धर्म के
सन्दर्भ में बात करें तो पायेंगे कि मनुष्य का आचरण या तो धर्मसम्मत होगा या फिर
धर्मविरुद्ध । आचरण को लेकर होने वाले विवाद धर्म और अधर्म के मध्य होते हैं ।
धर्म स्वयं में अविवादित है । धर्म के नाम पर किये जाने वाले विवाद भी “धर्मों” के
बीच नहीं बल्कि धर्म और अधर्म के बीच ही होते हैं । धर्म एक है, अधर्म भी एक है इसलिये “विविध धर्मों” जैसे शब्द
तात्विक न होकर लौकिक और राजनैतिक हुआ करते हैं । यह उसी तरह है जैसे प्रकाश का
होना या न होना । फ़ोटॉन में भेद-उपभेद नहीं होते । धर्म में भी भेद-उपभेद नहीं
होते, हो ही नहीं सकते । जो प्रकाश और धर्म में भेद-उपभेद देख पाते हैं वे प्रकाश
और धर्म को नहीं बल्कि अंधकार और अधर्म को देख पाते हैं ।
मनुष्य
के लिये मानवता से बड़ा धर्म और कुछ हो ही नहीं सकता । जिस आचरण में मानवता न हो वह
धर्म सम्मत नहीं हो सकता । सच्चे धर्म की बात करें तो धर्म को किसी विशेषण की
आवश्यकता नहीं होती । सच्चा धर्म सबका होता है, वह न तो केवल तुम्हारा है और न
केवल हमारा इसलिये धर्म को कोई नाम न दो । धर्म आचरण है, धर्म करुणा है, धर्म
संवेदना है, धर्म प्रेम है... और प्रेम का कोई नाम नहीं होता । प्राचीन भारत में
धर्म की सनातनता को देखते हुये सत्-आचरण को सनातन कहा गया । यह किसी धर्म का नाम
नहीं, धर्म का गुण है । बाह्य आक्रमणकारियों और विघटनकारियों ने इसे एक विभेदक नाम
दे दिया – “हिन्दू धर्म” ।
उनके पास विभेदक दृष्टि थी, उनके पास
विभेदक नाम थे । उनके पास इस्लाम था, उनके पास क्राइस्ट था । धर्म के सनातन तत्व
को जान लेने के बाद वह क्या था जिसे जानना शेष था ?
सनातन
के पश्चात् प्रतिलोमाचरण और अ-सनातन के अतिरिक्त शेष और क्या हो सकता है ? आज हमें
हिंदू-इस्लाम या क्राइस्ट धर्म की नहीं बल्कि केवल और केवल मानव धर्म की आवश्यकता
है । यही एक है जिसे विश्व मानव धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किये जाने की आवश्यकता
है ।
हम भिन्न
धर्म सूचक नाम विशेषों को प्रतिबन्धित किये जाने के पक्ष में हैं । भिन्न धर्मों
का विभेदकतत्व एक सीमित “वाद” या धार्मिक “कट्टरता” को जन्म देता है । विभेदकत्व
का यह स्वाभाविक परिणाम है जो अवश्यम्भावी है । नाम विशेष वाले धर्मों को लेकर
होने वाले विवादों और युद्धों में न जाने कितनी बार रक्त बहता रहा है और न जाने
कितनी सभ्यतायें नष्ट होती रही हैं । जहाँ हिंसा और क्रूरता हो वहाँ धर्म नहीं
“अधर्म” होता है ।
“धर्म निरपेक्षता” जैसी भ्रामक अवधारणायें हमें
एक ऐसे बन्द रणक्षेत्र की ओर ढकेलती हैं जहाँ विवाद और युद्ध अवश्यम्भावी हैं । इस
अवधारणा का लोक कल्याण से कोई प्रयोजन नहीं होता, यह एक शुद्ध राजनैतिक अवधारणा है
जिसका उद्देश्य कुछ लोगों के राजनैतिक हितों का संरक्षण करना ही है । इसलिये हम
विभेदकारी धार्मिक पहचानों को भी समाप्त कर दिये जाने के पक्ष में हैं । मानवता की
रक्षा के लिये यह आवश्यक है । धर्म के नाम पर हो रहे विवादों और अतिवादों में
धधकती दुनिया को बचाने के लिये यही एक अंतिम उपाय बचा है ।
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति स्वर्गीय बटुकेश्वर दत्त जी की 51वीं पुण्यतिथि
जवाब देंहटाएंऔर ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
आभार !
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