शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दुत्वा

         हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दुत्वा जैसे तीन शब्द आजकल भीड़ में कुलाँचे मारते हुये घूम रहे हैं, गोया सब्जी मण्डी में कुछ नंदी घुस आये हों । हमने अपना कपार खुजाते हुये मोतीहारी वाले मिसिर जी को फोन लगाया – “गोड़ परतनी मिसिर बाबा! हम अकदम कनफुजिया गये हैं, बुझयबे नहीं करता है के हिन्दू, हिन्दुत्व आ हिन्दुत्वा मँ झगड़ा लगा के लोग कहना का चाहता है ? तन हमरो मदद किया जाय मिसिर बाबा”।

गुरु गम्भीर वाणी में मिसिर जी उवाचे –  इस तरह के आधारहीन विवाद हमारे अधोपतन और भाषायी अज्ञान के द्योतक हैं । क्या जड़त्व के बिना स्थिरता सम्भव है ? क्या मिठास के बिना गुड़ का अस्तित्व संभव है? क्या दैवत्व के बिना किसी देवता का अस्तित्व सम्भव है ? हिन्दुत्व, दैवत्व, नित्यत्व आदि शब्द मात्र नहीं प्रत्युत् वे अनिवार्य गुण या धर्म हैं जिनके अभाव में हिन्दू, देव और नित्य आदि संज्ञा धारकों का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है, ये धर्म या गुण वाचक शब्द हैं जो क्रमशः हिन्दू, देव और नित्य आदि में समवेत भाव से रहते हैं और अयुतसिद्ध हैं । व्हेन वी से हिन्दुत्व, इट डिनोट्स द स्टेट ऑर कण्डीशन ऑफ़ बींग अ हिन्दू । हिन्दुत्व इज़ अ कॉन्कोमिटेण्ट एलीमेंट विदाउट व्हिच बींग अ हिन्दू इज़ नॉट पॉसिबल ।  

अंग्रेज़ी पृष्ठभूमि से जब हिन्दुत्व को देखने का प्रयास किया जाता है तो वह हिन्दुत्वाहो जाता है, इसीलिये उसका वास्तविक स्वरूप लोगों को दिखायी नहीं देता । यह कुछ-कुछ उसी प्रकार है जैसे अंग्रेज़ी पृष्ठभूमि से देखने पर केरल केरला’, आंध्र आंध्रा’, बंग बंगा’, तरंग तरंगाऔर योग योगा हो जाता है । यही कारण है कि जब हम केरल को केरला’, आंध्र को आंध्रा’, बंग को बंगा’, तरंग को तरंगाऔर योग को योगा के रूप में देखते हैं तो उनके मूल स्वरूप कहीं खो जाते हैं; तब जो हम देख पाते हैं वह केवल उनका बाह्य कलेवर भर होता है जो कि परिवर्तनशील, सतही और सारतत्व रहित हुआ करता है; ...तब भारतीयता कहीं खो जाती है, उन संज्ञाओं के मूल तत्व हमारे सामने से ओझल हो जाते हैं ।

हमने भी सुना है, आजकल भीड़ के सामने कुछ लोग  विचित्र ज्ञानवर्षा कर रहे हैं– “जब हिन्दू पहले से मौज़ूद है ही तो अब आज हिन्दुत्वा की क्या ज़रूरत? कभी आप स्वयं को हिन्दू कहते हैं, कभी आप हिन्दुत्वा कहते हैं, आप एक साथ दोनों कैसे हो सकते हैं, एक समय में एक ही हो सकते हैं – हिन्दू या फिर हिंदुत्वा”।

भारत की यह नयी परम्परा है, कुछ शब्दों को प्रश्न बनाकर भीड़ की ओर उछाल दिया जाता है और वे अप्रश्न बन कर इधर से उधर लोगों से टकराते फिरते हैं । हिन्दुत्वा वाले अप्रश्न प्रश्न से कुछ और भी अप्रश्नप्रश्न उत्पन्न हो गये हैं, यथा - जब आप बंधु हैं तो बंधुत्वा की क्या ज़रूरत? जब आप मनुष्य हैं तो मनुष्यत्वा की क्या ज़रूरत? इसी तरह दैवत्वा, मुमुक्षुत्वा, प्रभुत्वा, राक्षसत्वा, नित्यत्वा, विशेषत्वा और क्षुद्रत्वा आदि की क्या आवश्यकता? इन अप्रश्नप्रश्नों ने कुछ प्रचलित और सम्मानित शब्दों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है । क्या ये लोग नहीं जानते कि नैतिकता के अभाव में कोई व्यक्ति नैतिक हो ही नहीं सकता !  

भीड़ में उछाले गये निरर्थक शब्दों और अप्रश्न प्रश्नों को भीड़ से बाहर निकालकर उनके परिमार्जन का प्रयास भी अब कोई नहीं करना चाहता । हिन्दुत्वा’, ‘आयुर्वेदाऔर योगा वेलनेस सेण्टरजैसे नये शब्द भीड़ को आकर्षित करते हैं । मेरे जैसे पुरातनपंथी ...”द सो कॉल्ड अनसिविलाइज़्ड एण्ड नींडर्थल विलेज़ पीपुल ऑफ़ मोतीहारी” ऐसे अनर्थकारी शब्द सुनकर बरबस बोल उठते हैं – साँकरी गली में मातु मेरी काँकरी गड़त है ।

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