वैज्ञानिकों
ने पता लगाया है कि आत्महत्या की प्रवृत्ति भी आनुवंशिक गुणों से प्रभावित होती है
। यह सामान्य प्रक्रिया है कि हर व्यक्ति अपने पूर्वजों के आनुवंशिक गुणों के साथ
ही जन्म लेता है और उन्हें अगली पीढ़ी में भी पहुँचाता है ।
मनुष्य की
मनोदैहिक रचना में दो प्रकार की प्रकृतियों का आनुपातिक संयोग होता है, एक
दैहिक और दूसरी मानसिक । किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व इन्हीं दोनों प्रकृतियों
का विशिष्ट योग हुआ करता है ।
किसी
व्यक्ति की मानसिक प्रकृति में सत, रज और तम गुणों के आनुपातिक
संयोग की भिन्न-भिन्न स्थितियाँ होती हैं जो यह तय करती हैं कि किसी व्यक्ति में
आत्महत्या की वृत्ति है या नहीं, है तो उसकी आवृत्ति और तीव्रता
कितनी है और विशिष्ट स्थितियों में उसके कार्यरूप में परिणित होने की सम्भावनायें
कितनी हैं । चंचल वृत्ति के लोग रजोगुणी होते हैं जो उसे महत्वाकांक्षी भी बनाते हैं
और अधीर भी । महत्वाकांक्षाओं के साथ अधीरता का गठजोड़ महत्वाकांक्षाओं को पूरा नहीं
होने देता जिसके कारण ऐसे लोग धीरे-धीरे अवसाद से घिरने लगते हैं ।
माइग्रेन
की तरह आत्महत्या भी बहुत ख़ास है । माइग्रेन और आत्महत्या की सम्भावनायें जिन
लोगों में होती हैं वे आम न होकर कुछ विशिष्ट लोग होते हैं । ऐसे लोगों की
कुशाग्रता, हटकर सोचने की क्षमता और कुछ विशिष्ट करने की तीव्र भावना में उनकी मानसिक प्रकृति की
झलक मिलती है । ऐसे लोग बहिर्मुखी होने का दिखावा कर सकते हैं किंतु वास्तव में वे
होते तो अंतर्मुखी ही हैं । तरलता, शिथिलता और व्यापकता का इनमें
प्रायः अभाव देखने को मिलता है इसीलिए ये विकल्प तलाशने में सफल नहीं हो पाते । ये
लोग अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीना पसंद करते हैं, समझौता करना
या अन्याय के सामने झुकना इन्हें पसंद नहीं होता ।
अब हम यह
कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते कि यदि किसी की मौलिक वृत्ति ही सुसाइडल है तो इसके
लिए समाज और व्यवस्था को दोषी कैसे ठहराया जा सकता है । बिल्कुल ठहराया जा सकता है
। समाज की अपनी शर्तें होती हैं जो लोगों को उनका पालन करने के लिए बाध्य करती हैं
। समाज की ये शर्तें उन विकृत लोगों की शर्तें होती हैं जो शेष समाज को अपना दास बनाने
के अभ्यस्त हैं । सुसाइडल टेंडेंसी वाले लोगों के स्वाभिमान का समाज की इन शर्तों से
टकराव होता है जिसमें समाज की जीत होती है और सुसाइडल टेंडेंसी वाले व्यक्ति की पराजय
। इसीलिए मैं आत्महत्या को क्रूर समाज दारा रचित हत्या मानता हूँ जिसमें शिकार को अपना
ही क़त्ल करने के लिए बाध्य कर दिया जाता है ।
विचार कीजिये, किसी घर
के सभी सदस्यों को ट्युबरकुलोसिस की बीमारी क्यों नहीं होती जबकि जिस घर में टीबी का
प्रवेश होता है वहाँ उसके माइकोबैक्टीरियम की समान टाइटर में उपलब्धता होती है किंतु
माइकोबैक्टीरियम केवल उसी व्यक्ति को प्रभावित करता है जिसकी रोगप्रतिरोध क्षमता कम
होती है, अन्य लोगों को नहीं । प्रथम दृष्ट्या तो लगता है कि
इसके लिए प्रभावित व्यक्ति की रोगप्रतिरोध क्षमता का न्यून होना ही रोग होने के लिए
उत्तरदायी है । किंतु क्या उस घर की हवा में रोग के मूलकारणभूत उस बैक्टीरिया का उपस्थित
होना उत्तरदायी नहीं माना जाना चाहिये ? यदि कोई व्यक्ति सुखी
जीवन के लिए जल, वायु, भूमि और अन्न की
शुद्धता की अपेक्षा करता है तो इसे गलत कैसे ठहराया जा सकता है !
मैं कोई
नया विचार प्रस्तुत नहीं कर रहा हूँ । आत्महत्या पर न जाने कितनी शताब्दियों से चर्चाएँ
होती रही हैं, आगे भी होती रहेंगी । दूसरी ओर हमारी समाज व्यवस्था है जो बहुत पहले ही तय
कर चुकी है कि परिस्थितियाँ तो ऐसी ही उत्पन्न की जाती रहेंगी जो तुम्हें आत्महत्या
के लिए बाध्य करती रहें । सारा दोष मढ़ने के लिए तुम्हारी आत्महत्या की आनुवंशिक प्रवृत्ति
का प्रमाण तो है ही ।
जो भी है पहला दृष्टिकोण रोग हो और उसके के हिसाब से इलाज तो होना ही चाहिये। भावनात्मक पहलू लेकर उसे कायरता से जोड़ देना कहाँ तक सही है?
जवाब देंहटाएंसही कह रहे हैं किंतु चिकित्सा विज्ञान की अपनी सीमायें हैं । 1- आनुवंशिक रोगों की चिकित्सा सम्भव नहीं , उसके लिए प्रबंधन किया जा सकता है यथा - हीमोग्लोबिनोपैथी । 2- कई मामलों में रोग की चिकित्सा की अपेक्षा रोगी की चिकित्सा अपेक्षित होती है । चिकित्सा की दृष्टि से सुशांत के मामले में प्रबंधन और रोगी की चिकित्सा दोनों ही अभिप्रेत होनी चाहिये थीं ।
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