“सर तन से जुदा” वाले निरंकुश समाज के साथ हर क्षण खड़े रहनेवाले धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की अन्य समाजों, देशों और मानवता के लिए क्या उपयोगिता हो सकती है!
इस बार उदयपुर में “सर तन से जुदा” की धमकीशुदा एवं प्रतीक्षित घटना के
हो जाने के बाद जिहादियों की घड़ियाली निंदा करने की सैकड़ों विषाक्त बुद्धिजीवियों
की विवशता का विश्लेषण किया जाना भारत और सनातन संस्कृति के अस्तित्व को बचाने के
लिए अपरिहार्य है। अभी भी रविश कुमार, बरखादत्त, अनुराग भदौरिया और मादिर कादरी जैसे हजारों लोग इस घटना का कारण हिन्दुत्व
और भाजपा को मानते हैं, बावजूद इसके कि नरेंद्र मोदी भी अन्य
राजनीतिज्ञों की तरह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम समाज के लोगों की तुष्टि के
लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहे। सदा की तरह विषाक्त बुद्धिजीवी बड़ी निर्लज्जता और दृढ़ता
के साथ कह रहे हैं कि यदि नूपुर को सजाए-ए-मौत दे दी गयी होती या जिहादियों को
सौंप दिया गया होता तो कन्हैयालाल की हत्या नहीं हुयी होती। वे एक कट्टर समाज की
निंदनीय कट्टरता के समर्थन में, और उनकी गतिविधियों को
न्यायोचित ठराने के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार रहते हैं। भारत ऐसे विषाक्त
बुद्धिजीवियों पर कभी अंकुश नहीं लगा सका।
ये लोग हत्या की निंदा करने की औपचारिकता
पूरी करने के साथ ही हत्या के कारणों का बड़ी दृढ़तापूर्वक समर्थन करने लगते हैं।
दिखाने के लिए ये लोग कन्हैयालाल की हत्या की औपचारिक निंदा तो कर रहे हैं किंतु
यह प्रश्न भी उठाते हैं कि नूपुर शर्मा को अभी तक सामूहिक यौनदुष्कर्म, जीभ काटने और हत्या करने के लिए जिहादियों के हाथों में क्यों नहीं सौंपा
गया? विषाक्त बुद्धिजीवियों की निंदा भी सशर्त होती है। इन
लोगों के सारे प्रयास कट्टरता और उसके विकास के लिए समर्पित होते हैं। क्या ऐसे
पत्रकारों, दुष्टता में पारंगत विद्वानों और छद्मविचारकों को
समाज में अपनी निकृष्ट और मानवताविरोधी गतिविधियों के लिए स्वतंत्रता मिलनी चाहिए?
भारतीय पत्रकारिता ने यह समाचार देने की आवश्यकता नहीं समझी कि कन्हैयालाल की दुकान के बाहर झाँक कर तमाशा देखने आयी बारह-पंद्रह लोगों की भीड़ नबी की ख़िदमत में किए जा रहे “सर तन से जुदा” वाला पुण्य कार्य देखते ही उल्टे पाँव भाग गयी, केवल ईश्वर सिंह ने उसे बचाने का प्रयास किया जो अब जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहे हैं। भारतीय पत्रकारिता ने यह भी समाचार देने की आवश्यकता नहीं समझी कि दोनों हत्यारों की ग़िरफ़्तारी के बाद जब उन्हें थाने लाया गया तो उन्हें छुड़वाने के लिए एक भीड़ ने थाने को घेर कर न केवल पथराव किया बल्कि तलवार से एक पुलिसकर्मी को गम्भीर रूप से घायल भी कर दिया। यह भीड़ किन लोगों की है? एक समाज के बारह-पंद्रह लोग जघन्य अपराध को देखकर भाग गये पर दूसरे समाज की एक भारी भीड़ ने उसी जघन्य अपराध को न्यायोचित ठहराने के लिए थाने पर पथराव कर दिया।
गजवा-ए-हिन्द का यह प्रयोग पूरी तरह सफल रहा। इस प्रयोग ने पूरे मुस्लिम समुदाय को यह संदेश दे दिया है कि गजवा-ए-हिन्द का प्रतिरोध करने की इच्छा और शक्ति न तो सरकार में है और न सनातनियों में, इसलिए जंग कभी भी शुरू की जा सकती है। एक भीड़ मिनटों में कहीं भी इकट्ठी हो जाती है जिसका प्रतिरोध करने कोई नहीं आता। किसी जंग को फ़तह करने के लिए भला और क्या चाहिए!
हत्या की धमकियों से भयभीत हुये कन्हैया लाल
ने सुरक्षा माँगी पर पुलिस ने उसे सुरक्षा नहीं दी। जब हत्या हो गयी तो उसकी
शवयात्रा को और उसके घर को पुलिस ने सुरक्षा प्रदान कर दी। क्या पुलिस कन्हैयालाल
की हत्या हो जाने की प्रतीक्षा कर रही थी? हम ऐसे नागरिक हैं
जो ऐसी ही व्यवस्था में जीने के लिए सरकारों को आयकर देते हैं। इस देश में मुनव्वर
राणा, आमिर ख़ान, नसीरुद्दीन शाह,
विशाल ददनानी, स्वरा भास्कर, बरखादत्ता, अनुराग भदौरिया और अखिलेश सिंह जैसों के
रहने के लिए प्रचुर उर्वरकता निर्मित की गयी है, किंतु
सनातनियों के लिए वास्तव में कहीं कोई स्थान नहीं है, क्योंकि
वे किसी गलत सोच या घटना का पूरी निष्ठा और दृढ़ता के साथ विरोध तक नहीं करते।
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