27 फ़रवरी 2016 को
जे.एन.यू. के ए.डी. ब्लॉक में एक जनसभा का आयोजन किया गया था जिसका विषय था “Demilitarizing
Nationalism: Anti-War Perspective on Patriotism”। दोपहर
में सांस्कृतिक कार्यक्रम के बाद थी भाषण श्रंखला जिसमें भाग लेने के लिये उपस्थित
होना था एडमिरल रामदास, ललित रामदास, कुमार सुन्दरम, सांसद धरमवीर गांधी और
सेवानिवृत्त अधिकारी लक्ष्मेश्वर मिश्र को । इसके
बाद लोकगीतों का कार्यक्रम था जिसक तुरंत बाद मृदुला मुखर्जी का व्याख्यान होना था
– “Civil
Liberties And Indian Nationalism” और अंत
में सन्ध्या 5 बजे सी.पी.आई.एम.एल. के ज़नरल सेक्रेटरी दीपंकर भट्टाचार्य का “Solidarity
Address” होना था ।
माह
फ़रवरी में ही वैश्विकसमाज के वामपंथी पुरोधाओं द्वारा जे.एन.यू. में छेड़े गये
“आज़ादी के लिये बर्बादी” अभियान को वैश्विक स्वीकार्यता दिलाने के लिये प्रयास
प्रारम्भ कर दिये गये जो अद्यावधि किये जा रहे हैं । जे.एन.यू. परिसर और देश
के विभिन्न भागों में विभिन्न आयोजनों के
माध्यम से “खण्ड राष्ट्रवाद” और “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के असीमित विस्तार”
जैसे विषयों पर बौद्धिक चर्चाओं का आयोजन प्रारम्भ किया गया जिसका उद्देश्य अपने
विचारों को न्यायसंगत ठहराते हुये प्रचारित और स्थापित करना है । वामपंथ का सत्ता
पक्ष पर आरोप है कि उसने राष्ट्रवाद का सैन्यीकरण कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को
समाप्त कर दिया है । उसने देश में युद्ध और आपातकाल जैसी स्थितियाँ निर्मित कर दी
हैं । अस्तु... इन सभी विषयों पर हमारा दृष्टिकोण बौद्धिक विमर्श हेतु इस वैश्विक
चौपाल पर प्रस्तुत है –
1
राष्ट्रवाद
का सैन्यीकरण :-
जेनुयाइयों का आरोप है कि केन्द्र की भाजपा सरकार ने राष्ट्रवाद के नाम पर पूरी
व्यवस्था का सैन्यीकरण कर दिया है । उनका विरोध “भगवाकरण” को लेकर है जबकि भगवाकरण
अपने आप में एक भ्रामक शब्द है । जेनुयाइयों और वामपंथियों के अनुसार संस्कृत
भाषा, प्राचीन भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन, आध्यात्म की भारतीय अवधारणा, आर्यों
के आराधना स्थल, ईश्वर के विषय में प्राचीन भारत की दार्शनिक अवधारणा, राम, कृष्ण,
वेद, पुराण, उपनिषद् , स्मृति ग्रंथ, वर्णव्यव्स्था, ब्राह्मण, कालिदास, भवभूति,
महाभारत, रामायण एवं वह सब कुछ जो प्राचीन भारतीय सभ्यता, संस्कृति और विज्ञान को
प्रतिष्ठित करने का कारण बनता है, भगवाकरण के प्रतीक हैं । ईसा पश्चात् सातवीं
शताब्दी से लेकर अद्यतन भारत और भारतीयता पर निरंतर विदेशी आक्रमण होते रहे हैं ।
भारत पर होने वाले इस सांस्कृतिक आक्रमण में स्वाधीनता पश्चात् हिंदुओं की
सहभागिता भी बड़ी तीव्रता से बढ़ी है । आज यदि हम भारत के गौरव को पुनर्स्थापित करने
की दिशा में चिंतन भी करते हैं तो उसे “भगवाकरण” की संज्ञा दे दी जाती है और इसे
बड़ी हेय दृष्टि से देखा जाता है ।
भारत पर सातवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ
आक्रमण आज भी जारी है, केवल उसका स्वरूप बदल गया है । शताब्दियों की पराधीनता से
भारतीयों में उत्पन्न हीनभावना और विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा भारतीय स्त्रियों
के साथ किये गये बलात्कारों से उत्पन्न संतानों की निष्ठाहीनता ने भारत के लिये
नित नये संकट ही खड़े किये हैं । भारत का सबसे बड़ा संकट है भारतीयों की निष्ठाहीनता
और शताब्दियों की पराधीनता से उत्पन्न स्वाभिमानशून्यता । आज भारत के राजनैतिक और
सामाजिक परिदृश्य में विसंगतियों और विरोधाभासों की भरमार है । राजनीति में दुष्ट
मूर्खों, अपराधियों, स्वाभिमानशून्य लोगों और भारतीयता विरोधी तत्वों का वर्चस्व
हो गया है । ऐसे ही लोगों द्वारा “भगवाकरण” जैसे शब्दों को गढ़ कर भारत को पुनः
पराधीनता की ओर ढकेलने के कुत्सित प्रयास किये जा रहे हैं । हम ऐसे शब्दों के गढ़न
की भर्त्सना करते हैं ।
“राष्ट्रवाद का सैन्यीकरण” एक ऐसा कूटरचित दुष्टपद
है जो प्रथम् दृष्ट्या भारत पर विदेशी आक्रमण के समर्थन की उद्घोष्णा करता है ।
राष्ट्रवाद को लेकर सत्तापक्ष द्वारा किये गये तथाकथित “सैन्यीकरण” के विरुद्ध
जेनुयाइयों के असैन्यीकरण अभियान के साथ-साथ वैश्विक संस्कृति, वैश्विक भाषा और
वैश्विक राज्य की वकालत करने वाला वामपंथ राष्ट्रवाद के नाम पर भारत के विभाजन के
पक्ष में खड़ा दिखायी देता है । जब वे कश्मीर, केरल, बंगाल आदि प्रांतों की आज़ादी
के लिये भारत को “बर्बाद” करने की प्रतिज्ञा करते हैं, भारत के हजार टुकड़े होने तक
जंग जारी रखने की प्रतिज्ञा करते हैं तब वे अपनी ही वैश्विक राज्य की यूटोपियन
अवधारणा की धज्जियाँ उड़ाते स्पष्ट दिखायी देते हैं । वास्तव में जेनुयाई चिंतन
भारतीय विश्वबन्धुत्व, वसुधैव कुटुम्बकम् और स्वयं अपनी ही तथाकथित वैश्विक
अवधारणा के विरुद्ध “केवल विरोध के लिये विद्रोह” की असुर परम्परा का द्योतक है ।
जेनुयाई चिंतन “राष्ट्रवाद” के विरुद्ध “विश्ववाद” की बात करता है किंतु भारत के
प्रांतों की आज़ादी के पक्ष में पाकिस्तान और आतंकवाद के साथ खड़ा दिखायी देता है ।
वास्तव में हम जेनुयाई चिंतन को “चिंतन” की श्रेणी में रखे जाने के पक्ष में नहीं
हैं । उनके पास लोकहितकारी चिंतन का पूर्ण अभाव है... उनके विचार भ्रामक और स्वयं
में उलझे हुये हैं जो केवल और केवल “बर्बादी” ही कर सकते हैं ।
2
देशप्रेम
का युद्धविहीन दृष्टिकोण – वामपंथपोषक जेनुयाई विचार देशप्रेम के
युद्धविहीन दृष्टिकोण की वकालत करता है किंतु जब “लड़ के लेंगे आज़ादी” का संकल्प
किया जाता है तो युद्धविहीन दृष्टिकोण की धज्जियाँ उड़ जाती हैं । जेनुयाई विचार
ग़रीबी, असमानता, जातिवाद, शोषण, भ्रष्टाचार और सत्तावाद के विरुद्ध खड़े होकर
मनुस्मृति को जलाने के लिये उद्यत दिखायी देता है क्योंकि उनकी दृष्टि में इन सबका
कारण ब्राह्मणवाद और मनुस्मृति है । यह उसी तरह है जैसे कोई आम के पेड़ में बौर न
आने के लिये द्वापर युग को दोषी ठहरा दे । मानव स्वभावगत दुर्बलताओं के लिये
ब्राह्मणों और मनुस्मृति को दोष कैसे दिया जा सकता है ? जबकि कोपीनधारी और
भिक्षाजीवी ब्राह्मण प्रायः सत्ता के शीर्ष पर रहा ही नहीं । भ्रष्टाचार, शोषण और
वर्गभेद से मुक्त समाज किस देश में है ? क्या पश्चिमी देश इन विकृतियों से मुक्त
हैं ? यदि मुक्त नहीं हैं तो क्या वहाँ भी ब्राह्मणों और मनुस्मृति की सत्ता है ?
और क्या भारत की ही सत्ता या समाजव्यवस्थायें ब्राह्मणों और मनुस्मृति द्वारा
संचालित हैं ?
जेनुयाई प्रदर्शन युद्धविहीन समाज व्यवस्था के
पाखण्ड द्वारा स्वयं को शांति और अहिंसा के दूत के रूप में प्रतिष्ठित कर
लोकसमर्थन जुटाने के छद्माचरण में विश्वास रखता है किंतु भारत में होने वाली आतंकी
घटनाओं पर मौन रहता है ।
3
भारतीय
राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ – सच तो
यह है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी भारतीयों के मन और कर्म में राष्ट्र,
नागरिक स्वतंत्रता, नागरिक कर्तव्य और मौलिक अधिकार जैसे विषयों पर किसी स्पष्ट
धारणा और वांछित आचरण का प्रायः अभाव ही रहा है । चीन, रूस और ज़र्मनी के आदर्शों
से अनुप्राणित भारतीय वामपंथ भारत के विरुद्ध खड़ा दिखायी दे तो इसमें आश्चर्य नहीं
होना चाहिये । हम सब अपने आदर्श को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, अपने आदर्श के
भौतिक स्वरूप को अपनाना चाहते हैं और अपने आदर्श के प्रतीकों को पूजना चाहते हैं ।
तब एक साधारण सा प्रश्न उठता है कि भारतीय वामपंथ किसे पूजना चाहेगा, राम-कृष्ण को
या कार्लमार्क्स, लेनिन और माओ को ? उसका प्रेम किस धरती के लिये होगा, राम-कृष्ण
की धरती या मार्क्स, लेनिन और माओ की धरती के लिये ? ऐसे लोगों के लिये नागरिक
स्वतंत्रता के अर्थ और उद्देश्य वे नहीं हो सकते जो एक भारतीय राष्ट्रवादी के लिये
होंगे । उनकी नागरिक स्वतंत्रता भारती मान्यताओं के विरुद्ध और वर्जनाओं के पक्ष
में उतावली दिखायी देती है । वे विवाह के विरुद्ध लिव इन रिलेशनशिप के पक्ष में और
प्राकृतिक लैंगिक आचरण के विरुद्ध समलैंगिक सम्बन्धों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने
के पक्ष में उत्पात करते दिखायी देते हैं । वे भारत के लिये मुर्दाबाद के और
पाकिस्तान के लिये ज़िन्दाबाद के पक्ष में दिखायी देते हैं । वे भारतीय आराधना
स्थलों को पाखण्ड का प्रतीक और भारत की धरती पर विदेशी आराधना स्थलों को आज़ादी के
सम्मान के प्रतीकरूप में स्थापित करते हैं । वे भारतीय वेशभूषा को दकियानूस किंतु
अरबी वेशभूषा को पूज्य और व्यावहारिक मानते हैं । वामपंथ की दृष्टि में स्वतंत्रता
का उद्देश्य भारतीयता को पूरी
तरह समाप्त करने देने की “आज़ादी” से है ।
जेनुयाई
दृष्टि में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरंकुश आचरण और उच्छ्रंखलता को स्पर्श करती
है । उनकी दृष्टि में “भारतीय राष्ट्रवाद” भाजपा द्वारा किया जाने वाला एक ऐसा
आपराधिक कृत्य है जिसका हर स्थिति में कड़ा विरोध होना ही चाहिये ।
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