“मैं छह हजार साल पुराना पश्तून हूँ, एक हजार साल पुराना मुसलमान और सत्ताइस साल पुराना पाकिस्तानी हूँ“ – अब्दुल गनी खान ।
“मैं मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही सनातनी हूँ, वैदिक युग से हिन्दू हूँ; मैं लाखों वर्षों से अजनाभीय, आर्यावर्ती, भारतीय, जम्बूद्वीपीय और हिंदुस्थानी भी हूँ; मैं विश्वबंधु हूँ, प्रकृतिप्रेमी हूँ और सभी प्राकृतिक शक्तियों का उपासक हूँ इसीलिये मेरा संवाद असुरों से भी है और राक्षसों से भी, दैत्यों से भी है और देवों से भी, सोवियत रूस से भी है और अमेरिका से भी; मैं महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों के योद्धाओं के लिये बिना किसी पूर्वाग्रह और भेदभाव के भोजन की व्यवस्था करने वाला उडुपीनरेश पेरुंजोत्रुथियन भी हूँ; मैं आपातकाल में अपने शत्रुदेशों को भोजन और औषधि प्रदाता दानी भी हूँ; मैं चीनियों के लिये तियानझूवासी हूँ और हेरोडोट्स के लिये मात्र दो-सहस्र-दो-सौ-पच्चीस वर्ष पुराना इंडियन हूँ:....और यह भी स्मरण दिला दूँ कि मैं तुम्हारा जीजा धृतराष्ट्र भी हूँ”– मोतीहारी वाले मिसिर जी ।
आपकी कविता में जो “मैं” है, वो सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरी सभ्यता का भाव है। मुझे अच्छा लगा कि इसमें किसी पर हमला नहीं, सिर्फ अपनी जड़ें, अपनी यात्रा और अपना स्वभाव सामने आता है। यहाँ गर्व है, पर घमंड नहीं। इतिहास, भूगोल, संस्कृति और रिश्तों को आपने एक ही धागे में बांध दिया।
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