रविवार, 15 दिसंबर 2024
घोडा़ नहीं मनुष्य हूँ
इतना आकर्षक लगा
कि दौड़ना ही जीवन बन गया हमारा,
कभी तनिक भी ठहरे नहीं हम
कि समीक्षा तो कर लेते एक बार।
दौड़ने की दिशा और लक्ष्य से
अनभिज्ञ बने रहे जीवन भर
ताँगे के घोड़े की तरह
हमने भी लगा लिये
दृश्य-अवरोधक (Blinkers)
अपनी आँखों पर
और मात्र
तीस प्रतिशत तक सीमित कर लिया अपना दृश्यक्षेत्र।
बूढ़े घोड़े को
अब कुछ भी दिखाई नहीं देता,
कभी अभ्यास जो नहीं किया था।
वह खोज रहा है
उस आत्म मुग्धता को
जिसमें डूब कर भी वह वंचित रहा
उस उपलब्धि से
जो वास्तव में उत्कर्ष होना था
उसके जीवन का।
धधक रहा है दावानल,
धू-धू कर जल रहे हैं लोग,
और आत्ममुग्ध वह
बजा रहा है वंशी चैन की।
आग तो बुझानी होगी
सब कुछ भस्म हो जाने से पूर्व।
नहीं...
यह घृणा नहीं है,
प्रयास है आत्म सुरक्षा का।
घृणा तो तुम करते हो
हमारे आत्म सुरक्षा के प्रयास से।
क्रूरतापूर्वक आक्रमण
होते रहे हैं हमारे ऊपर
तुम चाहते हो
बनी रहे उसकी निरंतरता
हम रोकना चाहते हैं हमारे उन्मूलन को।
हम इसे सभ्यता कहते हैं
तुम इसे हमारी संकीर्णता मानते हो ।
मुझे पता है
तुम खड़े होते रहे हो सदा
आक्रमणकारियों के साथ
कभी राजा आम्भिदेव बनकर
कभी राजा जयचंद बनकर
तो कभी राजा नरेन्द्र बनकर...
न जाने कितने रूप देखे हैं तुम्हारे
इस देश ने।
सभ्यताओं को नष्ट किया है
तुम्हारी प्रगतिशीलता ने,
स्वतंत्रता का अपहरण किया है
तुम्हारी अपसंस्कृति ने
जिसे
अब मैं देख पा रहा हूँ
पूरी स्पष्टता से ।
उतार फेके हैं मेंने
अपने दृश्य अवरोधक
और अब मैं
घोड़ा नहीं, मनुष्य हूँ।
रविवार, 8 दिसंबर 2024
धर्म, कबीला और काफिर
मोहम्मद यूनुस की सरकार के संरक्षण में बांग्लादेश के मुस्लिम नागरिकों और पुलिस द्वारा वहाँ के हिन्दू नागरिकों के साथ किये जा रहे उत्पीड़न और हिंसा के प्रति प्रतिक्रियायें भारत के साथ-साथ विश्व के अन्य देशों में भी हो रही हैं । जब व्यक्ति ही नहीं, पूरा समुदाय उत्पीड़ित होता है तब वह गम्भीर चिंता का विषय होना ही चाहिये । दुर्भाग्य से, नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस का स्थायी भाव से मुस्कराता चेहरा इस हिंसा पर दुनिया भर को अँगूठा दिखा रहा है । सामूहिक हिंसा की यह हठधर्मिता कबीलाई परम्पराओं का स्मरण दिलाती है ।
बांग्लादेश
निर्माण के समय वहाँ के हिन्दुओं के साथ जो हुआ (डॉक्टर तस्लीमा नसरीन की ‘लज्जा’) और अब जो हो रहा है वह हिन्दू
मूल्यों के विरुद्ध किया जा रहा एक विनाशकारी कबीलाई युद्ध है जिसे सामान्यतः धर्मयुद्ध
कह दिया जाता है । यह किसी पैशाचिक नृत्य से कम नहीं है जो बांग्लादेश और पाकिस्तान
में ही नहीं बल्कि भारत में भी होता रहा है, आज भी हो रहा है ।
अफ़गानिस्तान
में सत्ता की छीन-झपट के दोनों पक्षों में मुसलमान ही थे और अब सीरिया में सत्ता की
छीन-झपट में भी दोनों पक्ष मुस्लिम ही हैं । धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसायें
वस्तुतः सत्ता के लिए ही की जाती रही हैं । धर्म से उनका कुछ भी लेना-देना नहीं हुआ
करता । सत्ता की छीन-झपट के साथ-साथ यह सभ्यता और असभ्यता एवं संस्कृति और असंस्कृति
के बीच चलने वाला सतत युद्ध है जो न्यूनाधिकरूप में हर युग में होता रहा है । संस्कृति
और सभ्यता को हर क्षण सचेत रहना होता है, इसमें किसी भी प्रकार की उपेक्षा या उदासीनता विनाशकारी होती है
।
क्या यह धर्मयुद्ध
है ?
धर्म का
अभाव अधर्म है और उसका विकार विधर्म, तो यह अधर्म की स्थिति में विधर्म का आक्रमण है जिसमें कभी
यहूदी, कभी कुर्द, कभी यज़ीदी, कभी ईसाई, कभी बौद्ध, कभी जैन तो कभी हिन्दू समुदाय उत्पीड़न और नरसंहार के सहज लक्ष्य
हुआ करते हैं ।
मोतीहारी वाले मिसिर जी का यह टप्पा मननीय है – “गमन सनातन है, संयोग और वियोग उसका विज्ञान है, ऊर्ध्वगति और अधोगति उसका व्यवहार है । यह व्यवहार करने वाले पर निर्भर करता है कि वह उसका प्रयोग करता है, उपयोग करता है या फिर दुरुपयोग करता है”।
*बटेंगे तो
कटेंगे पर कुराजनीति*
योगी आदित्यनाथ
जी की चेतावनी – “बटेंगे तो कटेंगे” पर कुराजनीतिक नेताओं ने आपत्ति की है, पर वे अपने स्थान पर सही हैं, वे नहीं चाहते कि समाज एक हो, वे समाज को काटने के अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहते ।
सर्वाधिक अनुशासित
प्राणियों में चीटियों और मधुमक्खियों के साथ लकड़बग्घों
का भी स्मरण किया जाता है । लकड़बग्घों को पता है कि वे बटेंगे तो मारे जायेंगे एक साथ
रहेंगे तो सुरक्षित रहेंगे इसीलिए वे अपने एक भी सदस्य का कभी साथ नहीं छोड़ते । लकड़बग्घे
समूह में हों तो वे शेर पर भी आक्रमण करने से नहीं चूकते ।
भारतीय संस्कृति सीखने के अवसरों का स्वागत करती रही है । क्या हम लकड़बग्घों से इतना भी नहीं सीख सकते!
*अनुकरण थोपने
की हिंसा*
समाचार है कि
रतलाम में कुछ हिन्दू युवकों ने कुछ मुस्लिम किशोरों को पीटा और उनसे जय श्रीराम के
नारे लगवाये । इसे धार्मिक कृत्य समझने की भूल नहीं की जानी चाहिये । हिंसा से किसी
परम्परा या विचार का अनुकरण नहीं करवाया जा सकता, यह विधर्मी असभ्यता का हिंसक और निंदनीय कृत्य है जिसके लिए युवकों
को दण्डित किया ही जाना चाहिये । हमें अपने आदर्शों की कठोरता से रक्षा करनी होगी ।
इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और स्वास्थ्य समस्यायें
“आजीवन शोधकार्यों और आविष्कारों में लगे रहने वाले वैज्ञानिकों की बौद्धिक प्रतिभा का व्यवहार अवसरवादी राजनीतिज्ञ और उद्योगपति किया करते हैं या फिर आमजनता करती है जो मूर्ख होती है”। – मोतीहारीवाले मिसिर जी
और भी कई
लोग हैं जो मानते हैं कि – “Indiscriminative
applications of technical devices lead the society uncivilized. Techniques are
scientific but theirs applications may or may not be scientific”.
वैज्ञानिक
आविष्कार करते हैं, उद्योगपति धन उपलब्ध करवाते
हैं, टेक्नीशियन्स उपकरण बनाते हैं और उनका व्यवहार करने वाले लोग उन
उपकरणों का दुरुपयोग करते हैं जिससे समाज और भी असभ्य, क्रूर एवं स्वेच्छाचारी होता जाता है ।
सनातन
विज्ञानमय है पर आवश्यक नहीं कि विज्ञान भी सनातन हो, वह सापेक्ष हो सकता है, सार्वदेशज और सार्वकालिक नहीं । सनातन के मूल में प्रकृतिधर्म
है जो संतुलन बनाये रखने की ओर प्रवृत्त होता है जबकि विज्ञान की गति असंतुलन की
दिशा में भी दिखाई देती है, यही कारण है कि अधर्ममूलक विज्ञान
विश्व को अंततः विनाश की ओर ले जाता है । विकसित सभ्यतायें लुप्त होती रही हैं, आगे भी होती रहेंगी, सभ्यताओं का यही परिणमन है ।
एक प्रश्न
उत्पन्न होता है, क्या तकनीकी उपकरणों के
व्यवहार की अनुमति हर किसी को प्राप्त होनी चाहिये, और यह भी कि क्या नित्यप्रति
व्यवहृत होने वाले इन उपकरणों के व्यवहार के लिए लोगों को प्रशिक्षित नहीं किया
जाना चाहिये? ऐसे प्रशिक्षणों को इसलिए नहीं
नकारा जा सकता कि लोग इन प्रशिक्षणों से कोई सीख नहीं लेंगे । यह सच भी है, फिर भी हम उन्हें वंचित नहीं कर सकते जो अपने स्वास्थ्य के
प्रति गम्भीर हैं ।
इलेक्ट्रॉनिक
उपकरण घातक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन उत्पन्न करने के लिए कुख्यात माने जाते हैं
इसलिए इन उपकरणों के प्रति हमारा व्यवहार बहुत ही संतुलित, आवश्यकतानुरूप, सीमित और वैज्ञानिक तरीके से
ही होना चाहिए अन्यथा हमें कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ सकता
है जो सामान्य से लेकर गम्भीर, और यहाँ तक कि असाध्य भी हो
सकती हैं । विगत वर्षों में सामने आई ऐसी ही समस्याओं को लेकर वैज्ञानिकों में
व्याप्त चिंता के परिणामस्वरूप विज्ञान की एक नई शाखा “एर्गोनॉमिक्स” का जन्म हुआ
है जिसके बारे में अधिकांश चिकित्सकों को भी जानकारी नहीं है ।
हमें लगता
है कि चिकित्साशिक्षा के पाठ्यक्रमों में “एर्गोनॉमिक्स” को प्रीवेंटिव एण्ड सोशल
मेडिसिन के अंतर्गत समावेशित कर पढ़ाया जाना चाहिये ।
क्रमशः ...
सोमवार, 18 नवंबर 2024
भारत - स्वाभाविक हिन्दूराष्ट्र या इस्लामिकराष्ट्र
सोनिया
संचालित कांग्रेस सरकार ने अपने शासनकाल में वक्फ़ बोर्ड को असीमित शक्तियाँ देकर
मुसलमानों को भारत के विशाल भूभाग को शनैः शनैः हड़पने का निरंकुश मार्ग प्रशस्त कर
दिया था । इस हड़प-कुनीति से प्रभावित होने वाले केरल के ईसाइयों ने हिन्दुओं के
साथ मिलकर इस भू-अतिक्रमण के विरुद्ध न्यायालय की शरण ली है ।
भारत के मुसलमान बांग्लादेश को बहुसंख्यमुस्लिम होने के कारण और भारत को सेक्युलर देश होने के कारण इस्लामिक देश बनाने के लिये चुनौतीपूर्ण एवं हिंसक वक्तव्य देते रहते हैं । मुसलमानों के लिये “चित भी मेरी पट भी मेरी” वाली अकड़ अधिक सुविधाजनक होती है । दुर्भाग्य से भारत के भाजपा विरोधी हिन्दू इस सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहते । आश्चर्यजनक रूप से भारत के अच्छे मुसलमान भी (नाज़िया इलाही, याना मीर और अम्बर ज़ैदी जैसे मुट्ठी भर मुसलमानों को छोड़कर) मुस्लिम आतंक, भू-अतिक्रमण, सर तन से जुदा, थूक-जिहाद, मंदिरों और हिन्दू भक्तों पर हिंसक आक्रमणों आदि के विरोध में कभी कुछ नहीं बोलते । कांग्रेसी हिन्दुओं के साथ-साथ मुलायमपुत्र, लालूपुत्र और उनके समर्थक तो मुस्लिम आतंकवाद को सिरे से नकार ही नहीं देते बल्कि हिन्दुओं पर “हिन्दू आतंकवाद से पीड़ित मुसलमान” का मिथ्या आरोप गढ़ने लगे हैं जो उनके नैतिक पतन की पराकाष्ठा है ।
हाल ही में
बांग्लादेश में सत्ता अतिक्रमण के बाद से हुये परिवर्तन से उत्साहित वहाँ के अटॉर्नी
जनरल अपने संविधान से “समाजवाद” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्दों को हटाकर इस्लामिक मुल्क
की स्थापना करने के पक्ष में वातावरण तैयार कर रहे हैं । उनका तर्क है कि वहाँ के
नब्बे प्रतिशत निवासी मुसलमान हैं जिससे बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्ष छवि प्रस्तुत हो
ही नहीं सकती इसलिए बांग्लादेश को धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया जाना वहाँ के
जनमानस की वास्तविक भावना के विरुद्ध है । उन्होंने “इस्लामी राष्ट्रवाद” के पक्ष
में “बंगाली राष्ट्रवाद” जैसी अवधारणा का भी विरोध किया है । अटॉर्नी
जनरल ने शेख मुज़ीबुर्रहमान को “राष्ट्रपिता” माने जाने का भी विरोध किया है ।
बांग्लादेश के अटॉर्नी जनरल के विचारों और तर्कों का भारत के संदर्भ में विश्लेषण
किया जाना समीचीन है ।
राष्ट्रपिता
की उपाधि से जाने जा रहे मोहनदास गांधी को भारत सरकार द्वारा कभी राष्ट्रपिता
घोषित नहीं किया गया, वे भारत के राष्ट्रपिता हो भी नहीं सकते फिर भी वे अपनी इसी
उपाधि से व्यवहृत होते हैं जबकि बंगबंधु के नाम से जाने जाते रहे मुज़ीबुर्रहमान ने
बांग्लादेश को पाकिस्तान से मुक्त करने के लिये युद्ध तक किया पर अब वहाँ की जनता
उनके प्रति अपनी कृतघ्नता और घृणा व्यक्त करना चाहती है ।
बांग्लादेश
के अटॉर्नी जनरल ने सच ही कहा कि “धर्मनिरपेक्षता” बांग्लादेश की वास्तविक छवि
नहीं है, वहाँ की
नब्बे प्रतिशत जनता का वास्तविकि स्वरूप इस्लामिक है । बहुसंख्यवाद का यही
सिद्धांत भारत के लिये भी उपयुक्त क्यों नहीं स्वीकार किया जाना चाहिये! भारत के
अधिसंख्य मुसलमान “हिन्दूराष्ट्र” का विरोध करते हैं, कुछ लोग
खुलकर इसे इस्लामिक मुल्क बनाने के लिये षड्यंत्ररत हैं तो कुछ लोग धर्मनिरपेक्षता
का मुखौटा लगाकर इस्लामिक मुल्क बनाये जाने की भूमिकायें निर्मित करने में लगे
हुये हैं । बांग्लादेश के विपरीत भारत, ब्रिटेन, फ़्रांस और अमेरिका आदि पश्चिमी देशों में मुसलमानों की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता
मुसलमानों को ईसाइयों और हिन्दुओं से विद्रोह करने, उनका धर्मांतरण करने, उन पर सांस्कृतिक आक्रमण करने और वहाँ की मौलिक पारम्परिक
जीवनशैली को समाप्त कर शरीया के अनुरूप जीवनशैली लागू किये जाने के उद्देश्यों को
पूरा करने का छद्म मार्ग प्रशस्त करती है । कुल मिलाकर सभी का लक्ष्य एक ही है – पूरे
विश्व का इस्लामीकरण । भारत में दो-चार मुसलमान ऐसे भी हैं जो भारत को
हिन्दूराष्ट्र घोषित किये जाने के पक्ष में हैं ।
भाजपाविरोधी
नेता भारत में साम्प्रदायिक और जातीय ध्रुवीकरण तो करना चाहते हैं पर यदि हिन्दू
नीतियों की बात आती है तो वे महँगाई और बेरोजगारी का रोना रोते हुये हिन्दूवादी संगठनों पर
“हिन्दू-मुसलमान” करने का आरोप लगाने लगते हैं । वहीं दूसरी ओर वे “हिन्दू-मुसलमान
की गंगाजमुनी विरासत” की दुहाई देने से भी नहीं चूकते । मुसलमानों ने अपनी इन्हीं
चालों से पूरे विश्व में धर्मांतरण और फिर अलगाववाद को शिखर पर पहुँचाया है ।
मुसलमानों और सेक्युलर हिन्दुओं के लिए गंगा-जमुनी विरासत, साझी संस्कृति, भाईचारा, आपसी मेलजोल और सद्भावना जैसे झूठे शब्द केवल हिन्दुओं के विरुद्ध रचे जाने वाले षड्यंत्रों के साधन भर हैं, इस सत्य को समझने और स्वीकार करने में आड़े आने वाली मूर्ख हिन्दुओं की अदूरदर्शिता शीघ्र ही हिन्दू समुदाय के लिए बड़े स्तर पर आत्मघाती सिद्ध होने वाली है । हिन्दुओं को समझना चाहिए कि आपसी सद्भाव और मेलजोल से रहने की बात यदि सच होती तो राजस्थान में “सारा हिन्दुस्तान हमारा है, हिन्दुस्तान में रहना है तो अल्लाह-हो-अकबर कहना होगा” जैसे उत्तेजक नारे नहीं लगते, सम्प्रदाय के आधार पर भारत का बारम्बार विभाजन नहीं हुआ होता, पर्शिया मुस्लिम देश नहीं बना होता और येरुशलम यहूदियों, मुसलमानों और ईसाइयों के बीच विवाद का विषय न बना होता । यह कैसी दबंगई है कि मुसलमान तो भारत को इस्लामिक देश बनाने की राह पर डायरेक्ट एक्शन डे के दिन से ही चल पड़े पर एक स्वाभाविक हिन्दू देश होने के बाद भी इसे एकमात्र हिन्दू देश घोषित किये जाने का कुत्सित विरोध कर रहे हैं!
रविवार, 27 अक्टूबर 2024
कोरा कागज
इसोफ़ैगाइटिस
की चिकित्सा के लिए कोरबा से लुधियाना तक की यात्रा पर निकले उस ईसाई परिवार से
मेरी भेंट उनकी वापसी यात्रा में हुयी । परिवार में पुरुष के अतिरिक्त दो महिलायें और दो बच्चियाँ थीं । बड़ी बच्ची तेरह वर्ष की थी और मिलनसार थी
। उसकी माँ ने बताया कि बच्ची को इसोफ़ैजाइटिस था जो छत्तीसगढ़ में किसी डॉक्टर से
ठीक नहीं हुआ पर लुधियाना की उस चर्च में प्रार्थना से तुरंत ठीक हो गया । महिला
ने बताया कि वहाँ अंधे देखते हैं, बहरे सुनते हैं और लँगड़े दौड़ते हैं । उस चर्च की प्रार्थना अद्भुत है, वहाँ प्रार्थना के शब्द सुनते ही शरीर से शैतान निकलकर तड़पने
लगता है और हर तरह की व्याधि प्रभु की प्रार्थना से समाप्त हो जाती है ।
मूकं करोति
वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वंदे परमानंदं माधवम् ॥ ईश्वरीय कृपा
से असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं, कदाचित् यही आशय रहा होगा इस श्लोक का । पर लुधियाना की उस चर्च
में तो ऐसा ही हो रहा है, अक्षरशः वैसा ही, श्लोक के स्थूल अनुवाद जैसा ही ।
पञ्जाब और
छत्तीसगढ़ में ईसाइयत का बहुत प्रभाव है और उसके अनुयायियों की संख्या निरंतर बढ़ती
जा रही है । राजस्थान के बाला जी में भूत-प्रेत की चिकित्सा होती है और दिल्ली की
एक पुरानी ऐतिहासिक इमारत में एक मुल्ला जी का झाड़-फूँक चिकित्सालय है जिसमें हर
तरह की व्याधि की चिकित्सा से लेकर वशीकरण, खोया प्रेम पाने, सौतन को भगाने से लेकर न्यायालयीन निर्णय अपने पक्ष में करवाने
का भी ताबीज मिलता है ।
चमत्कारों
के अपने-अपने चौखट हैं, आस्था के अपने-अपने प्रतीक हैं
और विशिष्टता के लिए अपने-अपने ईश्वर हैं । अपने-अपने ईश्वर... बस मैं यहीं अटक
जाया करता हूँ । इतने सारे ईश्वर मेरे सामने पर्वत से आकर खड़े हो जाते हैं, मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, समाधान नहीं बल्कि समस्यायें चारो ओर से मुझे घेर लिया करती हैं
और मैं विद्रोही हो उठता हूँ ।
आधुनिक
विचारधारा के प्रगतिशील लोग चर्चों, मजारों और दरगाहों में जाते हैं जबकि पिछड़े और गँवार लोग बालाजी
जाकर अपनी समस्यायों से मुक्ति पा लेते हैं । हमने हिन्दुओं में फैले अंधविश्वासों, पाखण्डों, पिछड़ेपन और उनकी मूर्खताओं पर
अनवरत भाषण देने वाले पीएच.डी. होल्डर्स, प्रगतिशीलों और वामपंथियों को बड़ी श्रद्धा से चर्चों के सामने खड़े
होकर अपनी छाती पर बुदबुदाते हुये क्रॉस
का चिन्ह बनाते, मज़ारों और दरगाहों के सामने
हाथ जोड़कर झुकते हुये देखा है ।
उन्हें
धर्म के बारे में कुछ भी नहीं पता होता इसलिए वे धर्म का बँटवारा कर देना अधिक
तर्कसम्मत और लोकहितकारी मानते हैं । यही लोग धर्म पर प्रवचन देते हैं, गंगा-जमुनी सभ्यता का प्रचार करते हैं, सेक्युलरिज़्म की प्रशंसा करते हैं, संविधान की दुहाई देते हैं और नारा लगाते हैं “यह देश धर्म से
नहीं, संविधान से चलेगा” । हम भी कहते हैं – “दुनिया का कोई भी वृक्ष
अपनी जड़ों से नहीं, सूखे और टूटे हुये पत्तों की
खाद से ही अपना पोषण पायेगा”। यही विज्ञानसम्मत है, यही बुद्धिसम्मत है, और यही लोकतंत्र सम्मत भी है ।
मेरे पास
भी एक ईश्वर था, …नहीं, एक ईश्वर था जिसके पास मैं था । उनके पास उनके अपने-अपने ईश्वर
हैं, ईश्वर उनके पजेशन में है, वे ईश्वर के पजेशन में नहीं हैं । हर किसी को ईश्वर चाहिये ...
अपना-अपना ईश्वर, किंतु यह देश धर्म से नहीं
संविधान से चलेगा । ईश्वर और धर्म के ऊपर एक बार फिर जो चढ़ कर बैठ गया है वह
मनुष्य है अर्थात् मनुष्य की सत्ता सर्वोपरि है, ईश्वर तो उसका दास है । स्वयं को कृष्ण का वंशज बताने वाला
पप्पू यादव गोल टोपी लगाकर और हरी चादर ओढ़कर घोषणा करता है – “एक दिन पूरी दुनिया
इस्लाम न अपना ले तो मेरा नाम बदल देना”। लालूपुत्र भी कृष्ण के बंशज हैं जो
हिदुओं की ईंट से ईंट बजा देने के लिए कटिबद्ध हो कर खड़े हो गये हैं । स्वयं को
श्रीराम का वंशज बताने वाले शादाब चौहान को तो पुनरुद्धारित श्रीराम मंदिर फूटी
आँखों भी नहीं सुहाता ।
यह देश
संविधान से चलेगा, तो फिर धर्म से क्या चलेगा ? यदि धर्म से कुछ भी नहीं चलेगा तो फिर धर्म की किसी को आवश्यकता
ही क्यों है ? तुम्हारे सेक्युलर छल से कोटि गुना
अच्छा है “नो रिलीजन कांसेप्ट”। ढहा दो सारे मंदिर, सारे चर्च और सारी मस्ज़िदें ।
हाँ! तो
मैं उस बच्ची के बारे में बता रहा था कि वह बहुत अच्छी थी, इसलिए नहीं कि उसने आदिगुरु शंकराचार्य जी की ऐगिरि नंदिनि
नंदितमेदिनि विश्वविनोदिनि नंदिनुते... का सस्वर पाठ किया बल्कि इसलिये भी कि वह
इन्नोसेंट थी । उसे मेरे पास बैठकर अपने विद्यालय
और अपने बारे में बातें बताना अच्छा लगता था । उसने अपने कुछ वीडियोज़ दिखाये
जिसमें वह शास्त्रीय नृत्य करती हुयी दिखायी दी ।
बुधवार, 25 सितंबर 2024
दीप जला देना
दीप बुझे सब, घिर आये तम
तोड़ के सारे भ्रम के बंधन
तुम दीप जला देना
अब और नहीं सोना ॥
हठ झूठे संदेश भी झूठे
झूठे चरखे की झूठी धुन
अब और नहीं सुनना
अब और नहीं सोना ॥
जिसे अहिंसा कह भरमाया
निकली भीतर से वह हिंसा
तेरी झूठी बातों में अब, और नहीं पड़ना
अब और नहीं सोना ॥
जब रात घनेरी हो, पास कोई ना हो
बढ़ जायें असुरों के घेरे
आवाज हमें देना
अब
और न चुप रहना ॥
सनातन की धारा, है मिलकर बचाना
एक हैं हम ये, संकल्प लेना
अब दूर नहीं रहना
कभी दूर नहीं रहना ॥
सनातन हैं हम, सनातन रहेंगे
भगीरथ के वंशज, भगीरथ बनेंगे
यही सोच कर आज संकल्प लेना
अब और नहीं सोना ॥
विज्ञापन
पैकेज उपलब्ध है कैंसर स्केनिंग का /
प्रचार हो रहा है
स्क्रीनिंग करवा लो, कहीं देर न हो जाय
और यथाशीघ्र प्रारम्भ हो सके
तुम्हारी कीमोथेरेपी ...रेडियोथेरेपी
बहुत मूल्यवान है जीवन
सोना बेच देना, खेत बेच देना, घर बेच देना
ख़रीद लेना कुछ और साँसें
कुछ दिन और जी लेना
फिर तो मरना ही है
करोड़ों का खर्चा है
विज्ञापन बहुत महँगा है
वह भी तुम्हारी जेब से ही निकालना है
तुम क्या करोगे धन जोड़कर
तुम्हें तो मरना ही है
दिन भर टीवी देखा
रजनीगंधा, विमल और राजश्री के विज्ञापनों के बीच
नहीं मिला कोई विज्ञापन...
कि कैसे करें कैंसर से बचने का उपाय
रोकथाम नहीं बताता कोई
बताते हैं सब
ऐसे उपाय
जिससे होते हैं कैंसर
और फलते-फूलते हैं कई उद्योग
विज्ञापन बड़े निर्मम
होते हैं ।
छूत-अछूत-छुआछूत
छुआछूत का रणनीतिक इतिहास –
आर्यावर्त्त
में प्रवेश करने वाले विदेशी लुटेरे क्रूर, छद्माचारी और आक्रामक थे, उन्हें हर चीज को छीन लेना अच्छा लगता था । जो चीजें वे छीन नहीं
पाते थे उन्हें नष्ट करना या अपवित्र कर देना अच्छा लगता था । उनका विश्वास था कि वे
अपनी क्रूरता और निकृष्ट आचरण से पूरे विश्व की महाशक्ति बन सकते हैं और किसी को भी
अपने सामने झुकने के लिए विवश कर सकते हैं । वे अपने कुकृत्यों से हमारे उपयोग की वस्तुओं
को ही अपवित्र नहीं कर दिया करते थे बल्कि हमारी स्त्रियों और बच्चियों के साथ भी दुष्कर्म
कर हमें झुकाने का प्रयास करते थे । उनके प्रयास सफल होते रहे और उसी अनुपात में उनका
साम्राज्य भी विस्तृत होता गया ।
युद्ध का यह
एक ऐसा स्वरूप था जिसका प्रहार आर्यों को विचलित कर देता था पर उसका सामना कर पाना
उतना ही दुष्कर था । तब आर्यावर्त्त के लोगों ने विदेशी लुटेरों और उनके सैनिकों से
दूरी बनाना प्रारम्भ कर दिया । विदेशियों ने अपने आचरण से स्वयं को अस्पर्श्य बना लिया, वे जिस भी चीज को स्पर्श करते, आर्यावर्त्त के हिन्दू उसका उपयोग वर्ज्य कर देते । इस तरह प्रारम्भ
हुयी परिस्थिजन्य वर्जना पूरे आर्यावर्त्त में प्रचलित हुयी और छुआछूत बन गयी । छुआछूत
का यही इतिहास है और यही विज्ञान भी ।
फिर एक समय
आया जब छुआछूत को अपराध माना जाने लगा ...किंतु तब भी, बैक्टीरियोलॉजी और वायरोलॉजी में हुये नये शोधकार्यों के परिणामों
से चिकित्सक समुदाय में अस्पर्श्यता का सिद्धांत और भी दृढ़ होता गया । संक्रामक व्याधियों
ने छुआछूत के वैज्ञानिक स्वरूप को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया ...जिसे स्वीकार
करना आधुनिकता, उदारता और मानवता के विरुद्ध माना
गया । संक्रामक व्याधियाँ नये-नये रूपों में प्रकट होने लगीं, जाते हुये ट्युबरकुलोसिस ने बोविन का रूप रखा, पलटकर आधुनिकता को देखा और मुस्कराकर वापस आ गया । रूप परिवर्तन
में दक्ष कोरोना जैसे कई वायरस भी स्वच्छंद घूमने लगे । आर्यावर्त्त के तथाकथित प्रबुद्ध
लोग प्राणभक्षी विषाणुओं के लिए सहज भोज्य के रूप में उपलब्ध हुए किंतु वे इतने प्रोग्रेसिव
थे कि विश्व भर में कोरोना के ग्रास में समा चुके लाखों लोगों के बाद भी उन्होंने छुआछूत
के बारे में दोबारा सोचने की आवश्यकता भी नहीं समझी । वे थूक मिला हुआ फलों का रस पीते
रहे, थूक लगे पात्रों में होटल की मिठाइयाँ और थूक लगी तंदूरी खाते रहे
। असुरों ने आर्यों की इस अनार्य सोच का लाभ उठाया और पहले से भी अधिक असुर बनते चले
गये ...निर्भय असुर ।
अगले पचास या
एक सौ वर्ष बाद फिर एक सोशियो-रिलीजियस इतिहास लिखा जाएगा ...एक्कीसवीं शताब्दी के
तृतीय दशक के खण्डित भारत का इतिहास । लिखा जायेगा –
“वे विदेशी अनार्य स्वयं को “डरा
हुआ” प्रचारित करते थे और सरकारी सम्पत्तियों एवं रेल आदि परिवहन सेवाओं को इस तरह
क्षतिग्रस्त कर दिया करते थे जिससे एक साथ हजारों लोग दुर्घटनाग्रस्त हो कर मर जायँ
या घायल हो जायँ । वे थूकते भी रहते थे – खाने-पीने की चीजों में, पानी की बोतलों में, खाली बरतनों में, कुओं में, बाबड़ियों में, चेहरे पर लगायी जाने वाली क्रीम में, साबुन में... हर उस चीज में जिसे हिन्दू अपने उपयोग में ला सकते
थे । उन्होंने हिन्दुओं के मंदिरों की व्यवस्था के लिए राजाज्ञा प्राप्त कर ली और उनके
आराध्य को लगाये जाने वाले भोग एवं भक्तों को वितरित किए जाने वाले प्रसादम् के निर्माण
में सुअर एवं गाय की चर्बी का व्यवहार कर शताब्दी का सर्वाधिक विकृत सांस्कृतिक प्रहार
करना प्रारम्भ कर दिया था । उनका साथ देने के लिए अनार्य हिन्दुओं की कई शक्तियाँ हर
पल कटिबद्ध रहती थीं । यह एक ऐसा आक्रमण था जिसकी विजय के बारे में केवल आक्रामक को
ही जानकारी हुआ करती थी जबकि पराजितों की विशाल भीड़ को कई दशकों तक इसकी भनक भी नहीं
लग पाती थी । शंकराचार्यों, पीठाधीशों, संतों और पराजितों को जब तक इसकी सूचना प्राप्त हो पाती तब तक सप्तसिंधु
में न जाने कितना जल बहकर जा चुका होता था । यह गजवा-ए-हिन्द था जिसमें विदेशी अनार्यों
ने आर्यों पर बहुत बड़ी भावनात्मक विजय प्राप्त कर ली थी । न्यायाधीश और दण्डनायक किंकर्तव्यविमूढ़
हो गये किंतु उन्होंने अस्पर्श्यता को लोकव्यवहार के लिए अभी भी वर्ज्य और अपराध ही
बनाये रखा । भ्रष्ट कोलेजियम प्रणाली से चुने जाने वाले न्यायाधीशों द्वारा खान-पान
के छद्मरूपधारी व्यवसायियों को अपना परिचय देने या न देने की स्वतंत्रता दे कर उन्हें
गजवा-ए-हिन्द के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा । खण्ड-खण्ड हो चुके भारत पर बाहरी
और आभ्यंतर दोनों दिशाओं से आक्रमण पर आक्रमण होते रहे ...और विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक
एवं सुसंस्कृत सभ्यता पर संकट के घने बादल छा गये” ।
रविवार, 22 सितंबर 2024
एक वामपंथी की चिंतन यात्रा
सुशांत सिन्हा ने अपने कल के पोडकास्ट में शेहला रशीद को राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत किया है । सुशांत का प्रयास उस सोच का परिणाम है जो भारतीय मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती है । उनका प्रयास सराहनीय और अनुकरणीय है । आज मैं एक बार फिर शेहला की चिंतन यात्रा पर लिखने के लिए विवश हुआ हूँ । मैं अपनी पुस्तक “प्रतिध्वनि” में शेहला का उल्लेख कर चुका हूँ, वह नकारात्मक था, इसलिए अब यह मेरा लेखकीय और नैतिक दायित्व बनता है कि शेहला पर एक और लेख लिखा ही जाना चाहिये ।
कन्हैया और
उमर ख़ालिद को बहुत पीछे छोड़ चुकी शेहला ने वामपंथ की संकुचित सीमाओं का अतिक्रमण
कर चिंतन के जिस क्षेत्र में प्रवेश कर पाने में सफलता प्राप्त की है वह अद्भुत्
और अनुकरणीय है । अब यह लड़की जे.एन.यू. की संकुचित सीमा से निकलकर पूरे भारत की
बेटी बन चुकी है । यह सरल नहीं है, हर किसी के लिए सम्भव भी नहीं है । शेहला ने इस स्थिति तक
पहुँचने के लिए जितना आत्मचिंतन, मंथन और द्वंद्वों का सामना
किया है उस सबने भारत की चिंतन प्रक्रिया और उसके महत्व को और भी पुष्ट किया है ।
इस स्थिति को प्राप्त करना पुनर्जन्म की प्रक्रिया से लेश भी कम नहीं है ।
मार्क्स और
लेनिन के सिद्धांतों को सुनना, समझना, विश्लेषण करना और उससे होकर जाना बुरा नहीं है । बुरा है उसकी
व्यावहारिक और राजनीतिक प्रक्रिया से चिपक जाना । मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि सूचना
संक्रांति के इस काल में हर युवक को एक बार तो वामपंथ के समीप आना ही चाहिये किंतु...
इसके बाद वामपंथ से होते हुए आगे निकल जाना चाहिए । यह तब होगा जब हम मार्क्स और
लेनिन के सिद्धांतों, मार्गों और व्यावहारिक पक्षों
की निष्ठापूर्वक बायोप्सी कर सकेंगे । समुद्र मंथन की यह प्रक्रिया युवकों को लोककल्याणकारी
सिद्धांतों और उनके उत्कृष्ट व्यावहारिक पक्षों के चयन का मार्ग प्रशस्त करती है ।
यह प्रक्रिया व्यक्ति को आलोचना से आत्ममंथन और आरोप से स्व-दायित्वों के बोध की
ओर ले जाती है । राष्ट्रभक्त होने के लिए और क्या चाहिए!
यदि हम वामपंथ
को अच्छी तरह समझ कर उसमें से होते हुये आगे बढ़ जाएँगे तो वामपंथ बहुत पीछे छूट जायेगा । इस बात को यूँ भी समझा जा
सकता है कि जिसने वायरोलॉजी और इम्यूनोलॉजी को अच्छी तरह समझ लिया है वह
वैक्सीनेशन के व्यावहारिक और अव्यावहारिक पक्षों को भी अच्छी तरह समझ लेगा, तब वह वैक्सीनेशन के पक्ष में नहीं, उसके विरोध में खड़ा मिलेगा । शर्त यही है कि वायरोलॉजी और
इम्यूनोलॉजी को पृथक-पृथक समझने के स्थान पर एक-दूसरे के संदर्भ में समझा जाय ।
यही कारण है कि आज शेहला रशीद पूरे भारत की बेटी बन गयी है ।
विचार और
आचरण व्यक्ति को लोकप्रिय या अलोकप्रिय बनाते हैं । कभी आपकी तरह मैं भी शेहला का
मुखर विरोधी रहा हूँ, आज प्रशंसक हूँ । यह वैचारिक
क्रांति विचारणीय है विशेषकर शेहला के पुराने साथियों के लिए । आज भी बहुत से लोग
हैं जो शेहला के विरोधी और निंदक हैं किंतु जे.एन.यू. के दिनों से लेकर आज तक की
उनकी विचारयात्रा उन्हें विशिष्ट बनाती है इसलिए हमें शेहला के लिए एक स्थान रखना
ही होगा जो जे.एन.यू. की शेहला से पूरी
तरह भिन्न है ।
वामपंथियों
की चिंतन और संप्रेषण शैली युवकों को प्रभावित करती है । वह बात अलग है कि उसमें
विशदता और व्यापकता का अभाव है । दक्षिणपंथियों की चिंतन और संप्रेषण शैली युवकों
को पाखंडपूर्ण लगती है जबकि उसमें विशदता और व्यापकता का विहंगम आकाश होता है ।
कन्हैया और उमर ख़ालिद एक संकुचित विवर में बंदी हो कर रह गये हैं जबकि शेहला मुक्ताकाश
की स्वतंत्र पंछी बन चुकी है । मैंने पहले जो लिखा वह उस समय का यथार्थ था. आज जो
लिख रहा हूँ वह आज का यथार्थ है ।
वामपंथ से
प्रभावित इस कश्मीरी लड़की की राजनीतिक यात्रा निर्भया कांड के विरोध प्रदर्शन से
प्रारम्भ होती है जो धीरे-धीरे तत्कालीन सत्ता और व्यवस्था के विरोध की ओर बढ़ती
रहती है । उस आयु में भ्रष्टाचार, असमानता, परम्परा और यथास्थिति आदि के प्रति विद्रोह और एक आदर्श व्यवस्था के लिए
क्रांति का उत्साह होता है, होना भी चाहिये । मार्क्सवाद का
यही पक्ष युवकों को आकर्षित करता है । वह बात अलग है कि कुछ दूर चलने के बाद इस
आदर्श के पीछे का कुछ और ही सत्य सामने आता है । शेहला इसीलिए विशिष्ट है कि जो
सत्य वह देख सकी उसे कन्हैया और उमर ख़ालिद नहीं देख सके । इसीलिए कश्मीर की एक विद्रोही
लड़की ने मेरे जैसे अपने विरोधी को भी अपना समर्थक बना लिया है ।
मुझे इस लड़की
में एक और विशेषता दिखायी देती है, वह यह कि शेहला स्वयं अपने प्रति भी विद्रोही हो सकने का पोटेंशियल
रखती है । यदि यह लड़की कभी चुनाव में प्रत्याशी होती है और मुझे अवसर मिला तो मैं शेहला
के समर्थन में चुनाव प्रचार करने का इच्छुक रहूँगा ।