ब्रिटिशर्स के बारे में कुख्यात है कि वे बड़े-बड़े अपराध या कांड कानून की सीमा में रहकर करना अधिक पसंद करते थे। उन्होंने एक उत्तराधिकार नियम बनाया जिसके अनुसार ब्रिटिश सत्ता को उन भारतीय राज्यों का उत्तराधिकार मिल जाया करता था जिनके राजाओं का कोई उत्तराधिकारी नहीं हुआ करता था।
किसी की
हत्या करनी है तो पहले एक कानून बनाकर हत्या करने का अधिकार अपने लिए सुरक्षित कर लो
फिर हत्या करके अपनी पीठ ठोंक लो, यह कहते हुये कि देखो हम कितने
नियम-कानून के पाबंद हैं! इस पूरी प्रक्रिया को आप अपनी सुविधा के अनुसार कोई भी नाम
दे सकते हैं, यथा – थियोक्रेसी, कानून,
दया, भाईचारा, तहज़ीब,
धर्म, दीन, मज़हब... या कुछ
भी।
याद कीजिये
उन चौदह सौ वर्षों को जब योरोप में चर्च सर्वाधिक शक्तिशाली हुआ करते थे। पाँचवी
शताब्दी में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद सत्ता की शक्तियाँ चर्च की ओर
स्थानांतरित होने लगीं जिससे चर्च शक्तिशाली होने लगे। आठवीं शताब्दी के मध्य तक
चर्च इतने शक्तिशाली हो गये कि उन्होंने कैथोलिक थियोक्रेसी को आधार बनाकर तीन
पैपल स्टेट्स पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इटेलियन पेननसुला में लगभग 1100 साल तक
पैपल स्टेट्स सत्ता में बने रहे। यह स्थिति सोलहवीं शताब्दी तक बनी रही।
इन 1100
सालों में सत्ता, समाज, शिक्षा, विज्ञान और व्यापार
आदि की सारी शक्तियाँ चर्च के पास केंद्रित हो गयीं। चर्च अपनी इन भौतिक शक्तियों को
मनमाने ढंग से बेचने लगे थे, यहाँ तक कि किसी भी पद के लिए एक
निर्धारित शुल्क चर्च को देकर कोई भी व्यक्ति उसे प्राप्त कर सकता था। परिणामस्वरूप
योरोप का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के दलदल में डूबता चला गया। थियोक्रेसी
की सत्ता बनाये रखने के लिए वैज्ञानिक शोधों पर भी चर्चों द्वारा कड़ी नज़र रखी जाने
लगी और वैज्ञानिकों को उनके शोधकार्यों के लिए दण्डित किया जाने लगा। योरोपीय समाज
और विज्ञान के लिए यह एक अंधकारयुग था। सत्य और सत्ता का गला घोटा जाने लगा जिससे उन्नीसवीं
शताब्दी में सत्ता को चर्च के विरुद्ध क्रांति के लिए सामने आना पड़ा और राज्यों ने
चर्चों से अपनी सारी शक्तियाँ वापस छीन लीं। 11 फ़रवरी 1929 में लैटिरन ट्रीटी के
द्वारा थियोक्रेसी को वेटिकन सिटी तक सीमित कर दिया गया। धार्मिक सत्ता वाले पैपल
स्टेट्स टूटकर 11 स्वतंत्र राज्य बने जो बाद में इटली, फ़्रांस
और वैटिकन सिटी के हिस्से हो गये।
कैथोलिक थियोक्रेसी के बाद यह एक नया युग था जब समाज, ज्ञान, विज्ञान, सत्ता, राजनीति, व्यवसाय आदि जीवन के सभी पक्षों को धर्म से मुक्त कर दिया गया। यह एक प्रतिक्रियाजन्य एवं एक और विकृत युग का प्रारम्भ था जिसने मनुष्य के आचरण को अधार्मिक बना दिया। भारत ने भी सत्ताहस्तांतरण के साथ ही योरोप के इसी विकृत युग को अपने ऊपर स्वेच्छा से थोप लिया जबकि भारत में इसकी कोई आवश्यकता ही नहीं थी। भारत में धर्म की अवधारणा पश्चिमी देशों से बिल्कुल अलग है जिसे मोहनदास करमचंद और जवाहरलाल नेहरू ने समझने और स्वीकार करने से बिल्कुल मना कर दिया।
पाँचवी
शताब्दी में रोमन साम्राज्य के पतन के दो सौ साल बाद यानी सातवीं शताब्दी में एक और
थियोक्रेसी ने जन्म लिया जिसे आज इस्लाम के नाम से जाना जाता है। अरब के लोग रोमन साम्राज्य
में कैथोलिक थियोक्रेसी के बढ़ते हुये जलवे को देख रहे थे। शायद उन्हें अरब के तत्कालीन
यज़ीदी धर्म में रहते हुये सत्ता पाने की कोई आशा नहीं थी इसलिए उन्होंने कैथोलिक थियोक्रेसी
के प्रभावों से सीख लेते हुये एक नयी थियोक्रेसी को स्थापित किया जिसके परिणाम उनकी
आशा से भी अधिक प्रभावी निकले। बहुत कम समय में इस्लामिक थियोक्रेसी ने सभी महाद्वीपों
में अपनी पहुँच बना ली।
यह इस्लामिक
थियोक्रेसी का ही प्रभाव है कि दुनिया में पहला इस्लामिक रिपब्लिक होने का ताज 1956
में पाकिस्तान ने पहना। इस्लामिक मुल्क स्थापित करने का दूसरा स्थान 1958 में मौरितानिया
ने बनाया, तीसरा स्थान 1979 में ईरान ने बनाया और चौथा स्थान 2004
में अफगानिस्तान ने बनाया, यानी मात्र 48 वर्षों
में चार देश इस्लामिक रिपब्लिक के नाम से स्थापित हुये। एक तरह से देखा जाय तो यह पाकिस्तान
की इस्लामिक विजय यात्रा है, जबकि सनातनी परम्परा के लोग अपनी
संस्कृति, सभ्यता, जनसंख्या और भूखण्डों
को निरंतर खोते जा रहे हैं।
भारत में
अघोषित रूप से इस्लामिक थियोक्रेसी की सत्ता लगभग स्थापित हो चुकी है। आज जब ईशनिंदा
के आरोप में थियोक्रेटिक्स द्वारा कमलेश तिवारी, कन्हैयालाल एवं ईश्वर
सिंह की हत्या की जा चुकी है और नूपुर शर्मा की हत्या की घोषणा की जा चुकी है,
हमें गैलीलियो गैलिनी और जियोर्दानो ब्रूनो को भी स्मरण कर लेना होगा।
बिना किसी
अपराध के लिए क्षमायाचना कर चुकीं नूपुर शर्मा को, उनके साथ सामूहिक यौनदुष्कर्म
करने और मृत्यु दण्ड के लिए थियोक्रेटिक्स को सौंप दिये जाने के लिये पूरे देश भर में
उत्पात मचा हुआ है। याद कीजिये, बिना किसी अपराध के क्षमायाचना
करने वाले गैलीलियो को क्षमादान के बाद भी बंदी बनाये रखा गया और उसी स्थिति में उनकी
मृत्यु भी हुयी, जबकि ब्रूनो को 17 फ़रवरी 1600 को रोम में एक
चौराहे पर जीवित जला दिया गया था। इन सभी लोगों को ईशनिंदा का आरोपी माना जाता है।
जियोदार्नो
ब्रूनो की नृशंस हत्या के बाद कालचक्र चार सौ वर्ष आगे निकल चुका है किंतु इतिहास पिछले
दिनों को दोहराने की ज़िद पर एक बार फिर अड़ गया है।
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