशा में बढ़ चला । एक जगह उसे झाड़ियों के पास बेटी
का स्कूल बैग दिखायी दिया तो सोमैया की धड़कनें बढ़ गयीं । वह झाड़ी की ओर बढ़ा, देखा,
वहाँ घसीटे जाने के कुछ निशान भी थे । सोमैया का जैसे ख़ून सूख गया, शरीर निर्जीव
सा लगने लगा । निशान का पीछा करते-करते वह कुछ ही दूर और गया तो उसे अपनी बेटी भी
दिखायी पड़ गयी । वह झाड़ियों में पड़ी थी, अर्धनग्न ! सोमैया चीख पड़ा, रोते हुये
बेटी के पास जाकर उलट-पुलट कर देखा तो पता चला कि वह तो एक लाश थी ।
सोमैया की बेटी आधुनिक विकास की लाश हो गयी थी । झाड़ी के पास
उसे कामोत्तेजनावर्द्धक दवा की शीशी भी पड़ी मिली । उसने जैसे-तैसे पुलिस तक ख़बर
भेजी और ख़ुद बेटी के शव को जंगली जानवरों से बचाने के लिये गोद में लेकर बैठ गया ।
सोमैया रात भर झाड़ियों में बेटी के शव को अपनी गोद में लिये
रोता रहा । गाँव के ही विकाशशील युवक ने बेटी को बुरी तरह नोच डाला था । उसने अपने
बचाव के लिये जमकर संघर्ष भी किया किंतु अंततः तीन युवकों के आगे हार गयी ।
विकासशील युवकों ने लड़की की इज़्ज़त भी लूटी और जान भी ले ली ।
धरमू ने सुनील और जगतू के साथ मिलकर देशी ठर्रा पी थी । ठर्रा
पीने के बाद तीनों की आँखों में लड़कियों के शरीर के अंग ही अंग तैरने लगे थे ।
नहीं, अब और नहीं... कुछ करना ही होगा । उन्हें लड़की चाहिये थी, अभी... तुरंत ।
लेकिन कहाँ मिलेगी लड़की !
तभी उन्हें दिखायी दी सोमैया की चौदह साल की बेटी ! बस, शराब के
नशे ने तीनों युवकों के विकास की गति को तीव्रता प्रदान की और वे लड़की को झाड़ियों
में खींच ले गये ।
अगले ही दिन अख़बार ने छापा- “आदिवासी छात्रा से बलात्कार कर
हत्या” ।
उस समय विकासशील युवकों के लिये आदिवासी या गैर आदिवासी का भेद
अर्थहीन था । उन्हें एक स्त्री चाहिये थी जिसमें वे अपने कामस्वप्नों को पूरा कर
पाते । वे कामस्वप्न जो उन्हें टी.वी. विज्ञापनों, फ़िल्मों के आइटम साँग में नाचती
लड़कियों, सहज उपलब्ध ब्ल्यू-फ़िल्मों, पोर्न पत्रिकाओं, स्कूल आती-जाती शर्ट पहने
लड़कियों और मार्केट में घूमती लड़कियों के लिबासों से उभरती कामोत्तेजना ने दिखाये
थे । आज वे युवक उस आँधी में उड़ जाने के लिये बेताब हो चुके थे जिसे वे वर्षों से
अपने आसपास देखते आ रहे थे । युवकों ने विकास को अपने आसपास देखा था, बस, वह केवल
उनके लिये ही नहीं था किंतु आज वे भी विकसित होने की प्रतिज्ञा कर चुके थे ।
उन्हें एक अदद स्त्री चाहिये थी, वह कोई भी हो सकती थी, आदिवासी या कोई अन्य भी...
जो भी उस वक्त वहाँ से निकली होती । उस वक्त उन्हें एक अदद स्त्री चाहिये थी... वह
तीन साल की बच्ची से लेकर सत्तर साल की वृद्धा तक कोई भी हो सकती थी ।
युवकों की विकास
थ्योरी से बेख़बर अख़बार वालों ने जो “आदिवासी
छात्रा से बलात्कार कर हत्या” की ख़बर छापी उससे आदिवासियों और ग़ैरआदिवासियों के
बीच घृणा की एक और कंटीली बाड़ उग आयी । राजनीतिज्ञों ने अपनी आँखें उन्मीलित कर
घटना की ओर दृष्टिपात किया फिर उसके वजन को नापा-तौला और नये आन्दोलन की रूपरेखा
बनाने में जुट गये... बिना इस बात पर गौर किये कि बलात्कारियों में से दो लोग
आदिवासी भी थे ।
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