छुआछूत का रणनीतिक इतिहास –
आर्यावर्त्त
में प्रवेश करने वाले विदेशी लुटेरे क्रूर, छद्माचारी और आक्रामक थे, उन्हें हर चीज को छीन लेना अच्छा लगता था । जो चीजें वे छीन नहीं
पाते थे उन्हें नष्ट करना या अपवित्र कर देना अच्छा लगता था । उनका विश्वास था कि वे
अपनी क्रूरता और निकृष्ट आचरण से पूरे विश्व की महाशक्ति बन सकते हैं और किसी को भी
अपने सामने झुकने के लिए विवश कर सकते हैं । वे अपने कुकृत्यों से हमारे उपयोग की वस्तुओं
को ही अपवित्र नहीं कर दिया करते थे बल्कि हमारी स्त्रियों और बच्चियों के साथ भी दुष्कर्म
कर हमें झुकाने का प्रयास करते थे । उनके प्रयास सफल होते रहे और उसी अनुपात में उनका
साम्राज्य भी विस्तृत होता गया ।
युद्ध का यह
एक ऐसा स्वरूप था जिसका प्रहार आर्यों को विचलित कर देता था पर उसका सामना कर पाना
उतना ही दुष्कर था । तब आर्यावर्त्त के लोगों ने विदेशी लुटेरों और उनके सैनिकों से
दूरी बनाना प्रारम्भ कर दिया । विदेशियों ने अपने आचरण से स्वयं को अस्पर्श्य बना लिया, वे जिस भी चीज को स्पर्श करते, आर्यावर्त्त के हिन्दू उसका उपयोग वर्ज्य कर देते । इस तरह प्रारम्भ
हुयी परिस्थिजन्य वर्जना पूरे आर्यावर्त्त में प्रचलित हुयी और छुआछूत बन गयी । छुआछूत
का यही इतिहास है और यही विज्ञान भी ।
फिर एक समय
आया जब छुआछूत को अपराध माना जाने लगा ...किंतु तब भी, बैक्टीरियोलॉजी और वायरोलॉजी में हुये नये शोधकार्यों के परिणामों
से चिकित्सक समुदाय में अस्पर्श्यता का सिद्धांत और भी दृढ़ होता गया । संक्रामक व्याधियों
ने छुआछूत के वैज्ञानिक स्वरूप को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया ...जिसे स्वीकार
करना आधुनिकता, उदारता और मानवता के विरुद्ध माना
गया । संक्रामक व्याधियाँ नये-नये रूपों में प्रकट होने लगीं, जाते हुये ट्युबरकुलोसिस ने बोविन का रूप रखा, पलटकर आधुनिकता को देखा और मुस्कराकर वापस आ गया । रूप परिवर्तन
में दक्ष कोरोना जैसे कई वायरस भी स्वच्छंद घूमने लगे । आर्यावर्त्त के तथाकथित प्रबुद्ध
लोग प्राणभक्षी विषाणुओं के लिए सहज भोज्य के रूप में उपलब्ध हुए किंतु वे इतने प्रोग्रेसिव
थे कि विश्व भर में कोरोना के ग्रास में समा चुके लाखों लोगों के बाद भी उन्होंने छुआछूत
के बारे में दोबारा सोचने की आवश्यकता भी नहीं समझी । वे थूक मिला हुआ फलों का रस पीते
रहे, थूक लगे पात्रों में होटल की मिठाइयाँ और थूक लगी तंदूरी खाते रहे
। असुरों ने आर्यों की इस अनार्य सोच का लाभ उठाया और पहले से भी अधिक असुर बनते चले
गये ...निर्भय असुर ।
अगले पचास या
एक सौ वर्ष बाद फिर एक सोशियो-रिलीजियस इतिहास लिखा जाएगा ...एक्कीसवीं शताब्दी के
तृतीय दशक के खण्डित भारत का इतिहास । लिखा जायेगा –
“वे विदेशी अनार्य स्वयं को “डरा
हुआ” प्रचारित करते थे और सरकारी सम्पत्तियों एवं रेल आदि परिवहन सेवाओं को इस तरह
क्षतिग्रस्त कर दिया करते थे जिससे एक साथ हजारों लोग दुर्घटनाग्रस्त हो कर मर जायँ
या घायल हो जायँ । वे थूकते भी रहते थे – खाने-पीने की चीजों में, पानी की बोतलों में, खाली बरतनों में, कुओं में, बाबड़ियों में, चेहरे पर लगायी जाने वाली क्रीम में, साबुन में... हर उस चीज में जिसे हिन्दू अपने उपयोग में ला सकते
थे । उन्होंने हिन्दुओं के मंदिरों की व्यवस्था के लिए राजाज्ञा प्राप्त कर ली और उनके
आराध्य को लगाये जाने वाले भोग एवं भक्तों को वितरित किए जाने वाले प्रसादम् के निर्माण
में सुअर एवं गाय की चर्बी का व्यवहार कर शताब्दी का सर्वाधिक विकृत सांस्कृतिक प्रहार
करना प्रारम्भ कर दिया था । उनका साथ देने के लिए अनार्य हिन्दुओं की कई शक्तियाँ हर
पल कटिबद्ध रहती थीं । यह एक ऐसा आक्रमण था जिसकी विजय के बारे में केवल आक्रामक को
ही जानकारी हुआ करती थी जबकि पराजितों की विशाल भीड़ को कई दशकों तक इसकी भनक भी नहीं
लग पाती थी । शंकराचार्यों, पीठाधीशों, संतों और पराजितों को जब तक इसकी सूचना प्राप्त हो पाती तब तक सप्तसिंधु
में न जाने कितना जल बहकर जा चुका होता था । यह गजवा-ए-हिन्द था जिसमें विदेशी अनार्यों
ने आर्यों पर बहुत बड़ी भावनात्मक विजय प्राप्त कर ली थी । न्यायाधीश और दण्डनायक किंकर्तव्यविमूढ़
हो गये किंतु उन्होंने अस्पर्श्यता को लोकव्यवहार के लिए अभी भी वर्ज्य और अपराध ही
बनाये रखा । भ्रष्ट कोलेजियम प्रणाली से चुने जाने वाले न्यायाधीशों द्वारा खान-पान
के छद्मरूपधारी व्यवसायियों को अपना परिचय देने या न देने की स्वतंत्रता दे कर उन्हें
गजवा-ए-हिन्द के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा । खण्ड-खण्ड हो चुके भारत पर बाहरी
और आभ्यंतर दोनों दिशाओं से आक्रमण पर आक्रमण होते रहे ...और विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक
एवं सुसंस्कृत सभ्यता पर संकट के घने बादल छा गये” ।
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