कट्टरता
की अभिव्यक्ति बनाम हत्या की स्वतंत्रता ने फ़्रांस ही नहीं पूरे योरोप को झकझोर
दिया है । कई क्रांतियों के बाद योरोप में एक दीवार बनायी गयी थी जो सत्ता और धर्म
को एक-दूसरे से अलग करती है । कुछ विदेशियों द्वारा उस दीवार को ढहाने के प्रयास
किये जाते रहे हैं । यह प्रयास सत्ता पर धर्म के वर्चस्व को एक बार फिर से बहाल
करने के अभियान का एक हिस्सा है ।
फ़्रांस की
घटनाओं पर भारत के वे लोग उद्वेलित हैं जो सनातनधर्मियों के देवी-देवताओं पर किये जाने
वाले अपमानजनक कुकृत्यों पर सदा चुपचाप बने रहते हैं या फिर इसे कला और अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता मानते रहे हैं । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, क्रिएटिव
आर्ट और क्रिटिक के नाम पर श्रीकृष्ण, माँ काली, माँ सरस्वती, गणेश, शिव और ब्रह्मा
आदि को लेकर सोशल मीडिया पर न जाने कितनी अश्लील कहानियाँ लिखने, उन्हें अश्लील गालियाँ देने और उनके आपत्तिजनक चित्र बनाने के अतिरिक्त सामूहिक
प्रदर्शनों में उनके चित्रों पर थूकने और जूते मारने की घटनाओं के अनवरत सिलसिलों पर
चुप रहने वालों को यह नैतिक अधिकार नहीं है कि वे फ़्रांस की घटनाओं पर भारत में हंगामा
करें और भारत सरकार के निर्णय के विरुद्ध बगावत करें । सनातनधर्मी युवा पीढ़ी बड़ी हैरत
से देखती है कि आख़िर अभिव्यक्ति की आज़ादी को भारत में क्यों नहीं है अभिव्यक्ति की
आज़ादी ! क्यों यह आज़ादी कुछ आम लोगों से छीनकर कुछ ख़ास लोगों को सौंप दी गयी है !
कोई भी
सुलझा हुआ व्यक्ति फ़्रेंच व्यंग्य पत्रिका शार्ली हेब्दो (फ़्रेंच उच्चारण - च्शर्लि
एब्दो) के तरीकों का समर्थन नहीं कर सकता । मैं उन व्यंग्य कार्टूंस की बात कर रहा
हूँ जो इस पत्रिका में इस्लामिक समाज के रीफ़ॉर्मेशन के उद्देश्य से प्रकाशित किये
गये थे ...और जिन्होंने पूरे मुस्लिम समाज को उद्वेलित कर दिया है । माना कि
गम्भीर विषय पर विमर्श के लिये व्यंग्य भी एक मान्य विधा के रूप में समाज में न
जाने कबसे प्रचलित है किंतु व्यंग्य गुदगुदाते हुये चिकोटी काटता है और मस्तिष्क
को कुछ सोचने के लिये बाध्य करता है । व्यंग्य का उद्देश्य समाज में व्याप्त
मनुष्य जीवन की विसंगतियों और कुप्रथाओं से मुक्त होने और रीफ़ॉर्मेशन के लिये लोगों
को प्रेरित करना है । मन को पीड़ा देना और भावनाओं को उद्वेलित करना व्यंग्य की
मर्यादा से परे है । च्शर्लि एब्दो ने व्यंग्य की मर्यादाओं का उल्लंघन किया और हिंसा
का शिकार हुआ फिर उल्लंघन किया ...और फिर हिंसा का शिकार हुआ । किंतु इस सिलसिले
और च्शर्लि एब्दो की इस बगावत को समझने के लिये
हमें कुछ और पीछे जाना होगा ।
च्शर्लि
एब्दो फ़्रांस की सेक्युलरिस्ट और एंटीरिलीजियस साप्ताहिक कार्टून पत्रिका है जो वहाँ
प्रचलित कैथोलिसिज़्म, ज़ूडाइज़्म और इस्लाम के धर्मावलम्बियों पर कटाक्ष करती रही है । फ़्रेंच
रिवोल्यूशन के बाद धर्म को महत्व न देने वाले नवनिर्मित फ़्रांस में च्शर्लि एब्दो
का प्रकाशन सन् 1969 में प्रारम्भ हुआ । प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही
फ़्रांस ही नहीं पूरे योरोप में राजसत्ता पर धर्म के वर्चस्व को समाप्त करने के
प्रयास किये जाते रहे हैं । यह पत्रिका उन्हीं प्रयासों का एक हिस्सा थी । प्रथम
विश्वयुद्ध से पूर्व तक योरोप के राज्यों पर चर्च के प्रभुत्व से उत्पन्न
भ्रष्टाचार और अराजकता से जनता त्रस्त रहा करती थी । राजा की अपेक्षा चर्च कहीं
अधिक शक्तिशाली हो गये थे, योरोप की जनता इस अराजक स्थिति से मुक्त होना चाहती थी,
मुक्त हुयी भी किंतु कोई भी विचार कभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाया करता । कुछ
लोग अभी भी ऐसे थे जो राज्य पर धर्म के वर्चस्व के पक्ष में थे । ऐसे लोगों में
वैचारिक आंदोलन का सूत्रपात करने के लिये च्शर्लि एब्दो जैसी पत्रिकाओं ने व्यंग्य
का सहारा लिया । अभिव्यक्ति और वैचारिक आंदोलन का यह उनका अपना तरीका था ।
योरोप
में तो सामाजिक क्रांतियों ने सत्ता और धर्म के रास्ते अलग-अलग कर दिये किंतु
एशिया में धर्म ने सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत करनी प्रारम्भ कर दी । इस्लाम का नाम
लेकर और अल्लाह-हो-अकबर के नारों के साथ दुनिया भर में क्रूर हिंसायें और युद्ध
होते रहे । कुछ लोग मरते और अपमानित होते रहे ...और बहुत से लोग केवल तमाशा देखते
रहे । इसी बीच योरोप में अरबी खेल तहर्रुश गेमिया ने भी प्रवेश किया जिसने ज़र्मनी
और फ़्रांस सहित पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था । फिर एक समय आया जब इस्लाम को
लेकर दुनिया भर में एक स्वस्थ बहस की आवश्यकता महसूस की गयी । दुर्भाग्य से इतने
गम्भीर विषय पर चर्चा के लिए कार्टून और व्यंग्य को माध्यम चुना गया । डेनमार्क ने
इसका बीड़ा उठाया और “क्रिटिसिज़्म ऑफ़ इस्लाम” और “सेल्फ़ सेंसरशिप” पर एक बहस
प्रारम्भ करने के प्रयास में डैनिश समाचार पत्र ज़िल्लैण्ड्स पोस्टेन ने सितम्बर
2005 में पैगम्बर पर कुछ कार्टून प्रकाशित किये जिसका डेनमार्क के मुस्लिम समुदाय
सहित दुनिया भर के मुस्लिम देशों द्वारा न केवल कड़ा विरोध किया गया बल्कि कई जगह
तो धार्मिक दंगे भी हुये । ज़िल्लैण्डस पोस्टेन की परम्परा को आगे बढ़ाते हुये च्शर्ली
एब्दो ने भी 2011 में पैगम्बर को लेकर कई कार्टून प्रकाशित किये जिस पर पत्रिका के
कार्यालय में तोड़फोड़ हुयी । पत्रिका ने पुनः 2012 में पैगम्बर पर कार्टून प्रकाशित
किये जिस पर पुनः तोड़फोड़ और हिंसा हुयी ।
फ़्रांस
के समाज और संविधान में धार्मिक कट्टरवाद के लिये कोई स्थान नहीं है । धर्म फ़्रांस
के नागरिकों के लिये व्यक्तिगत विषय है जिसे सार्वजनिक किया जाना संविधानसम्मत
नहीं है । च्शर्लि एब्दो एक वामपंथी पत्रिका है जिसकी दृष्टि में धर्म मनुष्य जीवन
के लिये एक आवश्यक विषय नहीं है । तो क्या डेनमार्क और फ़्रांस में प्रकाशित किये
गये कार्टून्स ने कम्युनिज़्म और परम्परावादियों को आमने-सामने ला कर खड़ा कर दिया
है ?
घोषणा
फ़्रांस में, हंगामा भारत में...
भारतीय
मुसलमानों ने मुम्बई की सड़कों पर जुलूस निकालने से पहले फ़्रांसीसी राष्ट्रपति के
चित्रों को सड़क पर चिपका दिया जिससे आने जाने वाले लोग अपने जूतों से राष्ट्रपति
के चेहरे को रौंदते हुये निकल सकें । फ़्रांस के राष्ट्रपति को अभिव्यक्ति की आज़ादी
नहीं देते भारत के मुसलमान ।
फ़्रांस
के राष्ट्रपति के विरुद्ध अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, बरेली,
मुम्बई और भोपाल में मुसलमानों के उग्र प्रदर्शन ने प्रमाणित कर दिया
है कि भारत के बहुसंख्य मुसलमानों की नीतियाँ भारत सरकार की विदेश नीतियों के
विरुद्ध हैं । भारत का संविधान इस तरह के विरोध प्रदर्शन को बगावत मानता है ।
भारतीय
मूल के भारत विरोधी डॉ. ज़ाकिर नाइक ने घोषणा कर दी है कि अल्लाह के बंदे को गाली देने
वाले को दर्दनाक सज़ा मिलेगी । यानी ज़ाकिर नाइक किसी भी देश के संविधान को चैलेंज
कर सकते हैं और क़ानून अपने हाथ में ले सकते हैं ।
पाकिस्तान
के राजनेता उबल रहे हैं, वे अपने प्रधानमंत्री से कह रहे हैं कि फ़्रांस पर एटम बम फेको ।
टर्की के
एर्दोगन ने जहाँ गुस्से में आकर कह डाला कि फ़्रांस के राष्ट्रपति के दिमाग की जाँच
करायी जाय वहीं ईरान ने तो फ़्रांस के राष्ट्रपति का चित्र ही शैतान का बना डाला ।
आख़िर
क्यों भारतीय टीवी चैनल पर किसी एंकर को इस्लामिक स्कॉलर इलियास शराफ़ुद्दीन से गाली
न देने के लिये बारम्बार निवेदन करना पड़ता है इसके बाद भी इस्लामिक विद्वान गाली
देने से बाज नहीं आता ? अभिव्यक्ति की यह कैसी आज़ादी है जिसे अल्लाह ने सिर्फ़ कुछ लोगों को ही दी
है बाकी लोगों को बिल्कुल भी नहीं ?
नमाज के
बाद की जाने वाली दुआ – “अल्लाह हमें क़ौम-उल-क़ाफरीन पर फतह अता करे” से दुनिया के ग़ैरमुस्लिम लोग
कैसे महफ़ूज़ रह सकेंगे ? यह कैसी नैतिकता है जो “मज़हब नहीं
सिखाता आपस में बैर रखना” गीत गाने के बाद मज़हब के लिये अपनी मातृभूमि से बगावत
करके पाकिस्तान जाकर बस जाने की अनुमति दे देती है ।
फ़्रांस के
लोग भयभीत हैं कि कहीं उनके राष्ट्रपति ने धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध कड़े कदम उठाये
जाने की आवश्यकता बता कर दुनिया भर के कट्टर मुसलमानों को एकजुट होने का अवसर तो नहीं
दे दिया है ।
फ़्रेंच समाज
की चिंता – फ़्रेंच रिवोल्यूशन के बाद 1905 में ही फ़्रांस में एक ऐसे खुले समाज का उदय
हुआ जिसमें राज्य पर चर्च के प्रभुत्व को समाप्त कर दिया गया । साल 1945 में संविधान
में इस पृथक्त्व का प्रावधान करके इसे फ़्रांसीसी समाज के अधिकारों में सम्मिलित कर
दिया गया । इसीलिये फ़्रांस के लोग सत्ता पर धर्म के वर्चस्व को फिर से स्थापित
नहीं होने देने के लिये दृढ़ संकल्पित हैं ।
फ़्रांस के
खुलेपन का सामाजिक मूल्य – फ़्रांस ने खुले दिल से सभी धर्मों को अपने यहाँ रहने और काम करने की आज़ादी
दी ...लोगों को अपने धर्मानुसार जीवनयापन की आज़ादी दी जो आगे चलकर उनपर भारी पड़ने लगी
। फ़्रांसीसी लोगों ने अपने समाज में नवागंतुक विदेशियों के व्यक्तिगत आचरण की सामाजिक
अभिव्यक्ति को ही नहीं बल्कि सत्ता से अपनी धार्मिक पहचान एवं आवश्यकताओं की अपेक्षाओं
से उत्पन्न अंतर्विरोधों का भी अनुभव किया । फ़्रांस में आये विदेशी मुसलमानों ने अपने
दीन के अनुसार स्थानीय समाज में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर दिया । प्रारम्भ में उन्होंने
अपेक्षायें कीं कि उन्हें उनके दीन के अनुसार मदरसे खोलने और दीनी तालीम देने की आज़ादी
दी जाय, स्थानीय विद्यालयों में उनकी अलग पहचान बनाये रखी जाय
और उन्हें उनके मज़हब के ही अनुसार खाना दिया जाय, उन्हें नमाज़
के लिये स्कूल्स और कार्यालयों में अलग स्थान उपलब्ध करवाया जाय । कुल मिलाकर नवागंतुक
विदेशियों ने फ़्रांस के समाज में अपनी अलग पहचान स्थापित करने और उसका विस्तार करने
का प्रयास किया जिसके कारण फ़्रांसीसी समाज का वह ढाँचा जो फ़्रेंच रिवोल्यूशन के बाद
बना था दरकने लगा । यह स्थानीय लोगों में एक बेचैनी का कारण बना और उनके धर्मनिरपेक्ष
सामाजिक ढाँचे की पहचान पर संकट मँड़राने लगा । अब फ़्रांस के ग़ैरमुस्लिम समाज को यह
सोचने के लिये बाध्य होना पड़ रहा है कि क्या उनका खुलापन वाकई उनके लिये अभिषाप बन
गया है ?
Bahut hi Sundar laga.. Thanks..
जवाब देंहटाएंदिवाली पर निबंध Diwali Essay in Hindi
Happy Diwali Wishes Hindi | Deepavali Wishes | दिवाली शुभकामनाये
दिवाली पर कविता Diwali Kavita Poetry Poem in Hindi
दिवाली पर निबंध | Diwali Nibandh | Essay on Deepawali in Hindi
bhut bdiya post likhi hai aapne Ankitbadigar ki dhanyvaad
जवाब देंहटाएं