सामान्य स्थितियों में जब किसी देश का सं-विधान चलत-चलते, घिसते-घिसते असं-विधान हो जाय या कोई देश विदेशी सत्ता के अधीन हो जाय तो वहाँ एक नए सं-विधान की आवश्यकता होती है। संविधान परिवर्तन का यही मूल सिद्धांत है जिसके आधार पर विश्व भर में पुराने संविधानों को हटाकर नए संविधानों की रचना की जाती रही है। स्वतंत्र भारत के कर्णधारों को श्रीराम और सम्राट विक्रमादित्य की शासन एवं न्याय व्यवस्था उपयुक्त नहीं लगी इसलिए उन्होंने विदेशी परम्परा के अनुसार पश्चिम के कई देशों के संविधानों का अध्ययन करके एक नए संविधान की रचना की, उन्हें यही उपयुक्त लगा। उनका विश्वास था कि इस संविधान से एक नए भारत की नींव रखी जा सकेगी, पर ऐसा हो सका क्या? भारत अंतर्कलह में फँसता चला जा रहा है और कोई व्यवस्था इसका निदान कर पाने में सफल नहीं हो पा रही है।
मध्यप्रदेश के एक थाना परिसर में, अनुमति लेने के बाद पुलिस कर्मचारियों ने हनुमान चालीसा का पाठ किया तो दिग्विजय सिंह को भारत के संविधान की अवहेलना दिखाई देने लगी और उन्होंने भाजपा को इसके लिए चेतावनी दे डाली। अर्थात् उनके अनुसार भारत में सनातन परम्पराओं, धार्मिक अनुष्ठानों और भारतीयता से सम्बंधित किसी भी कार्यक्रम का शासकीय कार्यालय में सार्वजनिक आयोजन किया जाना संविधान की अवहेलना है और थाना परिसर में हनुमान की मूर्ति लगाना साम्प्रदायिक है। इसका अर्थ यह हुआ कि दिग्विजय सिंह जैसे बहुत से सनातनविरोधी और इस्लामप्रेमी लोग यह बाध्यता उपस्थित कर रहे हैं कि यदि कोई स्वस्थ व्यक्ति पौष्टिक भोजन ले रहा है तो उसे वे औषधियाँ भी खानी ही होंगी जो एक रुग्ण खा रहा है, हिमालय के लोगों को भी वही कपड़े पहनने होंगे जो एक अरबी पहनता है, हिन्दुस्थान में रहने वाले हर व्यक्ति को “जय श्रीराम” नहीं बल्कि “या हुसैन” कहना ही होगा। फ़िलिस्तीन के लिए चिंतित होने वाले दिग्विजय सिंह जैसे लोग इज्राइली लड़कियों के साथ पाशविक यौनहिंसा पर और इस समय ब्रिटेन में हो रही हिंसा पर कभी कुछ नहीं कहेंगे। राजपूत राजवंश के रक्त में इतनी अभारतीयता दुःखद और विस्मयकारी है।
इस समय देश में सब कुछ संविधान
के अनुरूप ही हो रहा है, चाहे वह साम्प्रदायिक हिंसा हो, सेना पर पथराव हो, देश को विभाजित करने के नारे हों, न्यायालय के निर्णयों को “मानबो ना” कहकर किसी मुख्यमंत्री के द्वारा
अस्वीकार करना हो, सर तन से जुदा का नारा हो, खुले आम हिन्दुओं को मंदिरों के सामने लटका कर जीवित जला देने की
धमकियाँ हों, छद्म परिचय से हिन्दू लड़कियों से
शारीरिक संबंध स्थापित कर निकाह करना हो, धर्मांतरण करना हो, साम्प्रदायिक पहचान को छिपाते हुए देवी-देवताओं के नाम से ढाबे-भोजनालय
और दुकानें खोलना हो, अवैध विदेशी घुसपैठियों को भारत
की वे सभी सुविधाएँ उपलब्ध करवाना हो जिनके लिए वे पात्र नहीं हैं, सनातन प्रतीकों और धरोहरों पर बलात् अतिक्रमण करने वालों के विरुद्ध
न्यायालय में हिन्दू पक्ष के लिए लड़ने वाले अधिवक्ताओं को हत्या कर देने की धमकियाँ
देना हो, …सब कुछ संविधान के अनुरूप है! यही
कारण है कि ऐसी घटनाओं पर विघटनकारी नेताओं से लेकर न्यायालयों के मीलॉर्ड्स के कक्ष
तक एक गहरा मौन छाया रहता है।
इन घटनाओं
की पुनरावृत्तियों से यह प्रमाणित होता रहा है कि भारत की वर्तमान संवैधानिक
व्यवस्था बहुसंख्य लोगों के लिए न्यायपूर्ण, कल्याणकारी और उपयुक्त नहीं है। यह बात मुझे बहुत भयभीत करती है
कि भारत में रहकर भी हम भारतीय सभ्यता और संस्कृति के अनुसार जीवनयापन का अधिकार
क्यों नहीं रखते! जब विश्वविद्यालयों के व्याख्यानों में इस्लाम को महान और सनातन
को तुच्छ बताते हुए धर्मांतरण के लिए प्रेरित करना एवं शिक्षण संस्थानों के
परिसरों में सनातनविरोधी/ भारतविरोधी कार्यक्रम करना संविधान के अनुरूप माना जाने
लगे तो निश्चित ही ऐसे संविधान को तुरंत हटा दिए जाने की आवश्यकता है।
भारत का वर्तमान
संविधान महान है पर उसका पालन करने वाला यह देश महान नहीं हो सका, क्यों? कौन सी बाधाएँ हैं महान होने में? देश में विघटनकारी और हिंसक घटनाओं पर अंकुश क्यों नहीं लग पा रहा? भारत की सम्प्रभुता को बारम्बार ललकारने वालों पर कोई कार्यवाही
क्यों नहीं हो पाती? भारत का बहुसंख्य हिन्दू स्वयं
को असुरक्षित और भयभीत अनुभव क्यों करता है? क्या भारत का संविधान भारतीयों के लिए कम और सत्ताधीशों के लिए अधिक
है? क्या संविधान में इन प्रश्नों का भी कोई उत्तर है?
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