बुधवार, 22 सितंबर 2010

सही-सलामत





सुबह
सोकर उठा, तो देखा
मैं सलामत हूँ ......और मेरा घर भी
बाज़ार से
सब्जी भी लेकर आ गया घर
पर कुछ नहीं हुआ.
फिर ...... दफ्तर में भी गुज़र गया .........पूरा दिन
बिना किसी हादसे के.
शाम को बच्चे भी आ गए .........स्कूल से  वापस
सही सलामत .
ताज्जुब है !
एक दिन और गुज़र गया सही-सलामत,
किसी ने 
बदला नहीं लिया मुझसे.

क्या बताऊँ !
नेक दिल बना था,
जान का दुश्मन बन गया ज़माना.
तरक्की किसे नहीं है पसंद ?
पर क्या करूँ !
चाह कर भी नहीं बन पाया 
चापलूस और बेईमान.
उल्टे, मेरे ही पीछे पड गए
सरकारी नुमाइंदे.
डर  बना रहता है
न जाने कब ....... 
क्या हो जाए ?
दूर-दर्शन पर  
हादसाईं  ख़बरें देख-देख कर 
दिल
अब बैठा .........कि तब बैठा होने लगता है
दहशत भरा
एक-एक लम्हा गुज़रता है
किसी अनहोनी के इंतज़ार में,
कहीं आज ..........मेरी बारी तो नहीं !

उन्नीस सौ सैंतालिस के बाद से
आज़ादी 
निरंतर  बढती जा रही  है मेरे देश  में 
सिर्फ गुनाहों के लिए .
शराफत और इंसानियत ......... 
जिन्हें घायल कर गए थे अंग्रेज़
आज ...........उन्हें मार-मार कर 
रोज़ दफ़न कर रहे हैं 
हम ................हिन्दुस्तानी.
ऐ चक्रधारी  ! 
अभी कितनी प्रतीक्षा और करोगे  ..........
अधर्म के बढ़ने की ?  
अब तो आंसू भी सूख गए हैं 
और सूरज 
न जाने कब का डूब चुका है .

2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.