शनिवार, 13 जून 2020

कोरोना से दो-दो हाथ करने की दौड़ में मॉडर्ना...


रेयर इज़ नॉट रेयर”, बोले तो दुर्लभ को सुलभ बनाने के लिये एक अनोखी राह पर कोरोना को मारने निकल पड़ा है मॉडर्ना ।

कैंसर, हृदयरोग और मधुमेह जैसी बीमारियों के इलाज़ के लिए महँगी दवाइयाँ ख़रीदने और फिर उनके साइड-इफ़ेक्ट्स को झेलने के लिए तैयार रहने के झंझटों से मुक्ति का कोई उपाय हो सकता है क्या ? काश! शरीर के भीतर ही कोई दवा कम्पनी खुल जाती और ज़रूरत के हिसाब से शरीर को समय पर डोज़ भी सप्लाई करती रहती तो दवाइयाँ खाने से भी मुक्ति मिल जाती ।

दुर्लभ को सुलभ बनाने का यह जुझारू और क्रांतिकारी सिद्धांत है नॉरवुड की बायोटेक्नोलॉज़ी प्रयोगशाला के संस्थापक स्टीफ़ेन हॉग और डेरिक रोज़ी का । मोडीफ़ाइड मैसेंज़र आर.एन.ए (ModeRNA) के सहारे एक “नवीन औषधि युग” प्रारम्भ करने की परिकल्पना पर वर्ष 2010 से शोध में जुटे वैज्ञानिकों ने दुनिया भर के लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है । उम्मीदों का दिया कुछ इस तरह जल रहा है कि दस वर्षों की अनवरत असफलता के बाद भी सात सौ कर्मचारियों वाली तीस बिलियन डॉलर की इस कम्पनी के शेयर का मौज़ूदा भाव है 61.54 डॉलर । 

मॉडर्ना प्रयोगशाला के वैज्ञानिक विशेषरूप से आल्टर्ड किये गये आर.एन.ए. को रोगी के शरीर में एक ऐसे एज़ेण्ट के रूप में प्रवेश करवाते हैं जो रोगी के शरीर की कोशिकाओं को एक दवा निर्माण कम्पनी की अतिरिक्त क्षमता प्रदान कर देता है जिससे रोगी के शरीर की कोशिकायें बीमारी से लड़ने के लिए आवश्यक दवा का उपयुक्त मात्रा में निर्माण स्वयं ही करने लगती हैं । सुनने और सोचने में यह परिकल्पना बड़ी अद्भुत लगती है । यदि ऐसा सम्भव हो सका तो दुनिया में औषधियों के एक नये युग की शुरुआत हो जायेगी ।  

विश्वभ्रमण पर निकले कोरोना वायरस को निष्प्रभावी बनाने के लिए मौज़ूदा समय यानी दिनांक 12 जून 2020 तक एक सौ साठ से अधिक टीकों पर दुनिया भर के वैज्ञानिक शोधकार्य में जुटे हुये हैं । मोडीफ़ाइड आर.एन.ए. के संक्षिप्त नाम मॉडर्ना के नाम से विख्यात नॉरवुड की इस बायोटेक्नोलॉज़ी कम्पनी को पीछे करते हुये कोरोना वैक्सीन बनाने की बाजी फ़िलहाल एस्ट्रॉज़ेनेका के हाथ में है । मौके की तलाश में रहने वाले धन्नासेठों ने इन शोधों के लिये अपनी तिजोरियाँ खोल दी हैं । एक से दो साल के भीतर जब इन टीकों के क्लीनिकल ट्रायल पूरे हो जायेंगे तब इन धन्नासेठों की तिजोरियों पर होने लगेगी धनवर्षा ।

कोरोना वायरस का टीका बनाने की दौड़ में अब तक मॉडर्ना के अतिरिक्त एस्ट्रॉज़ेनेका एण्ड ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय, जॉन्सन एण्ड जॉन्सन, फ़ाइज़र एण्ड बायो-एन-टेक, इनोवियो और कैन्सिनो आगे चल रहे हैं ।

मॉडर्ना ने कोरोना वैक्सीन बनाने के लिए किसी वायरस का सहारा न लेकर एक कृत्रिम आर.एन.ए. mRNA-1273”  पर अपना ध्यान केंद्रित किया है वहीं एस्ट्रॉज़ेनेका ने अपने वैक्सीन का माध्यम बनाया है सामान्य सर्दी-ज़ुख़ाम करने वाले एडीनोवायरस को ।  University of Oxford and AstraZeneca ने चिम्पांज़ी में पाये जाने वाले एडीनोवायरस के एक कमज़ोर से आर.एन.ए. का स्तेमाल किया है । वैक्सीन बनाने के लिए स्तेमाल किये जाने वाले माइक्रॉब के कमज़ोर या एटेनुएटेड रूपों अथवा ज़ेनेटिकली मोडीफ़ाइड रूपों का ही स्तेमाल किये जाने की परम्परा रही है । ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एण्टी कोरोना वैक्सीन में कोरोना स्पाइक प्रोटीन के जीन्स मिला दिये हैं जिससे यह वैक्सीन मनुष्य के शरीर में पहुँचते ही कोरोना की खाल ओढ़ लेती है । हमारी कोशिकाओं को कोरोना होने का भ्रम होता है और वे एण्टीबॉड़ी बनाना शुरू कर देती हैं । यह पूरी तरह से बायोलॉज़िकल डायलिमा यानी धोखे में रखकर किये गये गुरिल्ला युद्ध की तरह होता है ।

कोरोना वैक्सीन बनाने की दौड़ में शामिल Pfizer and BioNTech कम्पनी भी mRNA का ही स्तेमाल कर रही है । यह कम्पनी कोरोना की चार वैक्सीन्स पर एक साथ काम कर रही है ।

Inovio कम्पनी के वैज्ञानिकों ने अपनी कोरोना वैक्सीन INO-4800 के निर्माण में RNA के स्थान पर DNA का स्तेमाल करना उचित समझा है वहीं चीन के तियानजिन स्थित CanSino कम्पनी के वैज्ञानिकों ने जेनेटिकली मोडीफ़ाइड एडीनोवायरस Ad5 का उपयोग किया है ।

इस दौड़ की पाँचवी कम्पनी Johnson & Johnson ने अपनी वैक्सीन में कोरोना वायरस के जींस को भी सम्मिलित किया है ।

क्लीनिकल ट्रायल के बाद, शायद 2021 या 2022 में हमें कोरोना की प्रतीक्षित वैक्सीन मिल जायेगी ।

हमने इस वैज्ञानिक दौड़ के बारे में मोतीहारी वाले मिसिर जी की प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उनका उत्तर कुछ इस तरह था – काँटे को काँटा निकालता है । लोग कोरोना को कोरोना से ही मारने की जुगत में लगे हैं । नकली कोरोना के वेष में हमारी ही ताक़त है जो असली कोरोना को मार देगी । यहाँ तक तो ठीक है लेकिन जब कोरोना से ही कोरोना को मारना है तो मिलियन डॉलर्स वाली वैक्सीन की भला क्या ज़रूरत ? कोरोना तो यूँ ही हमारे सम्पर्क में आ कर एसिम्प्टोमैटिक हो रहा है । नेचुरल इनोकुलेशन की जगह महँगे आर्टीफ़िशियल इनोकुलेशन का धंधा आज तक मेरी समझ में नहीं आया । आप हमें कोरोना से दूर रहने के लिए मास्क लगाने और दूरी बनाकर रहने को कहते हैं और ख़ुद कोरोना को हमारे शरीर में इनोकुलेट करने के लिए परेशान हो रहे हैं, क्या गज़ब जलेबी विज्ञान है ।

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