दावा है कि तीन दिसम्बर 2021 को “कलांजलि आर्ट स्पेस” में होने वाले आठवें “बैड एण्ड ब्यूटीफ़ुल वर्ल्ड फ़िल्म फ़ेस्टिवल” में जिन लघु चलचित्रों का प्रीमियर किया जाने वाला है उन्हें देखने के बाद पश्चिमी बंगाल के (डीविएटेड) युवा स्वयं को सशक्त अनुभव करने लगेंगे ।
कोलकाता
के साल्ट लेक सिटी स्थित “प्रयासम विज़ुअल बेसिक्स” के युवा निर्देशकों और
कलाकारों द्वारा “समावेशी शिक्षा” के अंतर्गत समलैंगिक सम्बंधों पर निर्मित 8 शॉर्ट
मूवीज़ का पश्चिम बंगाल के विद्यालयों में प्रसारण किये जाने की योजना है । प्रयासम
के निर्देशक प्रशांत रॉय के अनुसार कोरोना के कारण लम्बे समय से बंद विद्यालयों के
दिसम्बर में खुलते ही विद्यार्थियों के समक्ष इन शॉर्ट मूवीज़ का प्रदर्शन किया
जायेगा जिनमें समलैंगिक सम्बंधों से जुड़ी काल्पनिक कहानियों के अतिरिक्त भाईचारा,
बच्चों के यौनशोषण के प्रति जागरूकता, स्वीकार्यता,
पहचान का संकट और मानवीय संवेदनाओं के विभिन्न पक्षों को भी दिखाया
जायेगा । समलैंगिक सम्बंधों से उपजी अ-सहज स्थितियों को दूर कर समलैंगिकों के
प्रति सहज दृष्टिकोण निर्मित करने और समाज की मुख्य धारा में उनके समावेश के लिये
यह एक नयी पहल है ।
प्रयासम
के युवा निर्देशकों की चिंता LGBTQ युवाओं की उस समस्या को
लेकर है जिसके कारण वे स्वयं को समाज से अलग या अवांछित अनुभव करने लगते हैं ।
प्रयासम का प्रयास है कि LGBTQ युवा स्वयं को समाज से अलग या
अवांछित अनुभव न करें बल्कि मुख्य समाज का ही एक हिस्सा स्वीकार करें, और इसके लिये समलैंगिक विषयों पर बनी फ़िल्में समाज के हर वर्ग को दिखायी
जानी चाहिये जिससे उनके प्रति उपेक्षा भाव को समाप्त किया जा सके ।
समाज का
एक बड़ा वर्ग अब अ-प्राकृतिक यौन सम्बंधों को अ-प्राकृतिक या “परवर्टेड सेक्सुअल बिहैवियर”
मानने के लिये तैयार नहीं है, वे ऐसे सम्बंधों को सहज और सामान्य
सम्बंध मानते हैं और आग्रह करते हैं कि समाज उनके प्रति अपने दृष्टिकोण को बदल दे ।
यह एक विचित्र स्थिति है जिसमें सहज और अ-सहज के बीच के अंतर को समाप्त करने का हठ
किया जा रहा है । इस तरह तो आने वाले समय में ड्रग एडिक्ट्स और सात्विक व्यक्ति की
जीवनशैली और उनके चिंतन के बीच के अंतर को भी समाप्त करते हुये उनकी स्वीकार्यता की
माँग की जाने लगेगी । ममता के राज में यह कैसा समावेश है? युवा
फ़िल्म निर्देशक समलैंगिकों को सामान्य मानने का आग्रह कर रहे हैं किंतु क्या समाज वेश्याओं
और सामान्य स्त्री के बीच की जीवनशैली के अंतर को समाप्त कर सका है?
23 वर्षीय
युवा फ़िल्म निर्देशक सलीम शेख़ के अनुसार उनके कुछ मित्र मेल-एस्कॉर्ट्स (पुरुष
यौनकर्मी) हैं जिनका कहना है आत्मसम्मान उन जैसे लोगों के लिये बहुत आवश्यक है । इसी
से प्रेरित होकर सलीम शेख़ ने अपनी फ़िल्म “दक्खिना” में एक ऐसे पुरुष यौनकर्मी की कहानी
का चित्रण किया है जिसे एक बुज़ुर्ग व्यक्ति शहर में घुमा रहा होता है । उनकी एक और
लघु फ़िल्म “देखा” में एक पिता और उसके “गे” बेटे की कहानी है । वे इन फ़िल्मों के
माध्यम से “पुरुष यौनकर्मियों” और “गे” की बातें व उनकी रुचियों को समाज के सामने इस
आशा के साथ रखना चाहते हैं कि समाज उन्हें अपने जैसा ही सामान्य व्यक्ति मान ले ।
24
वर्षीय फ़िल्म निर्देशक सप्तर्षि रॉय ने बताया कि “दूरबीन” फ़िल्म की कहानी सुनते ही
एक्टर्स भाग गये थे इसलिये ऐसी शॉर्ट मूवीज़ समाज को दिखाना बेहद आवश्यक है । यह
फ़िल्म उस रहस्योद्घाटन के आसपास घूमती है जिसमें एक युवा पत्रकार अपनी लिव-इन-रिलेशन
को यह बताता है कि कैसे उसके पिता के निधन के बाद उसे उनके “गे” होने की बारे में
पता चला ।
24
वर्षीय डायरेक्टर मनीष चौधरी ने अपनी पंद्रह मिनट की शॉर्ट मूवी “देया
नेया” में फ़ूड डिलीवरी ब्वाय और एक व्यक्ति के बीच विकसित
होते समलैंगिक सम्बंधों के विभिन्न पक्षों को फ़िल्माया है जिसमें उन्होंने ऐसे अप्रचलित
रिश्तों के साथ उनकी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को भी खँगालने का प्रयास किया है ।
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