सुबह
सोकर उठा, तो देखा
मैं सलामत हूँ ......और मेरा घर भी
बाज़ार से
सब्जी भी लेकर आ गया घर
पर कुछ नहीं हुआ.
फिर ...... दफ्तर में भी गुज़र गया .........पूरा दिन
बिना किसी हादसे के.
शाम को बच्चे भी आ गए .........स्कूल से वापस
सही सलामत .
ताज्जुब है !
एक दिन और गुज़र गया सही-सलामत,
किसी ने
बदला नहीं लिया मुझसे.
क्या बताऊँ !
नेक दिल बना था,
जान का दुश्मन बन गया ज़माना.
तरक्की किसे नहीं है पसंद ?
पर क्या करूँ !
चाह कर भी नहीं बन पाया
चापलूस और बेईमान.
उल्टे, मेरे ही पीछे पड गए
सरकारी नुमाइंदे.
डर बना रहता है
न जाने कब .......
क्या हो जाए ?
दूर-दर्शन पर
हादसाईं ख़बरें देख-देख कर
दिल
अब बैठा .........कि तब बैठा होने लगता है
दहशत भरा
एक-एक लम्हा गुज़रता है
किसी अनहोनी के इंतज़ार में,
कहीं आज ..........मेरी बारी तो नहीं !
उन्नीस सौ सैंतालिस के बाद से
आज़ादी
निरंतर बढती जा रही है मेरे देश में
सिर्फ गुनाहों के लिए .
शराफत और इंसानियत .........
जिन्हें घायल कर गए थे अंग्रेज़
आज ...........उन्हें मार-मार कर
रोज़ दफ़न कर रहे हैं
हम ................हिन्दुस्तानी.
ऐ चक्रधारी !
अभी कितनी प्रतीक्षा और करोगे ..........
अधर्म के बढ़ने की ?
अब तो आंसू भी सूख गए हैं
और सूरज
न जाने कब का डूब चुका है .
बहुत बढ़िया सर, आपने तो मेरा डर भी बयान कर दिया...
जवाब देंहटाएंआनंद
shandar rachna....
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