असामान्य और सामान्य के मध्य की मिटती विभेदक रेखा क्या प्रकृति को चुनौती देने वाली हो सकती है? क्या अब मानव मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा के कुछ अध्यायों को नये सिरे से लिखना होगा?
समलैंगिक अधिवक्ता सौरभ
कृपाल को दिल्ली हाइकोर्ट का जज नियुक्त किया गया है जिसके बाद लाख टके का एक प्रश्न
यह उठने लगा है कि क्या ऐसा कोई व्यक्ति इस प्रकार के प्रकरणों की सुनवायी करते समय
स्थितप्रज्ञ हो सकेगा?
समलैंगिकता को अब पर्वर्टेड
सेक्सुअल बिहैवियर नहीं माना जायेगा तो क्या सनी लियोनी की तरह ऐसे लोग हमारे आदर्श
व्यक्तियों की सूची में स्थान बनाने में सफल होते जायेंगे और लोग अपने आदर्श व्यक्ति
के चरण चिन्हों पर चलने का प्रयास नहीं करेंगे?
न्यायाधीश को मनसा-वाचा-कर्मणा
स्थितिप्रज्ञ होना चाहिये जो कि इस पद के लिये एक गरिमामय एवं आदर्श स्थिति है । मनोचिकित्सक
मानते रहे हैं कि सेक्सुअल पर्वज़न एक असामान्य मानसिक और वैचारिक स्थिति है जिसके पीछे
व्यक्तिगत, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक
या परिवेशजन्य कारण हो सकते हैं । चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से भी पुरुष समलैंगिकता
स्वास्थ्य के लिये चुनौतीपूर्ण हो सकती है । हैती की वे समलैंगिक घटनायें अभी बहुत
पुरानी नहीं हुयी हैं जो अंततः एड्स जैसी घातक व्याधि को जन्म देने का कारण बन गयी
थीं ।
सुप्रीम कोर्ट के कुछ न्यायाधीश
सेवानिवृत्त होने के बाद न्यायव्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करते रहे
हैं । इसलिये अब मैं पुनः स्थितिप्रज्ञता की बात करूँगा, क्या ऐसा
कोई व्यक्ति न्यायाधीश होने के बाद वादी या प्रतिवादी के शारीरिक आकर्षण के मोह से
मुक्त रहकर निष्पक्ष न्याय कर सकेगा ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.