मंगलवार, 16 जून 2020

सोशियो-पैथोलॉजी ऑफ़ आत्महत्या

क्षणिक आवेश, असुरक्षा की तीव्र भावना, एकांगी सोच, विकल्पों की तलाश में असफलता और निराशा के अतिरिक्त और वे कौन से कारण हैं जो किसी वैज्ञानिक, कलाकार या किसी अधिकारी को आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हैं ?

आत्महत्या को व्यक्तिगत मानसिक विकृति का परिणाम मान लेना इस समस्या के समाधान से इंकार करना है ।

कल्पना कीजिये, किसी ग्रह पर केवल एक व्यक्ति रहता है, क्या वह आत्महत्या कर सकता है! कल्पना कीजिये किसी ग्रह पर समाज जैसी कोई व्यवस्था नहीं है, क्या वहाँ का कोई व्यक्ति आत्महत्या कर सकता है! कल्पना कीजिये किसी ग्रह के लोग अशिक्षित हैं और आदिम जीवन जीने के अभ्यस्त हैं, क्या वहाँ का कोई व्यक्ति आत्महत्या कर सकता है!

मैं आत्महत्या को उस जटिल समाज का कॉम्प्लीकेशन मानता हूँ जो हस्तक्षेपों, वर्जनाओं, स्वार्थों, निर्लज्ज धूर्तताओं और दुष्टताओं से भरा हुआ है । आदिम युग के लोग आपसी युद्ध में किसी की हत्या तो कर सकते हैं किंतु आत्महत्या नहीं कर सकते ।

भारत में किसानों की आत्महत्या रोकने का अभी तक कोई सार्थक समाधान नहीं निकल सका है । फसल उगाने वाले किसान के श्रम का लाभ किसान को न मिलकर उन्हें मिलता है जिनकी फसल के उत्पादन में कोई भूमिका नहीं होती । मैं आज इक्कीसवीं शताब्दी के जून महीने की बात कर रहा हूँ जब कोई व्यापारी किसी किसान से एक रुपये प्रति किलो की दर से टमाटर ख़रीद कर पच्चीस रुपये प्रति किलो की दर से उपभोक्ता को बेचता है, किसान को उसकी लागत भी नहीं मिल पाती, यह है समाज की जटिलता । कोई विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंक लाकर भी केवल अपनी उच्चजाति, जिसके लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता, के कारण प्रतिस्पर्धाओं में अपने लक्ष्य को भेद पाने में असफल रहता है, यह है समाज की जटिलता । एक वैज्ञानिक रात-दिन एक करके कोई शोध करता है किंतु जब वह प्रकाशित होता है, तब शोधकर्ता के नाम के स्थान पर किसी दूसरे व्यक्ति का नाम होता है, यह है समाज की जटिलता । सभ्यता के अहंकार में डूबे असभ्य समाज में दासप्रथा कई रूपों में अपनी जड़ें जमा कर स्थिर हो चुकी है, यह है समाज की जटिलता । और आप कहते हैं कि आत्महत्या एक मनोविकृति है ?

जब आप कहते हैं कि आत्महत्या एक मनोविकृति है तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि आपने आत्महत्या न होने देने का दायित्व भी बड़ी धूर्तता से आत्महत्या करने वाले पर ही थोप दिया और स्वयं हर प्रकार के दायित्व से मुक्ति पा ली है । आत्महत्या व्यक्तिगत निर्णय भले ही हो किंतु वह सामूहिक प्रयासों का एक संगठित परिणाम होता है जिसके लिए जटिल समाज की अन्यायपूर्ण और अमानवीय व्यवस्थायें पूरी तरह उत्तरदायी हुआ करती हैं ।

किसी आत्महत्या की घटना के बाद नकली शोक और नकली चिंताएँ प्रकट करने की रस्म अदायगी के बाद हम आत्महत्या को रोकने की आवश्यकता प्रकट करना कभी नहीं भूलते किंतु इसके ठीक अगले ही क्षण से हम अगला शिकार फाँसने के षड्यंत्रों में जुट जाते हैं ।  

आत्महत्या के मूलकारणों का निवारण किये बिना केवल भाषणों से उसे रोका जाना कैसे सम्भव हो सकेगा भला!

आत्महत्या रोकने के लिए हम दार्शनिक चिंतन और अध्यात्मिक संस्कारों की बात करते हैं । हम प्रारब्ध और पुरुषार्थ का उपदेश देकर हर स्थिति में संतोष करने का परामर्श दे सकते हैं । निश्चित ही आत्महत्या को रोकने का यह बेजोड़ तरीका है जिसमें न हर्र लगती है और न फिटकरी और रंग भी चोखा आ जाता है । किंतु तब यह समाधान पलायन का होगा, पीड़ित व्यक्ति को अपने अधिकारों का परित्याग करना होगा, पीड़ित व्यक्ति को अत्याचारियों के वर्चस्व को स्वीकार करते हुये अपनी पराजय स्वीकार करनी होगी, उसे संगठन की जटिलता के आगे नतमस्तक होना होगा । संक्षेप में कहें तो उसे जटिल समाज की अमानवीय दासता स्वीकार करनी होगी, यानी दासता से मुक्ति के लिए एक और दासता ही स्वीकार करनी होगी । जटिल समाज में दासता का कोई विकल्प नहीं होता ।

हम किसी अकेले उजाले को अँधेरों के साम्राज्य से युद्ध करते हुये आगे बढ़ने का लुभावना उपदेश दे सकते हैं इस बात को छिपाते हुये कि युद्ध में उसकी हत्या भी हो सकती है या फिर आसन्न हत्या के क्षणों में उसे चंद्रशेखर आज़ाद वाला रास्ता भी चुनना पड़ सकता है ।

अध्यात्मिक संस्थाएँ कई दशकों से कहती रही हैं हम सुधरेंगे युग सुधरेगा । किंतु न हम सुधरे न युग सुधरा । विनोबा भावे ने आत्मशासित समाज की कल्पना की, किंतु वह कल्पना भी कभी आकार नहीं ले सकी ! हाँ! अन्ना हजारे बना जा सकता है । समाज की जटिलता समाप्त या न्यूनतम हो या न हो किंतु मैंने प्रयास कियाका संतोष तो मिल ही जायेगा । 

     चलिये, जैसी कि परम्परा रही है अब हम आत्महत्या रोकने का सारा भार अपने शिकार पर ही डाल दें ।  

अ पर्सनल रिमेडी ऑफ़ आत्महत्या

-      दुनिया वहाँ समाप्त नहीं होती जहाँ तुमने उसे समाप्त हुआ मान लिया है । यह केवल तुम्हारा मानना है, वास्तविकता इससे परे है ।

-      विकल्प कभी समाप्त नहीं होते, हमें विकल्पों की तलाश जारी रखनी चाहिये ।

-      हमें अपने सपनों में विविधता और तरलता लानी होगी ।

-      हम नितांत विरोधाभासी परिस्थितियों में जीने के लिए बाध्य हैं । हमें यह स्वीकार करना होगा कि परिस्थितियों को पूरी तरह अनुकूल नहीं बनाया जा सकता ।

-      सपने सजते हैं तो टूटते भी हैं, उनके प्रति अधिक राग रखना कष्टों को आमंत्रित करना है ।

-      हमें उतना ही मिलेगा जितना हमारे हिस्से में है, जो हमारे हिस्से में नहीं है वह हमें कभी नहीं मिलेगा, उसकी चाहत रखने का कोई औचित्य नहीं ।

-      अवसादी को एकांत अच्छा लगता है इसलिए अपने किसी गुमसुम हो गये परिचित को एकांत में न रहने दें और उससे निरंतर निकटता बनाये रखने का प्रयास करते रहें ।

-      मूड डायवर्ट करने के लिए संगीत और आपसी वार्तालाप का सहारा लेना बहुत अच्छा उपाय है ।

-       नई योजनाओं और नए सपनों पर चर्चा करके विकल्प तलाशे जाने चाहिए ।

-      दुनिया जितनी बदसूरत है उससे कहीं अधिक ख़ूबसूरत भी है ।

-      कहीं किसी कोने में कोई ख़ुशी है जो हमारी प्रतीक्षा में है, चलो उस ख़ुशी को खोज लें । 


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