आप उसे कुछ भी कह सकते हैं किंतु वास्तव में उसके लिए कोई सम्माननीय सम्बोधन हो ही नहीं सकता। जो नृशंस हत्याकांड को बचकानी हरकत मान कर हत्यारों को माफ़ कर देने की अनुशंसा करता हो उसके लिए क्या सम्बोधन हो सकता है! इस तरह तो हर अपराधी को माफ़ कर दिया जाना चाहिये, या फिर अपराध की परिभाषा को ही बदल दिया जाना चाहिए। इस आदमी की बात मानी जाय तो नूपुर शर्मा की प्रतिक्रिया को अपराध और हत्यारों की जघन्यता को मासूमियत माना जाना चाहिए।
वकील से कांग्रेस के एमएलए और
फिर जज बने जस्टिस जेबी पादरीवाला बिना किसी तर्क एवं प्रमाण के ही यह मान चुके हैं
कि उदयपुर हत्याकाण्ड के लिए नूपुर की प्रतिक्रिया उत्तरदायी है। न्याय के मंदिर में
इस तरह कुछ मान लेना या समझ लेना पूरी तरह विधिशास्त्र के विरुद्ध है।
जज ने माना कि उनकी अंतरात्मा नूपुर
को कोई न्यायोचित रिलीफ़ देने के लिए तैयार नहीं है। जज की अंतरात्मा पर निश्चित ही
किसी शैतान की आत्मा का प्रभाव हो गया है अन्यथा वे इस तरह की हठपूर्ण, पूर्वाग्रही, अमानवीय और न्यायविरुद्ध
टिप्पणी नहीं करते।
सामान्यतः माना जाता है कि किसी व्यक्ति में न्यायविरुद्ध कुछ करने की प्रवृत्ति निरंकुशता और गुण्डत्व की परिचायक है।
जज की टिप्पणी से मौलाना और “सर
तन से जुदा” वाले लोग बमबम हैं। उन्हें
यकीन हो गया है कि वे जो कुछ बोलते और करते हैं, सब न्यायसंगत है, और उनका
“सर तन से जुदा” का सिद्धांत न्यायोचित है। जज की अनौचित्यपूर्ण टिप्पणी ने
मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध और अधिक हिंसक बना दिया है। राहुल की टिप्पणी से
भी मुसलमान उत्साहित हुये हैं। नूपुर को सजा देने वाले बयान फिर आने लगे हैं। नूपुर
समर्थकों की हत्याओं की श्रृंखला प्रारम्भ हो चुकी है। आपको याद है न! निर्भयाकाण्ड
के बाद इस तरह की घटनाओं पर अंकुश लगने के स्थान पर एक के बाद एक कई घटनाएँ नाबालिगों
द्वारा की गयीं!
अपराधियों के मन से कानून और दण्ड
का भय समाप्त हो चुका है। यह किसी भी शासन और न्यायतंत्र की बहुत गम्भीर अक्षमता है।
अपराधियों के समर्थकों द्वारा सेना और पुलिस पर आक्रमण कर देना अब सामान्य हो चुका
है। उदयपुर काण्ड के हत्यारों को मुक्त करने के लिए मुसलमानों की भीड़ ने न केवल थाने
पर पथराव किया बल्कि एक पुलिसकर्मी को भी तलवार से घायल कर दिया। क्या इससे यह प्रमाणित
होता है कि भारत में शासन और कानून जैसी कोई चीज है भी?
और अब सुप्रीम कोर्ट के जज की
भड़काऊ टिप्पणी ने हिन्दुओं को असुरक्षित कर दिया है जिससे गृहयुद्ध जैसी स्थिति
उत्पन्न होने की आशंका है। क्यों न जज के विरुद्ध देश को संकट में झोंक देने के
आरोप में जनहित याचिका के माध्यम से मुकदमा चलाया जाना चाहिए! कोई भी जज न तो ईश्वर
है और न उसके समकक्ष, वह उसका विकल्प
भी नहीं है। कोलेजियम सिस्टम की उत्तराधिकार परम्परा और शासनतंत्र की असफलताओं ने जजों
को स्वेच्छाचारी और अनुत्तरदायी ही नहीं बना दिया बल्कि एक तरह से तानाशाह भी बना दिया
है। यह सब बहुत चिंता का विषय है, विशेषकर तब और भी जबकि लोकतंत्र
भी केवल नाम भर का ही लोकतंत्र रह गया हो और आम आदमी की आशायें केवल न्यायतंत्र पर
ही टिकी हुई हों।
क्या अब जस्टिस एसएन ढींगरा जैसे
लोगों का युग समाप्त हो गया है! आख़िर जजों पर किसी तरह का कोई अंकुश क्यों नहीं है? वे भी मनुष्य हैं और मनुष्य होने के नाते उनमें
भी दुर्बलताएँ हैं। सम्मान छीन कर नहीं लिया जा सकता, हर किसी
को अपनी गरिमा, मर्यादा और कर्म से सम्मान अर्जित करना होता है,
और इस नियम में किसी के लिए न तो कोई आरक्षण नहीं है और न कोई शिथिलता।
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