सोमवार, 29 जून 2020

रिसर्च मेथॉडोलॉज़ी ऑफ़ इण्डिया व्हाया सात समंदर पार

तत्वज्ञान - इण्डियन रिसर्च मेथॉडोलॉजी पूरी तरह विदेशी मानकों एवं पद्धतियों पर आधारित एक ऐसा आयातित ज्ञान है जो दूध दे रही बकरी को तब तक बकरी नहीं मानता जब तक कि उसके डी.एन. की जाँच न हो जाय । बकरी के आइडेण्टीफ़िकेशन का एकमात्र साइंटिफ़िक तरीका उसकी हत्या करके डी.एन.ए. की जाँच करने, रिसर्च पेपर तैयार करने, और फिर जाँच के निष्कर्ष इण्टरनेशनल ज़र्नल में  प्रकाशित करवाने से ही सिद्ध होता है ।

टिप्पणी - भारत सरकार को हमारी सलाह है कि स्कूल में दाख़िला लेने वाले हर बच्चे और उसके माँ-बाप का डी.एन.ए. टेस्ट होना ही चाहिये । आख़िर यह कैसे पता लगेगा कि दाख़िला लेने वाले बच्चे का बाप वही बंदा है जिसका नाम लिखवाया जा रहा है ? विज्ञान और क़ानून सबूतों को मानते हैं, सुनी-सुनायी बातों को नहीं ।

तत्वज्ञान पर टिप्पणी - हम तो कहते हैं कि हल्दी, धनिया, काली मिर्च, लौंग, चक्रफूल, दालचीनी, सोंठ और चंद्रशूर जैसे मसालों के खाने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा देना चाहिये । ये सभी अनसाइंटिफ़िक और नीम-हक़ीम ख़तरा-ए-जान वाली चीजें हैं जिनसे स्वास्थ्य को गम्भीर ख़तरा हो सकता है । सतयुग से अभी तक देवताओं, ऋषियों-मुनियों और गाँव वालों ने कभी इस बात का कोई साइंटिफ़िक प्रमाण नहीं दिया है कि ये मसाले सेहत के लिए लाभकारी हैं या यह कि इनके स्तेमाल से कैंसर नहीं होता है । हो सकता है कि इन्हें खाने से कैंसर, मधुमेह और कार्डियोवैस्कुलर जैसी जानलेवा बीमारियाँ होती हों ।

अनसाइंटिफ़िक होने के कारण चक्रफूल एक ज़हरीला मसाला हो सकता है ।

कॉग्नीटिव डिस्कशन - क्या साइंटिफ़िक है और क्या अनसाइंटिफ़िक यह तय करने का दायित्व भारतीयों ने सात समंदर पार के लोगों को सौंप दिया है । गोया यज्ञोपवीत और सप्तपदी के विधान को साइंटिफ़िक बनाने के लिए सात समंदर पार एक चर्च में प्रयोग किए जायेंगे, रिसर्च पेपर पब्लिश किया जायेगा उसके बाद ही भारत में ये संस्कार किए जा सकेंगे, यही साइंटिफ़िक है ।

दुनिया को पता है कि लौंग, चक्रफूल, काली मिर्च और सोंठ जैसे मसाले एंटीऑक्सीडेण्ट्स होते हैं जो हर प्रकार की पैथोलॉज़िकल प्रोसेज़ को रोकते हैं या स्लगिश करते हैं । दुनिया को यह भी पता है कि इनके एण्टीवायरल इफ़ेक्ट्स पर सात समंदर पार के देशों में शोध किए जाते रहे हैं जिनके आधार पर चक्रफूल के एक्टिव प्रिंसिपल को आइसोलेट करके स्वाइन फ़्लू के लिए एंटीवायरल दवा टैमीफ़्लू बनायी जा चुकी है किंतु किसी भारतीय मसाले का एंटीवायरल होना ही साइंटिफ़िक नहीं माना जा सकता जब तक कि उसे टैमीफ़्लू में कन्वर्ट न कर दिया जाय । अतः स्वाइन फ़्लू के केस में इम्पोर्टेड टैमीफ़्लू ही खाना साइंटिफ़िक है, चक्रफूल नहीं वरना देश की सेहत को गम्भीर ख़तरा हो जायेगा । कोरोना वायरस के केस में एण्टीवायरल और एण्टीबैक्टीरियल दवायें ही साइंटिफ़िक हैं, एण्टीवायरल दवाओं की यहाँ कोई भूमिका नहीं होती, यही साइंटिफ़िक है और यही तत्वज्ञान है । इसे यूँ समझा जा सकता है

उदाहरण नम्बर 1- पानी पीने से यदि रामलाल की प्यास बुझती है तो यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि पानी से श्यामलाल की भी प्यास बुझ सकती है । रामलाल और श्यामलाल दो अलग व्यक्ति हैं, दोनों की बॉडी अलग है, दोनों के कपड़े अलग हैं, दोनों के माँ-बाप अलग हैं, दोनों के गाँव अलग हैं, एक कान्ग्रेसशासित राज्य का निवासी है दूसरा भाजपाशासित राज्य का । इससे सिद्ध होता है कि पानी से हर मनुष्य की प्यास नहीं बुझ सकती ।

उदाहरण नम्बर 2- गिनी पिग पर किए गए प्रयोगों के निष्कर्ष मनुष्य के लिए साइंटिफ़िक होते हैं लेकिन हजारों साल से परम्परा में प्रचलित मसालों का प्रयोग मनुष्य के लिए अनसाइंटिफ़िक है ।

उदाहरण नम्बर 3- जो मैं और मेरे गैंग के लोग कहते हैं वही साइटिफ़िक होता है, जो आप लोग कहते हैं वह ट्रेडीशनल होने से अनसाइंटिफ़िक होता है ।

उदाहरण नम्बर 4- मेरी और मेरे गैंग के लोगों की हाइपोथीसिस साइंटिफ़िक है, आप लोगों की हाइपोथीसिस ट्रेडीशनल होने से अनसाइंटिफ़िक है ।

5- रोज रोज पैरामीटर्स और सिद्धांतों को बदल देना साइंटिफ़िक है किंतु जो त्रिकाल सत्य है वह अनसाइंटिफ़िक है । 

भारत में सब कुछ अनसाइंटिफ़िक होता है । एक तो भारतीयों को रोटी, दाल, चावल, सब्जी, गरम मसाले, पानी और दूध जैसी ट्रेडीशनल चीजों के एडिबल और लीथल डोज़ का ही पता नहीं है । जिसका लीथल डोज़ ही अभी तक निर्धारित नहीं हो सका उसे साइंटिफ़िक कैसे मान लिया जाय ?

कोई भी रिसर्च करने से पहले गंगू तेली और मुसद्दी लाला से परमीशन लेना अनिवार्य है । ऐसी परमीशन ही साइंटिफ़िक होती है वरना सब कुछ ट्रेडीशनल होने से अनसाइंटिफ़िक हो जाता है । गन्ने के रस से गुड़ बनाने के लिए आज तक कोई रिसर्च नहीं हुयी है । जिस किसी बंदे ने सबसे पहले गुड़ बनाया होगा उसने गंगू तेली और मुसद्दी लाला से परमीशन नहीं ली थी तो आप ही बताइए कि हम उसके बनाये गुड़ को साइंटिफ़िक कैसे मान लें ? आख़िर नियम क़ानून क़ायदा भी तो कोई  चीज होती है । 

यह विज्ञान का युग है । विज्ञान से अधिक ताक़तवर और विश्वसनीय कुछ नहीं होता जो बम बना कर एक क्षण मंन दुनिया को तबाह कर सकता है ।

चीन हमारे गुरु की भूमिका में है

भारत के हर उस नागरिक को जो अपनी मातृभूमि और अपनी सांस्कृतिक विरासत से प्रेम करते हैं, गुरु की भूमिका में होने के कारण चीन के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये ।

सद्गुरु ने कहा – आत्मनिर्भर बनो, हम नहीं बने, चीन पर निर्भर होते चले गये । आज हम महत्वपूर्ण तकनीकी संसाधनों के लिए भी चीन पर निर्भर हो गये हैं जिससे भारत की सुरक्षा ख़तरे में पड़ गयी है । क्रूड मेडिसिन कम्पोनेंट्स और आई.टी. का क्षेत्र हो या न्यूक्लियर रिएक्टर का, नीम बेहोशी की हालत में धीरे-धीरे इन सबके लिए भी हम चीन पर निर्भर होते चले गए और आज कई मामलों में चीन के बिना स्वयं को पैरालाइज़्ड अनुभव करने लगे हैं ।

सद्गुरु ने कहा – धोखेबाज चीन पर कभी भरोसा मत करना, हम नहीं माने, और ज़रूरत से ज़्यादा चीन पर भरोसा करते रहे । आज चीन अपने राक्षसी स्वरूप में प्रकट होकर दहशत फैलाने में क़ामयाब हो गया है ।

सद्गुरु ने कहा – भारत के चारों कोनों पर स्थापित सनातनधर्म के चार पीठों की पुनः सुदृढ़ता व सक्रियता के साथ-साथ सीमावर्ती राज्यों से शेष भारत के सम्बंधों को घनिष्ठ बनाने के लिए सक्रिय योजनाएँ प्रारम्भ की जानी चाहिये, हमने कुछ नहीं किया बल्कि सीमावर्ती राज्यों से निरंतर दूरियाँ बनाते रहे जिससे हमारी राष्ट्रीय एकता के सूत्र दुर्बल होते रहे ।

सद्गुरु ने कहा – नेपाल, भूटान, वियतनाम और श्रीलंका के साथ सम्बंधों को और भी सुदृढ़ किया जाना चाहिए, हमने यह भी नहीं किया बल्कि हमारे सम्बंध और भी तनावपूर्ण होते चले गए जिससे आज नेपाल और भूटान भी हमें आँख दिखाने लगे हैं ।

सद्गुरु ने कहा – चीनी सीमा के पास उत्तराखण्ड के तीन हजार गाँव पूरी तरह निर्जन हो चुके हैं, उन्हें फिर से बसाने के लिए गम्भीर पहल की जानी चाहिये जिससे चीनी सीना की घुसपैठ पर नज़र रखी जा सके, हमने कोई पहल नहीं की बल्कि सीमावर्ती अन्य गाँवों से भी निरंतर पलायन होता रहा । चीनियों ने इसका लाभ उठाया और भारत चीन सीमा के पास छह सौ से अधिक नए गाँवों को जन्म देकर भारत की सुरक्षा और सम्प्रभुता के लिए गम्भीर ख़तरा उत्पन्न कर दिया, हम बुड़बक की तरह देखते रह गए ।

मोतीहारी वाले मिसिर जी इस बात से बहुत खिन्न हैं कि हमने सद्गुरु की कभी कोई बात नहीं मानी और चीन के लिए स्वयं को एक बाजार बनाकर निरंतर पेश करते रहने में ही ख़ुश होते रहे ।

मिसिर जी कहते हैं – “शिक्षा देने का अपना-अपना तरीका होता है । प्रेम से बोलने वाले सद्गुरु की बात हमने कभी नहीं मानी इसलिए अब चीन ने अपने तरीके से हमें समझाना शुरू किया है । चीन ने भारत की युवा पीढ़ी को उन सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होने के लिए डाँट लगाते हुये समझाने का प्रयास किया है, जिनमें चीन के बिना भारत स्वयं को पैरालाइज़्ड अनुभव कर रहा है” ।

सचमुच, हमें अपनी सीमाएँ सुरक्षित रखने के लिए उत्तरांचल के निर्जन हो चुके गाँवों को फिर से बसाने की प्रेरणा देने के लिए, आई.टी. और अन्य तकनीकी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होने की प्रेरणा देने के लिए, गद्दार चीन पर कभी भरोसा न करने के लिए, उत्तरी सीमा पर सदा चौकन्ने रहने की सीख देने के लिए, अपने देशी कुटीर उद्योगों को बढा‌वा देने की विवशता उत्पन्न करने के लिए और अपने ही देश में रोजगार उत्पन्न करने के अवसर उपलब्ध करने की बाध्यता के लिए हमें चीन का कृतज्ञ होना चाहिए ।

जब कोई विद्यार्थी असावधान और अवज्ञाकारी हो तो उसे सद्गुरु की नहीं चीन जैसे दुष्टगुरु की आवश्यकता होती है । मैं सचमुच चीन और चीनी चेयरमैन पिंगपिंग का हृदय से आभारी हूँ । अभी भी अगर हम न चेते तो हमारे विनाश को कोई नहीं रोक सकता । सोमनाथ के मंदिर और नालंदा विश्वविद्यालय की लायब्रेरी का हश्र तो याद है न!               


मंगलवार, 16 जून 2020

आत्महत्या की प्रवृत्ति पर आनुवंशिक प्रभाव...

वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि आत्महत्या की प्रवृत्ति भी आनुवंशिक गुणों से प्रभावित होती है । यह सामान्य प्रक्रिया है कि हर व्यक्ति अपने पूर्वजों के आनुवंशिक गुणों के साथ ही जन्म लेता है और उन्हें अगली पीढ़ी में भी पहुँचाता है ।

मनुष्य की मनोदैहिक रचना में दो प्रकार की प्रकृतियों का आनुपातिक संयोग होता है, एक दैहिक और दूसरी मानसिक । किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व इन्हीं दोनों प्रकृतियों का विशिष्ट योग हुआ करता है ।

किसी व्यक्ति की मानसिक प्रकृति में सत, रज और तम गुणों के आनुपातिक संयोग की भिन्न-भिन्न स्थितियाँ होती हैं जो यह तय करती हैं कि किसी व्यक्ति में आत्महत्या की वृत्ति है या नहीं, है तो उसकी आवृत्ति और तीव्रता कितनी है और विशिष्ट स्थितियों में उसके कार्यरूप में परिणित होने की सम्भावनायें कितनी हैं । चंचल वृत्ति के लोग रजोगुणी होते हैं जो उसे महत्वाकांक्षी भी बनाते हैं और अधीर भी । महत्वाकांक्षाओं के साथ अधीरता का गठजोड़ महत्वाकांक्षाओं को पूरा नहीं होने देता जिसके कारण ऐसे लोग धीरे-धीरे अवसाद से घिरने लगते हैं ।

माइग्रेन की तरह आत्महत्या भी बहुत ख़ास है । माइग्रेन और आत्महत्या की सम्भावनायें जिन लोगों में होती हैं वे आम न होकर कुछ विशिष्ट लोग होते हैं । ऐसे लोगों की कुशाग्रता, हटकर सोचने की क्षमता और कुछ विशिष्ट करने की तीव्र भावना में उनकी मानसिक प्रकृति की झलक मिलती है । ऐसे लोग बहिर्मुखी होने का दिखावा कर सकते हैं किंतु वास्तव में वे होते तो अंतर्मुखी ही हैं । तरलता, शिथिलता और व्यापकता का इनमें प्रायः अभाव देखने को मिलता है इसीलिए ये विकल्प तलाशने में सफल नहीं हो पाते । ये लोग अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीना पसंद करते हैं, समझौता करना या अन्याय के सामने झुकना इन्हें पसंद नहीं होता ।

अब हम यह कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते कि यदि किसी की मौलिक वृत्ति ही सुसाइडल है तो इसके लिए समाज और व्यवस्था को दोषी कैसे ठहराया जा सकता है । बिल्कुल ठहराया जा सकता है । समाज की अपनी शर्तें होती हैं जो लोगों को उनका पालन करने के लिए बाध्य करती हैं । समाज की ये शर्तें उन विकृत लोगों की शर्तें होती हैं जो शेष समाज को अपना दास बनाने के अभ्यस्त हैं । सुसाइडल टेंडेंसी वाले लोगों के स्वाभिमान का समाज की इन शर्तों से टकराव होता है जिसमें समाज की जीत होती है और सुसाइडल टेंडेंसी वाले व्यक्ति की पराजय । इसीलिए मैं आत्महत्या को क्रूर समाज दारा रचित हत्या मानता हूँ जिसमें शिकार को अपना ही क़त्ल करने के लिए बाध्य कर दिया जाता है ।

विचार कीजिये, किसी घर के सभी सदस्यों को ट्युबरकुलोसिस की बीमारी क्यों नहीं होती जबकि जिस घर में टीबी का प्रवेश होता है वहाँ उसके माइकोबैक्टीरियम की समान टाइटर में उपलब्धता होती है किंतु माइकोबैक्टीरियम केवल उसी व्यक्ति को प्रभावित करता है जिसकी रोगप्रतिरोध क्षमता कम होती है, अन्य लोगों को नहीं । प्रथम दृष्ट्या तो लगता है कि इसके लिए प्रभावित व्यक्ति की रोगप्रतिरोध क्षमता का न्यून होना ही रोग होने के लिए उत्तरदायी है । किंतु क्या उस घर की हवा में रोग के मूलकारणभूत उस बैक्टीरिया का उपस्थित होना उत्तरदायी नहीं माना जाना चाहिये ? यदि कोई व्यक्ति सुखी जीवन के लिए जल, वायु, भूमि और अन्न की शुद्धता की अपेक्षा करता है तो इसे गलत कैसे ठहराया जा सकता है !

मैं कोई नया विचार प्रस्तुत नहीं कर रहा हूँ । आत्महत्या पर न जाने कितनी शताब्दियों से चर्चाएँ होती रही हैं, आगे भी होती रहेंगी । दूसरी ओर हमारी समाज व्यवस्था है जो बहुत पहले ही तय कर चुकी है कि परिस्थितियाँ तो ऐसी ही उत्पन्न की जाती रहेंगी जो तुम्हें आत्महत्या के लिए बाध्य करती रहें । सारा दोष मढ़ने के लिए तुम्हारी आत्महत्या की आनुवंशिक प्रवृत्ति का प्रमाण तो है ही ।


सोशियो-पैथोलॉजी ऑफ़ आत्महत्या

क्षणिक आवेश, असुरक्षा की तीव्र भावना, एकांगी सोच, विकल्पों की तलाश में असफलता और निराशा के अतिरिक्त और वे कौन से कारण हैं जो किसी वैज्ञानिक, कलाकार या किसी अधिकारी को आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हैं ?

आत्महत्या को व्यक्तिगत मानसिक विकृति का परिणाम मान लेना इस समस्या के समाधान से इंकार करना है ।

कल्पना कीजिये, किसी ग्रह पर केवल एक व्यक्ति रहता है, क्या वह आत्महत्या कर सकता है! कल्पना कीजिये किसी ग्रह पर समाज जैसी कोई व्यवस्था नहीं है, क्या वहाँ का कोई व्यक्ति आत्महत्या कर सकता है! कल्पना कीजिये किसी ग्रह के लोग अशिक्षित हैं और आदिम जीवन जीने के अभ्यस्त हैं, क्या वहाँ का कोई व्यक्ति आत्महत्या कर सकता है!

मैं आत्महत्या को उस जटिल समाज का कॉम्प्लीकेशन मानता हूँ जो हस्तक्षेपों, वर्जनाओं, स्वार्थों, निर्लज्ज धूर्तताओं और दुष्टताओं से भरा हुआ है । आदिम युग के लोग आपसी युद्ध में किसी की हत्या तो कर सकते हैं किंतु आत्महत्या नहीं कर सकते ।

भारत में किसानों की आत्महत्या रोकने का अभी तक कोई सार्थक समाधान नहीं निकल सका है । फसल उगाने वाले किसान के श्रम का लाभ किसान को न मिलकर उन्हें मिलता है जिनकी फसल के उत्पादन में कोई भूमिका नहीं होती । मैं आज इक्कीसवीं शताब्दी के जून महीने की बात कर रहा हूँ जब कोई व्यापारी किसी किसान से एक रुपये प्रति किलो की दर से टमाटर ख़रीद कर पच्चीस रुपये प्रति किलो की दर से उपभोक्ता को बेचता है, किसान को उसकी लागत भी नहीं मिल पाती, यह है समाज की जटिलता । कोई विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंक लाकर भी केवल अपनी उच्चजाति, जिसके लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता, के कारण प्रतिस्पर्धाओं में अपने लक्ष्य को भेद पाने में असफल रहता है, यह है समाज की जटिलता । एक वैज्ञानिक रात-दिन एक करके कोई शोध करता है किंतु जब वह प्रकाशित होता है, तब शोधकर्ता के नाम के स्थान पर किसी दूसरे व्यक्ति का नाम होता है, यह है समाज की जटिलता । सभ्यता के अहंकार में डूबे असभ्य समाज में दासप्रथा कई रूपों में अपनी जड़ें जमा कर स्थिर हो चुकी है, यह है समाज की जटिलता । और आप कहते हैं कि आत्महत्या एक मनोविकृति है ?

जब आप कहते हैं कि आत्महत्या एक मनोविकृति है तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि आपने आत्महत्या न होने देने का दायित्व भी बड़ी धूर्तता से आत्महत्या करने वाले पर ही थोप दिया और स्वयं हर प्रकार के दायित्व से मुक्ति पा ली है । आत्महत्या व्यक्तिगत निर्णय भले ही हो किंतु वह सामूहिक प्रयासों का एक संगठित परिणाम होता है जिसके लिए जटिल समाज की अन्यायपूर्ण और अमानवीय व्यवस्थायें पूरी तरह उत्तरदायी हुआ करती हैं ।

किसी आत्महत्या की घटना के बाद नकली शोक और नकली चिंताएँ प्रकट करने की रस्म अदायगी के बाद हम आत्महत्या को रोकने की आवश्यकता प्रकट करना कभी नहीं भूलते किंतु इसके ठीक अगले ही क्षण से हम अगला शिकार फाँसने के षड्यंत्रों में जुट जाते हैं ।  

आत्महत्या के मूलकारणों का निवारण किये बिना केवल भाषणों से उसे रोका जाना कैसे सम्भव हो सकेगा भला!

आत्महत्या रोकने के लिए हम दार्शनिक चिंतन और अध्यात्मिक संस्कारों की बात करते हैं । हम प्रारब्ध और पुरुषार्थ का उपदेश देकर हर स्थिति में संतोष करने का परामर्श दे सकते हैं । निश्चित ही आत्महत्या को रोकने का यह बेजोड़ तरीका है जिसमें न हर्र लगती है और न फिटकरी और रंग भी चोखा आ जाता है । किंतु तब यह समाधान पलायन का होगा, पीड़ित व्यक्ति को अपने अधिकारों का परित्याग करना होगा, पीड़ित व्यक्ति को अत्याचारियों के वर्चस्व को स्वीकार करते हुये अपनी पराजय स्वीकार करनी होगी, उसे संगठन की जटिलता के आगे नतमस्तक होना होगा । संक्षेप में कहें तो उसे जटिल समाज की अमानवीय दासता स्वीकार करनी होगी, यानी दासता से मुक्ति के लिए एक और दासता ही स्वीकार करनी होगी । जटिल समाज में दासता का कोई विकल्प नहीं होता ।

हम किसी अकेले उजाले को अँधेरों के साम्राज्य से युद्ध करते हुये आगे बढ़ने का लुभावना उपदेश दे सकते हैं इस बात को छिपाते हुये कि युद्ध में उसकी हत्या भी हो सकती है या फिर आसन्न हत्या के क्षणों में उसे चंद्रशेखर आज़ाद वाला रास्ता भी चुनना पड़ सकता है ।

अध्यात्मिक संस्थाएँ कई दशकों से कहती रही हैं हम सुधरेंगे युग सुधरेगा । किंतु न हम सुधरे न युग सुधरा । विनोबा भावे ने आत्मशासित समाज की कल्पना की, किंतु वह कल्पना भी कभी आकार नहीं ले सकी ! हाँ! अन्ना हजारे बना जा सकता है । समाज की जटिलता समाप्त या न्यूनतम हो या न हो किंतु मैंने प्रयास कियाका संतोष तो मिल ही जायेगा । 

     चलिये, जैसी कि परम्परा रही है अब हम आत्महत्या रोकने का सारा भार अपने शिकार पर ही डाल दें ।  

अ पर्सनल रिमेडी ऑफ़ आत्महत्या

-      दुनिया वहाँ समाप्त नहीं होती जहाँ तुमने उसे समाप्त हुआ मान लिया है । यह केवल तुम्हारा मानना है, वास्तविकता इससे परे है ।

-      विकल्प कभी समाप्त नहीं होते, हमें विकल्पों की तलाश जारी रखनी चाहिये ।

-      हमें अपने सपनों में विविधता और तरलता लानी होगी ।

-      हम नितांत विरोधाभासी परिस्थितियों में जीने के लिए बाध्य हैं । हमें यह स्वीकार करना होगा कि परिस्थितियों को पूरी तरह अनुकूल नहीं बनाया जा सकता ।

-      सपने सजते हैं तो टूटते भी हैं, उनके प्रति अधिक राग रखना कष्टों को आमंत्रित करना है ।

-      हमें उतना ही मिलेगा जितना हमारे हिस्से में है, जो हमारे हिस्से में नहीं है वह हमें कभी नहीं मिलेगा, उसकी चाहत रखने का कोई औचित्य नहीं ।

-      अवसादी को एकांत अच्छा लगता है इसलिए अपने किसी गुमसुम हो गये परिचित को एकांत में न रहने दें और उससे निरंतर निकटता बनाये रखने का प्रयास करते रहें ।

-      मूड डायवर्ट करने के लिए संगीत और आपसी वार्तालाप का सहारा लेना बहुत अच्छा उपाय है ।

-       नई योजनाओं और नए सपनों पर चर्चा करके विकल्प तलाशे जाने चाहिए ।

-      दुनिया जितनी बदसूरत है उससे कहीं अधिक ख़ूबसूरत भी है ।

-      कहीं किसी कोने में कोई ख़ुशी है जो हमारी प्रतीक्षा में है, चलो उस ख़ुशी को खोज लें । 


रविवार, 14 जून 2020

फिर टूटा एक तारा

        हम ठहरे पीपल के पात...

पटना के सुशांत राजपूत चलते-चलते रुक गये, चंचलता थिर हुयी और वर्तमान यात्रा अगले जन्म तक के लिए स्थगित हो गयी । एक जगमगाता तारा टूट कर बिखर गया ।

मिसिर जी ने सुना कि फिर एक तारा टूट गया । पीपल के सारे पत्ते जैसे एक साथ तड़प उठे हों, उनके मुँह से हठात निकला – “ए हो मरदे ! अतना जल्दी रहे तहरा के ?”

मिसिर जी का गला रुँध गया । आगे की बात अधूरी रह गयी । उनके मन मस्तिष्क में एक साथ कई धारायें बह उठीं । सुशांत प्रतिभाशाली था, महत्वाकांक्षी था, जुझारू था । मनुष्य को पुरुषार्थ के लिए और क्या चाहिये !

वह कौन सा रीतापन था सुशांत जिसे हम देख नहीं सके, जिसे तुम भर नहीं सके और इस तरह चल दिए ...रूठकर हम सबसे ।

सुशांत की बहुमुखी प्रतिभा कई प्रश्न छोड़ गयी अपने पीछे ।

कुछ प्रश्नों के उत्तर समुद्र हो जाते हैं, और हम किनारे खड़े होकर यही सोचते रह जाते हैं कि किस बूँद से करे प्रारम्भ ।  

मिसिर जी श्मशान में खड़े हैं, न जाने कितने झंझावातों के साथ, सोचते हुये – कि हम ठहरे पीपल के पात, चंचलता है सौगात, नृत्य नृत्य और नृत्य निरंतर, जीवन का यह सत्य हमारा शिव है और बस यही एक है सुंदर । इस सुंदरता से विरत कहाँ चल दिये तुम सुशांत!

“ए हो मरदे ! अतना जल्दी रहे तहरा के”? - मिसिर जी के भीतर भी एक बदली उठी है घनघोर, हवायें तेज हो गयी हैं और अश्वत्थ के पत्तों की आँखें बरसने लगी हैं ।

चंचल पत्रों की छाँव में अश्वत्थ के नीचे गौतम बोधिसत्व हुये, मन की चंचलता को आवृत्ति मिली, आवृत्ति को स्वीकृति मिली और वे बुद्ध बने । बिहार तब भी यही था बिहार आज भी वही है, बस तुम नहीं हो हमारे आसपास ।

 

ओम शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!!


शनिवार, 13 जून 2020

कोरोना से दो-दो हाथ करने की दौड़ में मॉडर्ना...


रेयर इज़ नॉट रेयर”, बोले तो दुर्लभ को सुलभ बनाने के लिये एक अनोखी राह पर कोरोना को मारने निकल पड़ा है मॉडर्ना ।

कैंसर, हृदयरोग और मधुमेह जैसी बीमारियों के इलाज़ के लिए महँगी दवाइयाँ ख़रीदने और फिर उनके साइड-इफ़ेक्ट्स को झेलने के लिए तैयार रहने के झंझटों से मुक्ति का कोई उपाय हो सकता है क्या ? काश! शरीर के भीतर ही कोई दवा कम्पनी खुल जाती और ज़रूरत के हिसाब से शरीर को समय पर डोज़ भी सप्लाई करती रहती तो दवाइयाँ खाने से भी मुक्ति मिल जाती ।

दुर्लभ को सुलभ बनाने का यह जुझारू और क्रांतिकारी सिद्धांत है नॉरवुड की बायोटेक्नोलॉज़ी प्रयोगशाला के संस्थापक स्टीफ़ेन हॉग और डेरिक रोज़ी का । मोडीफ़ाइड मैसेंज़र आर.एन.ए (ModeRNA) के सहारे एक “नवीन औषधि युग” प्रारम्भ करने की परिकल्पना पर वर्ष 2010 से शोध में जुटे वैज्ञानिकों ने दुनिया भर के लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है । उम्मीदों का दिया कुछ इस तरह जल रहा है कि दस वर्षों की अनवरत असफलता के बाद भी सात सौ कर्मचारियों वाली तीस बिलियन डॉलर की इस कम्पनी के शेयर का मौज़ूदा भाव है 61.54 डॉलर । 

मॉडर्ना प्रयोगशाला के वैज्ञानिक विशेषरूप से आल्टर्ड किये गये आर.एन.ए. को रोगी के शरीर में एक ऐसे एज़ेण्ट के रूप में प्रवेश करवाते हैं जो रोगी के शरीर की कोशिकाओं को एक दवा निर्माण कम्पनी की अतिरिक्त क्षमता प्रदान कर देता है जिससे रोगी के शरीर की कोशिकायें बीमारी से लड़ने के लिए आवश्यक दवा का उपयुक्त मात्रा में निर्माण स्वयं ही करने लगती हैं । सुनने और सोचने में यह परिकल्पना बड़ी अद्भुत लगती है । यदि ऐसा सम्भव हो सका तो दुनिया में औषधियों के एक नये युग की शुरुआत हो जायेगी ।  

विश्वभ्रमण पर निकले कोरोना वायरस को निष्प्रभावी बनाने के लिए मौज़ूदा समय यानी दिनांक 12 जून 2020 तक एक सौ साठ से अधिक टीकों पर दुनिया भर के वैज्ञानिक शोधकार्य में जुटे हुये हैं । मोडीफ़ाइड आर.एन.ए. के संक्षिप्त नाम मॉडर्ना के नाम से विख्यात नॉरवुड की इस बायोटेक्नोलॉज़ी कम्पनी को पीछे करते हुये कोरोना वैक्सीन बनाने की बाजी फ़िलहाल एस्ट्रॉज़ेनेका के हाथ में है । मौके की तलाश में रहने वाले धन्नासेठों ने इन शोधों के लिये अपनी तिजोरियाँ खोल दी हैं । एक से दो साल के भीतर जब इन टीकों के क्लीनिकल ट्रायल पूरे हो जायेंगे तब इन धन्नासेठों की तिजोरियों पर होने लगेगी धनवर्षा ।

कोरोना वायरस का टीका बनाने की दौड़ में अब तक मॉडर्ना के अतिरिक्त एस्ट्रॉज़ेनेका एण्ड ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय, जॉन्सन एण्ड जॉन्सन, फ़ाइज़र एण्ड बायो-एन-टेक, इनोवियो और कैन्सिनो आगे चल रहे हैं ।

मॉडर्ना ने कोरोना वैक्सीन बनाने के लिए किसी वायरस का सहारा न लेकर एक कृत्रिम आर.एन.ए. mRNA-1273”  पर अपना ध्यान केंद्रित किया है वहीं एस्ट्रॉज़ेनेका ने अपने वैक्सीन का माध्यम बनाया है सामान्य सर्दी-ज़ुख़ाम करने वाले एडीनोवायरस को ।  University of Oxford and AstraZeneca ने चिम्पांज़ी में पाये जाने वाले एडीनोवायरस के एक कमज़ोर से आर.एन.ए. का स्तेमाल किया है । वैक्सीन बनाने के लिए स्तेमाल किये जाने वाले माइक्रॉब के कमज़ोर या एटेनुएटेड रूपों अथवा ज़ेनेटिकली मोडीफ़ाइड रूपों का ही स्तेमाल किये जाने की परम्परा रही है । ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एण्टी कोरोना वैक्सीन में कोरोना स्पाइक प्रोटीन के जीन्स मिला दिये हैं जिससे यह वैक्सीन मनुष्य के शरीर में पहुँचते ही कोरोना की खाल ओढ़ लेती है । हमारी कोशिकाओं को कोरोना होने का भ्रम होता है और वे एण्टीबॉड़ी बनाना शुरू कर देती हैं । यह पूरी तरह से बायोलॉज़िकल डायलिमा यानी धोखे में रखकर किये गये गुरिल्ला युद्ध की तरह होता है ।

कोरोना वैक्सीन बनाने की दौड़ में शामिल Pfizer and BioNTech कम्पनी भी mRNA का ही स्तेमाल कर रही है । यह कम्पनी कोरोना की चार वैक्सीन्स पर एक साथ काम कर रही है ।

Inovio कम्पनी के वैज्ञानिकों ने अपनी कोरोना वैक्सीन INO-4800 के निर्माण में RNA के स्थान पर DNA का स्तेमाल करना उचित समझा है वहीं चीन के तियानजिन स्थित CanSino कम्पनी के वैज्ञानिकों ने जेनेटिकली मोडीफ़ाइड एडीनोवायरस Ad5 का उपयोग किया है ।

इस दौड़ की पाँचवी कम्पनी Johnson & Johnson ने अपनी वैक्सीन में कोरोना वायरस के जींस को भी सम्मिलित किया है ।

क्लीनिकल ट्रायल के बाद, शायद 2021 या 2022 में हमें कोरोना की प्रतीक्षित वैक्सीन मिल जायेगी ।

हमने इस वैज्ञानिक दौड़ के बारे में मोतीहारी वाले मिसिर जी की प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उनका उत्तर कुछ इस तरह था – काँटे को काँटा निकालता है । लोग कोरोना को कोरोना से ही मारने की जुगत में लगे हैं । नकली कोरोना के वेष में हमारी ही ताक़त है जो असली कोरोना को मार देगी । यहाँ तक तो ठीक है लेकिन जब कोरोना से ही कोरोना को मारना है तो मिलियन डॉलर्स वाली वैक्सीन की भला क्या ज़रूरत ? कोरोना तो यूँ ही हमारे सम्पर्क में आ कर एसिम्प्टोमैटिक हो रहा है । नेचुरल इनोकुलेशन की जगह महँगे आर्टीफ़िशियल इनोकुलेशन का धंधा आज तक मेरी समझ में नहीं आया । आप हमें कोरोना से दूर रहने के लिए मास्क लगाने और दूरी बनाकर रहने को कहते हैं और ख़ुद कोरोना को हमारे शरीर में इनोकुलेट करने के लिए परेशान हो रहे हैं, क्या गज़ब जलेबी विज्ञान है ।

गुरुवार, 11 जून 2020

धृतराष्ट्रों के देश में हिंदू संहार...


इस सप्ताह की दो दुःखद घटनाएँ हैं । हिंदुस्तान की कश्मीर घाटी में एक मात्र शेष बचे कश्मीरी ब्राह्मण अजय पंडित की हत्या कर दी गयी । अस्सी के दशक से प्रारम्भ हुए कश्मीरी ब्राह्मणों के सामूहिक जनसंहार की शायद यह पूर्णाहुति है घाटी में अब कोई ब्राह्मण नहीं बचा । देश के बुद्धिजीवी ख़ुश हैं और इण्डिया का राजा भय एवं सत्ता के मोह में ख़ामोश है ।

दूसरी घटना मेवात में लम्बे समय से चली आ रही घटनाओं की ताजा जानकारी है, ...कि मेवात के एक सौ तीन गाँव पूरी तरह से हिंदूविहीन कर दिए गए हैं जबकि अन्य गाँवों में गज़वा-ए-हिंद का यह सिलसिला अभी भी चालू है । पाकिस्तान में हिंदुओं द्वारा ऐसी घटनाओं की कल्पना भी नहीं की जा सकती किंतु भारत में मुसलमानों द्वारा ऐसी घटनाएँ आज़ादी से पहले भी होती थीं, आज भी होती हैं ।

मेवात के गाँवों में हिंदू लड़कियों के साथ होने वाले यौनापराधों, हिंदू पुरुषों के उत्पीड़न और हिंदुओं को बलात् मुसलमान बनाने की निर्बाध घटनाओं से इण्डिया के बुद्धिजीवी ख़ुश हैं और राजा धृतराष्ट्र ने अपने कानों को भी बंद कर लिया है ।

इण्डिया का धृतराष्टृ देखता नहीं है, सुनता भी नहीं है केवल बोलता है ।

सरकार पर भरोसा नहीं था इसलिए मुसलमानों से अपनी रक्षा के लिए हिंदुओं ने कई संगठन बना लिए ।
कलियुगी संगठनों का सत्य यह है कि संगठन है तो राजनीति भी होगी, राजनीति होगी तो सत्य की हत्या भी होगी । हिंदुस्तान में सत्य की हत्या हो रही है, कंस ने भारत को कारागार में डाल दिया है और इण्डिया ख़ुशी में रोज ज़श्न मना रहा है ।

हम महान आर्यों के निकृष्टतम और धूर्ततम वंशज हैं ।

...इस अप्रिय सत्य का उद्घाटन करने के लिए टीवी चैनल न्यूज़ नेशन का आभार !  

सोशल ट्रांसमिशन...


-      टमाटर बीस रुपए बीस रुपए बीस रुपए...करेला दस रुपए दस रुपए दस रुपए ...
-      सब्जी मण्डी में दुकानदार पूरी ताक़त लगा के चिल्ला रहे हैं, ड्रॉप्लेट्स की शॉवरिंग सब्जियों पर भी हो रही है और सब्जी ख़रीदने वालों पर भी । सब्जी वालों को पूरा यक़ीन है कि “चिल्लायबें से ड्रॉपलेट इंफ़ेक्सन कभऊँ नइ होत हैगो” ।
-      सरकारी हुकुम मास्क लगाने का है । चिल्लाते समय मास्क लगाने से परेशानी होती है और यूँ भी बिना मास्क लगाए चिल्ला कर सब्जी बेचना मना है ऐसा कोई हुकुम तो है नहीं इसलिए सब्जी तो इसी तरह बेची जायेगी । लॉक डाउन खुल गया है, धंधे चालू हो गये हैं, ग्राहक खींचने के लिए चिल्लाना ज़रूरी है । लॉक डाउन खोला ही इसलिए गया है ताकि चिल्ला-चिल्ला कर धंधा किया जा सके । इकोनॉमी का सवाल है, धंधा तो करना होगा ।
-      लॉक डाउन खुल गइल बा, पटना जाय वाला गड़िया निज़ामुद्दीन टेसन से खुले वाला है । सरकार आ परसासन के कुल भरोसा बा के मज़दूर लोग रेल डब्बा मं दू-दू मीटर के दुरिया बना के पटना तक जात्रा करिहन स एह से चिंता के कवनो बात नइ खे, सोसल ट्रांसमिसन होय के त सवालय नइ खे होत ।  
-      “जागते रहो” का सिद्धांत अपने दायित्वों को हस्तांतरित करते हुये भरोसा टूटने तक की यात्रा परम्परा को स्थापित करता है । सोये हुये लोगों को विश्वास है कि पहरेदार के रहते कोई चोर नहीं आयेगा इसलिए वे घोड़े बेचकर सोते रहते हैं । पहरेदार को विश्वास है कि “जागते रहो” सुनकर सोये हुये लोग जाग जायेंगे और चोरी नहीं होने देंगे । चोर को विश्वास है कि यही तो चोर की असली परीक्षा है जिसे हर हाल में उत्तीर्ण करना ही चोर का पुरुषार्थ है ।
-      सरकारी प्रचारतंत्र चालू आहे, दिल्ली की सड़कों पर भीड़ है, डरे हुए लोग घरों में हैं, निर्भीक लोग घर के बाहर हैं । जो डर गया वो मर गया इसलिए डरना नहीं । टीवी वाले दिन भर गज़ब भूमिकायें बनाते रहते हैं, लगता है जैसे कि टाइटेनिक की तरह देश चिंता के सागर में डूबा जा रहा है । टीवी पर ज़िरह हो रही है, कोरोना का सोशल ट्रांसमिशन चालू हो गया है, ….नहीं अभी नहीं चालू हुआ पर होने वाला है ।
-      अरे काहे को उल्लू बना रहे हो  भाई! एम्स का डॉक्टर बोला है कि चालू हो गया तो बस चालू हो गया ।
-      यार अज़ीब ज़िद्दी आदमी हो तुम भी, जब कह दिया कि अभी नहीं चालू हुआ तो बस नहीं चालू हुआ, जब तक डबलूएचओ भैया नहीं कहेंगे तब तक सरकार कैसे कह दे कि चालू हो गया और जब तक सरकार नहीं कहती तब तक नहीं माना जायेगा कि चालू हो गया है । कोरोना ससुरे की ऐसी कम तैसी जरा करके दिखाए तो सोशल ट्रांसमिशन बिना सरकारी हुकुम के, स्साले का बाजा न बजा दिया तो कहना ।   
-      मिठायी वाला जिन हाथों से नोट लेता है उन्हीं हाथों से मिठायी तौलता है । दस्ताने पहनकर या चिमटे से मिठायी उठाने का कोई हुकुम नहीं है । मोतीहारी वाले मिसिर जी कोई सरकार नहीं हैं जो उनकी बात मानना ज़रूरी है ।
-      जो लोग संविधान को नहीं मानते, सरकार को नहीं मानते वे लोग मिसिर जी की बात क्यों मानेंगे भला ! मिसिर जी को अपनी बात मनवानी ही है तो पहले चुनाव लड़ें, सरकार बनें तब हुकुम चलायें, नहीं तो जायँ सीधे भाड़ में ।