क्या हर व्यक्ति को प्रशासनिक अधिकारी, चिकित्सक या वैज्ञानिक बना दिया जाना चाहिये?
किसी
देश में उसके हर समुदाय और जाति को प्रतिनिधित्व क्यों? क्या
यह देश विभिन्न समुदायों और जातियों में खण्डित शक्तियों का देश है? क्या इस देश के नागरिकों में अभी तक समुदायों और जातियों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय
एकता जैसा कोई भाव नहीं बन सका है जो उन्हें यह अश्वासन दे सके कि लोकप्रतिनिधित्व
को विभाजित किये बिना ही उनके अधिकारों की रक्षा की जायेगी और उनके साथ किसी भी
तरह का अन्याय नहीं होने दिया जायेगा? क्या इस तरह का खण्डित
प्रतिनिधित्व किसी देश की एकता और समग्रता के लिए घातक नहीं है? क्या इस
तरह हम संविधान की विश्वसनीयता और जनप्रतिनिधियों की निष्ठा को संदेहपूर्ण नहीं बना
रहे हैं? क्या हम
जनप्रतिनिधित्व की अवधारणा के साथ परिहास नहीं कर रहे हैं?
प्रश्न यह
भी है कि अभी तक इस तरह के खण्डित प्रतिनिधित्व से देश को कितना बाँधकर रखा जा सका
है और जातीय आरक्षण से अभी तक कितनी जातियों का विकास किया जाकर उन्हें समानता की श्रेणी
में लाया जा सका है? यदि इन उपायों से देश को बाँधकर रखने में सफलता मिली है, अलगाववाद पर अंकुश लग सका है, सामाजिक विकास हो गया
है तो देश और समाज में इतनी विसंगतियाँ और खाइयाँ निरंतर बढ़ती क्यों जा रही हैं,
देश टूटने की ओर निरंतर अग्रसर क्यों होता जा रहा है?
प्रतिनिधित्व
की माँग एक ऐसा आयुध है जो अयोग्य लोगों और अपराधियों को भी समाज पर शासन करने का
अधिकार प्रदान करता है। प्रतिनिधित्व सहभागिता नहीं है, सत्ता
से बाहर रहकर भी समाज निर्माण में अपनी सहभागिता निभायी जा सकती है। सत्ता और
राजकीय सेवाओं में प्रतिनिधित्व और आरक्षण की माँग समाज को विभक्त करने और सामाजिक
विद्वेष की कृषि करने का बीज है, ठीक उसी तरह जिस तरह सेवाओं
में आरक्षण समाज की खाइयों को और भी गहरा करने का कारण है। आरक्षण और प्रतिनिधित्व
ने अभी तक प्रतिभाओं की हत्या ही की है, साथ ही देश की बागडोर
ऐसे लोगों के हाथ में थमा दी है जिसने देश और समाज को पतन और निराशा में धकेल दिया
है। ऐसा कोई भी समाज आगे नहीं बढ़ सकता जिसमें प्रतिनिधित्व और आरक्षण को सर्वोपरि
रखा जाता है। यह असामाजिक और अराजक तत्वों के ऐसे उपकरण हैं जो समाज की हत्या करते
हैं।
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