सोमवार, 14 नवंबर 2011

सोचा ही नहीं


हमने तो 
ये कभी
सोचा ही नहीं
चाँद भी 
इस तरह
जलता है क्यूँ ? 

हिचकियों के 
ले थपेड़े
सिन्धु भर-भर 
नयन तेरे
डूबने को 
हैं बुलाते 
कौन जाने 
डूबकर 
कोई कुछ पाया भी है ?

कोई डुबाने पे अड़ा
डूबने को 
कोई खड़ा
खेल का ये सिलसिला 
जाने यूँ 
चलता है क्यूँ ?

आँसुओं की 
धार में वो 
साथ हमको 
बहा ले जायेंगे 
भावना के 
फेक पांसे 
वेदना दे जायेंगे.

प्रेम का नाम ले 
छल गए 
वो हमें,
दर्द पीने को ये 
दिल 
तड़पता है क्यूँ ? 

वो 
हर घाट पर
जा रहे 
रूठ कर 
"प्यास 
हमको नहीं 
घाट को थी लगी "
पीके जी भर पथिक 
झूठ कहता है क्यूँ ?
उनके हर झूठ पर 
दिल 
मचलता है क्यूँ ?              

5 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.