शनिवार, 25 दिसंबर 2010

फुनगी पर टांग दिया ......

 नीम की एक ऊंची फुनगी पर
टांग दिया है मैंने 
अपना मोबाइल फोन.
पहले दिन तो बजते ही घंटी 
फुर्र से उड़ गयीं सारी चिड़ियाँ 
पर ज़ल्दी ही वे देखने लगीं उसे बड़े गौर से 
और अब तो चोंच से प्रहार भी करने लगी हैं 
उस बेजुबान बड़बड़िया पर
जैसे कि वे भी आ गईं हों आजिज़ ...मेरी तरह. 
आख़िरकार वह भी चुप हो गया 
दम निकल गयी होगी.....
मैं खुश हूँ 
आजाद ज़ो हो गया हूँ.
पहले उस नाचीज़ सी चीज़ नें 
जीना हराम कर रखा था मेरा.
अकेले में भी नहीं था अकेला ...करता रहता था बातें 
जैसे कि भीड़ में हूँ.
बिना किसी भीड़ के फंसा रहता था भीड़ में 
सोते-जागते, उठते बैठते, खाते-पीते
कभी तो अकेला हो पाता भला मैं  ! 
यहाँ तक कि जब मैं प्राकृतिक शंकाओं के समाधान में लगा होता 
वह दुश्मन सा ललकारता रहता मुझे 
मेरे समाधान की ऐसी-तैसी हो जाती....
....फिर दिन भर का तनाव 
.....पेट साफ नहीं हुआ न !
गुस्सा अलग से ....
पर अब मैं खुश हूँ ....ख़ूब खुश हूँ ...
आराम से शौच के लिए तो जा सकूंगा .
क्या हुआ ज़ो अब मैं 
अपने अजीजों से बहुत जरूरी बातें भी नहीं कर सकूंगा 
कुछ व्यवधान तो आएंगे ...पर 
दस साल पहले की ज़िन्दगी जीने का मज़ा तो आयेगा !
पत्नी की चिट्ठी के इंतजार में डाकिये का इंतजार 
किसी फरिश्ते से कम नहीं लगता था 
फिर मिलने पर चिट्ठी .......एक-एक हर्फ़ को पढना 
उंगली से छू कर महसूसना ....जैसे कि छू रहे हों उसके रेशमी बाल
हर्फ़-हर्फ़ बोलता था चिट्ठी का ......ठीक उसी की आवाज़ में
फिर  खोये  रहना कई-कई दिनों तक उस आवाज़ में 
जैसे कि भाँग का नशा हो ....
आज के लोग क्या जानें ...
ये तो कबूतर की पाती की तरह भूल जायेंगे 
डाकिये की पाती को भी 
और  
नहीं जान सकेंगे ...पत्र लिखने और पढने का
अवर्णनीय मज़ा.
तो आप कब टांग रहे हैं अपना मोबाईल ?   
   

6 टिप्‍पणियां:

  1. मेरा मोबाईल कभी बजता ही नहीं। हर तीन दिन के बाद उसे किसी कोने-अतरे से ढूंढकर चार्ज कर लेती हूँ। न दोस्त है कोई अपना। न मोबाईल पर कोई भार है।

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  2. आइये ......हम मिल कर आपके मरीजों का आभार करें....खुशकिस्मत हैं आप ...यहाँ तो मरीज़ बिना किसी भूमिका के दन्न से पूछना शुरू कर देता है ....."पिछले महीने ज़ो सीरप लिखा था उसे और पीना है क्या.....और उस गोली को बंद कर दूं क्या ...अब ठीक तो लग रहा है". वह कौन है ...क्या बीमारी है .....क्या दवाई लिखी थी ....कुछ पता नहीं ....
    हाँ मित्र हमारे भी कोई नहीं हैं.एक बेटी है ........पंजाब में ब्याही है....वह भी मेरी जैसी है ...फोन पर बतियाना अच्छा नहीं लगता उसे. और चलते-चलते........"हम आपसे नाराज़ हैं"

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  3. आभारी तो हम हैं आपके .....ब्लॉग पर आने के लिए आपने अपना मूल्यावन समय जो निकाला. बस यूं ही आते रहिये......हम हमेशा आपके इंतजार में रहेंगे ......

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  4. कौशलेंद्र जी!!
    सुविधा, आवश्यकता,भोग और विलासिता बनता यह यन्त्र विरक्त करता है वक़्त बेवक़्त... और इससे छुटकारा पाने का उपाय जो आपने बताया उचित है... किंतु कार्यालयीन बंधनों के कारण परित्याग भी कठिन है...
    अच्छी कविता..अब तो आना लगा रहेगा!!

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  5. hmmm
    sach he baba,,kyi baar khyaal ata he,....isiliye switch off hi kr deti hun....na bje baans ...na sune sangeet...LOL....hmm...pr ab iske bina zindgi kuch apaahiz si lgti he..kuch kaam to bas isi pe shuru hoke ispe khtam hote hain..tab lgtaa he.shurk he ye he...kabhi kahi apno ki fikr ko 2 mint me furr kr deta ..tab bahut pyaar aata he ispe.........:)

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.