क्या हत्या का समाधान हत्या ही है?
मैं मृत्युदण्ड
की बात नहीं कर रहा हूँ, व्यक्तिगत और सामाजिक मर्यादाओं की रक्षा के लिए तो यह भी आवश्यक है। मैं व्यक्तिगत
अहंकार, सामाजिक मान्यताओं या असहिष्णुता जैसे कारणों से की जाने
वाली हत्याओं की बात कर रहा हूँ।
हत्या
और प्रतिहत्या की श्रृंखलाओं के परिणामों को हम भारत विभाजन के समय और फिर पिछले कुछ
दशकों में सीरिया और अफ़गानिस्तान आदि में भी देख चुके हैं।
हत्या
साम्प्रदायिक कारणों से हो या किसी अन्य कारण से, उसे रोका जाना
चाहिये। शासकों द्वारा अपने शासितों को दिए जाने वाले आश्वासनों में यह सर्वोपरि
है जिसके प्रति भारतीय शासक कभी गम्भीर नहीं रहे, आज भी गम्भीर
नहीं हैं।
“जीवन का
अश्वासन” लिखने के स्थान पर मैंने जानबूझकर “अ-हत्या” शब्द का प्रयोग किया है। जीवन
तो ईश्वर का दिया हुआ है, उसका आश्वासन भला कौन दे सकता है! सत्ताएँ हत्या न होने देने का भय दिखाकर
ही तो विशाल जनसमूह पर शासन करती आयी हैं। कुछ समय पहले एक प्रभावशाली व्यक्ति ने “प्रताड़ित
न करने” के मूल्य के रूप में अपने अधीनस्थ एक अधिकारी से बीस हजार रुपये झटक लिए। भय
की रचना करके ही तो सत्ताएँ प्रजा का दोहन कर पाती हैं। हम पतन की ऐसी स्थिति में पहुँच
चुके हैं जहाँ जीवन की सुरक्षा की बात नहीं बल्कि हत्या न करने के आश्वासन की बात होने
लगी है।
पाप और पुण्य
शिकार करना
ही जिनकी आजीविका है उनके लिए क्या पाप और क्या पुण्य! जब कोई भेड़िया किसी शेरनी के
बच्चों पर आक्रमण करता है तो भेड़िये की दृष्टि में यह उसका अधिकार है जबकि शेरनी की
दृष्टि में अक्षम्य अपराध। पाकिस्तान में बुरहान बानी की शहादत मनायी गयी जिससे भारत
के लोगों में रोष है। सुरों और असुरों के मूल्य एक से नहीं होते, जो हमारे
लिए पाप है वही पाकिस्तान के लिए पुण्य है। अद्भुत बात तो यह है कि विचित्र सिद्धांत
वाले लोग पाप और पुण्य को एक ही गुलदस्ते में सजाने का हठ कभी छोड़ना नहीं चाहते जबकि
वे अच्छी तरह जानते हैं कि भूखे भेड़िये गुलदस्ते में सो रहे सिंहशावकों को मार कर खा
जाते हैं। भारत के मामले यह और भी विचित्र है जहाँ सिंहशावक ही भेड़ियों के गुलदस्ते
में सोने का हठ करते रहे हैं।
कोई आक्रामक
हमारी दृष्टि में पापी हो सकता है किंतु स्वयं अपनी दृष्टि में वह अपने उन अधिकारों
का प्रयोग कर रहा होता है जो हर शासक अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए करता आया है।
पाकिस्तान और भारतीय कश्मीर में जिन लोगों की शहादत की बरसी मनायी जाती है वे उनकी
दृष्टि में उनके नायक हैं जबकि भारत की दृष्टि में आतंकवादी। वे मानते हैं कि यदि जिन्ना
और नेहरू को शासक बनने का अधिकार था तो यही अधिकार उन्हें भी क्यों नहीं! जिंगेज ख़ान, तैमूर
लंग, माओजेदांग, लेनिन और स्टालिन बनने
की महत्वाकांक्षा लिए ये लोग किसी लोककल्याण के लिए यह सब नहीं करते। यदि इनमें लोककल्याण
की भावना होती तो वे संत बनने की बात सोचते, सत्ताधीश बनने की
नहीं।
भौतिक सुखों
के चरम को राज सुख में देख पाने वाले लोगों को पृथक सत्ता की तीव्र लालसा होती है –
ममता, महबूबा, केजरीवाल, अब्दुल्ला,
अफ़ज़ल गुरु, बुरहानबानी और यासीन मलिक जैसे लोग
इसी श्रेणी के लोग हैं जो निरंकुश साम्राज्य स्थापित करने के लिए सतत संघर्षशील रहते
हैं।
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