यद्यपि ब्राह्मणों को कोसने और गालियाँ देने वालों की कमी नहीं है, तथापि लोग हैं कि ब्राह्मण होने का भ्रम उत्पन्न करने का मोह संवरण नहीं कर पाते।
जवाहरलाल की
बेटी फ़िरोज़ जहाँगीर गाँढी से निकाह करके “गाँढी” न होकर “गांधी” हो जाती है, उनके बेटे भी गुजराती उपनाम गांधी होने का भ्रम बनाए रखते हैं।
राजीव गाँढी का बेटा रौल विंची अपना नाम राहुल लिखना प्रारम्भ करता है और जातीय भ्रम
को और भी प्रगाढ़ बनाने के लिए कोट के ऊपर यज्ञोपवीत धारण कर स्वयं को दत्तात्रेय
गोत्र का ब्राह्मण घोषित कर देता है। दूसरी ओर राजीव गाँढी की बेटी प्रियंका
“बढेरा परिवार” में विवाह करके भी बढेरा न होकर गांधी ही बनी रहती है।
वर्णव्यवस्था, जातिप्रथा, क्षत्रियों, ब्राह्मणों और वेदों को कोसने वाले लोगों में जातीय उपनामों को लेकर ऐसे मोह
का उद्देश्य केवल जातीय भ्रम उत्पन्न करके वह सामाजिक लाभ प्राप्त करना होता है
जिसके लिए वे स्वयं को पात्र नहीं मानते। छत्तीसगढ़ में अनुसूचितजाति के कुछ सतनामी
लोग अपने नाम के साथ तिवारी, उपाध्याय, पांडे, व्यास, जोशी, चतुर्वेदी, पाठक, तोमर, भदौरिया, सेंगर, सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, राठौर, चौहान, चंदेल और बघेल आदि लिखकर जातीय भ्रम
उत्पन्न करने के लिए जाने जाते हैं। इससे भी अधिक आश्चर्यजनक यह है कि शासकीय सेवाओं
के समय ये स्वयं को सतनामी प्रमाणित करते हैं, सामाजिक परिचय के लिए छ्द्म उपनाम सवर्णों के अपना लेते हैं, विवाह के समय बौद्धपद्धति को अपना लेते हैं और अध्यात्म के स्तर
पर बाबा भीमराव अम्बेडकर को अपना इष्टदेव मानकर उनकी पूजा करते हैं। यह एक विचित्र
घालमेल है जहाँ केवल भ्रमों के जाल ही जाल होते हैं।
बिलासपुर
के स्थानीय समाचार पत्र में प्रकाशित एक शोक समाचार तो और भी अद्भुत है – “बिलासपुर, वैशाली अपार्टमेंट, टिकरापारा, मन्नू चौक निवासी बबीता पांडेय
का ९ जुलाई को निधन हो गया है। उनकी अंतिम यात्रा १० जुलाई को दोपहर ३ बजे उनके
निवास स्थान से तोरवा क्रिश्चियन कब्रिस्तान के लिए निकलेगी। वे
संजय पांडेय की पत्नी एवं सागर पांडेय की माता थीं”।
छत्तीसगढ़
और पंजाब में छद्मउपनाम वाले ईसाइयों और बौद्धों की भरमार है। ये लोग ईसाई
बपतिस्मा या बौद्धधम्म ग्रहण करने के बाद भी साहू, यादव, भदौरिया और पांडेय आदि ही बने
रहने का भ्रम उत्पन्न करके भारतीय व्यवस्था का एक साथ विरोध और समर्थन करके क्या
संदेश देना चाहते हैं यह समझ पाना सरल नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की क्या
कोई सीमा नहीं होनी चाहिए?
सवर्ण
समुदाय में जातिप्रथा की सीमाएँ तो लगभग समाप्त हो चुकी हैं। वे किसी भी जाति या
धर्म के लोगों से विवाह सम्बंध स्थापित कर रहे हैं, इसके बाद भी वे गालियों और अपमान के पात्र बने हुए हैं।
सवर्णेतर समुदाय के लोग जाति और वर्णव्यवस्था का विरोध तो करते हैं, उन्हें गालियाँ देते भी नहीं थकते पर जाति और वर्ण व्यवस्था
सूचक छद्म-उपनामों को अपनाकर उनसे चिपके भी रहना चाहते हैं। ऐसे लोग ही जाति और
वर्ण व्यवस्था की जड़ें और भी सुदृढ़ करने में लगे हुए हैं। जब आप जाति और वर्ण
व्यवस्था का विरोध करते हैं, ब्राह्मणों और क्षत्रियों को
गालियाँ देते हैं, उनका अपमान करते हैं तो उनके
उपनामों को अपना कर किस प्रकार की क्रांति का संदेश देना चाहते हैं? दूसरी ओर जब आप ईसाई सम्प्रदाय की दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं तो हिन्दुओं/सिखों
के उपनामों से चिपके रहकर क्या संदेश देना चाहते हैं?
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