अभी तक मनुष्य समाज ने कई प्रकार की शासन प्रणालियाँ देखी
हैं । सबके अपने-अपने स्वर्णिम और पराभव काल रहे हैं किंतु आज तक कोई भी प्रणाली कितनी
भी अच्छी या बुरी होने के पश्चात् भी स्थायी नहीं रह सकी । सत्ताधीशों और उसके
प्रशासनिक सहयोगियों की मानसिकता सदैव एक सी नहीं रह पाती । कालांतर में उनके चरित्र
और विचारों में आयी शिथिलता से वे नैतिक पतन, लोभ, अकर्मण्यता आदि दुर्गुणों के
शिकार होने लगते हैं । मनुष्य चरित्र की यह एक स्वाभाविक स्थिति है ।
प्राचीन काल में इस शिथिलता को रोकने के लिये राजनीति पर
धर्म का अंकुश आवश्यक माना जाता था । यह एक प्रभावकारी उपाय था किंतु पश्चिम में
एक समय ऐसा भी आया जब धर्म स्वयं अधर्म के प्रतीक बनने लगे । धर्म जब भी अपने
प्रतीकों में जीने लगता है तो वह पाखण्ड बन जाता है । पश्चिम में यही हुआ, तब
तत्कालीन सामाजिक क्रांतियों ने राजनीति पर धर्म के नैतिक अंकुश को समाप्त कर दिया
। इसके साथ ही राजनीति से नैतिकता ही समाप्त होने लगी । सत्तायें निरंकुश और
अवसरवादी होने लगीं । एन-केन-प्रकारेण धन-संग्रह करना ही सत्ताधीशों का लक्ष्य
बनता गया । भारतीय राजतांत्रिक व्यवस्थायें और संघीय लोकतांत्रिक राजतंत्र भी इससे
अछूते नहीं रह सके और ये व्यवस्थायें भी नैतिक पतन का शिकार होती रहीं । फिर एक
ऐसा समय भी आया जब भारतीय उपमहादीप को अपनी सांस्कृतिक समृद्धता के पश्चात् भी
पराधीन होना पड़ा । सत्ताधीशों और उनकी प्रजा के मध्य असंतुलन, अविश्वास और धार्मिक
पाखण्ड की बहुलता की स्थिति ही वे प्रमुख कारण घटक थे जिनके कारण भारत को एक दीर्घ
काल तक विदेशियों के अधीन रहना पड़ा ।
पश्चिमी पराधीनता के समय में भारत की शासन प्रणाली पश्चिमी
राजनैतिक विचारों से अनुप्राणित होती रही । पश्चिम में राजनीति ने स्वयं को धर्म
से स्वतंत्र कर लिया और वह चारित्रिक एवं नैतिक दृष्टि से निरंकुश होती चली गयी ।
इस बीच आधुनिक औद्योगीकरण और सत्ता पर पूँजी के नियंत्रण ने राजनीति को प्रभावित
किया । राजनीति एक नये कलेवर में प्रकट हुयी जिसे पश्चिमी लोकतंत्र के रूप में
जाना गया । किंतु औद्योगीकरणजन्य श्रमशोषण की एक नवीन स्थिति ने एक और क्रांति का
सूत्रपात किया । मार्क्स, लेनिन और स्टालिन इसके सूत्रधार हुये । किंतु सैद्धांतिक
अतिवाद का शिकार होने के कारण इनकी सुझायी साम्यवादी व्यवस्था भी शोषणमुक्त समाज
की स्थापना कर पाने में अंततः विफल ही सिद्ध हुयी ।
यहाँ एक स्वाभाविक जिज्ञासा यह उत्पन्न होती है कि निरापद
शासन प्रणाली के समाज-मनोवैज्ञानिक तत्व क्या होने चाहिये जो उस व्यवस्था को स्थायित्व
दे सकें । वास्तव में कोई भी समाज-व्यवस्था स्थायी नहीं हो सकती । उसकी
दीर्घजीविता इस बात पर निर्भर करती है कि उस समाज के चिंतन की दिशा और दशा कैसी है
? उस समाज ने धर्म को किस रूप में समझा और उसका अनुशीलन किया है ? धर्म के तत्वों
की सामाजिक व्यावहारिक उपादेयता क्या और कितनी हो सकी है ? कोई भी शासन व्यवस्था
सैद्धांतिक दृष्टि से कितनी भी अच्छी क्यों न हो व्यावहारिक धरातल पर जब तक उसके
संचालकों, व्यवस्थापकों और जनता में उन सिद्धांतों के प्रति निष्ठा और व्यक्तिगत
नैतिकता का अभाव बना रहेगा वह व्यवस्था लोककल्याणकारी नहीं हो सकती । कोई भी
व्यवस्था जो लोककल्याणकारी नहीं है वह अधिक समय तक टिक नहीं सकती, एक दिन उसे मरना
ही होगा ।
परहितदमन, धन संग्रह की लालसा, ईर्ष्या, कर्मविमुखता, अधिकार
भावना आदि ऐसे वैकारिक तत्व हैं जो मनुष्य को अपनी दासता में जकड़ने के लिये सदा
प्रयत्नशील रहते हैं । सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग के अंत का कारण मनुष्य के
भीतर छिपे यही वैकारिक तत्व रहे हैं । उन-उन युगों की समाज और शासन व्यवस्थायें भी
इन्हीं विकारों के कारण समाप्त हो गयीं ।
वास्तव में देखा जाय
तो साम्यवाद एक तीव्र सामाजिक प्रतिक्रिया का परिणाम है जो शोषण और असमान
सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के गहरे कूपों से उबलकर उफनते हुये चीन, रूस, पोलैण्ड आदि
देशों में सामने आया । लाओ त्से, टालस्टाय, फ़्रेडरिक एंगेल्स और कार्ल मार्क्स ने
अपने-अपने तरीकों से सामाजिक असमानता और शोषण को समझने और उनके निराकरण के चिंतन
का प्रयास किया । माओ-त्से और ब्लादीमीर लेनिन ने साम्यवाद की अवधारणा को
अपने-अपने तरीकों से स्थापित और संचालित करने का प्रयास किया । निश्चित् ही कोई भी
न्यायप्रिय व्यक्ति सामाजिक असमानता और शोषण का समर्थन नहीं कर सकता । अतः
साम्यवाद एक न्यायिक व्यवस्था की आदर्श कल्पना है । फिर टकराव कहाँ है ?
पूँजीवादी व्यवस्था साम्राज्यवाद का ही एक आधुनिक स्वरूप है ।
इसे हम औद्योगिक साम्राज्यवाद भी कह सकते हैं । यह व्यवस्था श्रम और लाभ के
असंतुलित वितरण पर आधारित है और समाज में वर्गभेद की शातिर समर्थक है । आज पूरे
विश्व में जितने भी शासन तंत्र अस्तित्व में हैं उनमें से कोई भी वर्गहीन एवं
शोषणमुक्त समाज का दावा नहीं कर सकता । साम्यवादी प्रयोग भी स्थायी राहत नहीं दे
सके । हिंसा से समानता लाने का प्रयोग असफल हो चुका है । समाज में आज भी विषमता और
शोषण की छटपटाहट है किंतु सिद्धांतों के अतिवाद ने मनुष्य को और भी उलझाकर रख दिया
है ।
हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत में इस समस्या का हल खोजना होगा
। मैं सबको सावधान कर देना चाहता हूँ ... साम्यवाद ने सर्वाधिक क्षति अपने-अपने
देशों की मूल संस्कृतियों की की है । चीन में माओत्से तुंग ने साम्यवाद लाने के
लिये संस्कृतिक क्रांति का सूत्रपात किया था जिसमें चीनी संस्कृति को हर तरह से विनष्ट
करने का प्रयास किया गया ।
आख़िर क्यों साम्यवाद का चुम्बकीय आकर्षण इतनी ज़ल्दी क्षीण
होने लगता है ? साम्यवादी तंत्र धरातल पर आते ही उसी राह पर क्यों चल पड़ता है
जिसका वह सदा विरोध करता रहा है और जिसके लिये उसने न जाने कितना रक्तपात किया है
? यह हमारे लिये चिंतन का विषय होना चाहिये ।
रक्तपात से पायी गयी सत्ता अपने संचालकों को निरंकुश बना
देती है । यह निरंकुशता सत्ता की नीतियों के विरोध, विमर्श और विकल्पों के प्रति
असहिष्णु होती है जो साम्यवादीतंत्र को अंततः अधिनायकतंत्र की ओर ढकेल देती है ।
अब साम्यवादी देशों की जनता की मानसिकता का भी तनिक विश्लेषण कर लिया जाय ।
साम्यवाद व्यक्तिगत सम्पत्ति की एक सीमा निर्धारित करता है, उस सीमा के बाद सारी
सम्पत्ति राष्ट्र की होती है जिसकी रक्षा और अभिवृद्धि का दायित्व जनता और सरकार
दोनो का होता है । दायित्व को निष्ठा की अपेक्षा होती है जो मानवीय स्वभाव के कारण
क्रमशः क्षीणता की ओर अग्रसर होती जाती है । आम आदमी धीरे-धीरे उस सम्पत्ति की
उपेक्षा करने लगता है जो उसकी व्यक्तिगत नहीं है बल्कि सरकार की है । यह वैकारिक
मानसिकता राष्ट्रीयभावना को दुर्बल और राष्ट्रीयदायित्वों को शिथिल करती है । बस
यही कारण है कि साम्यवादी तंत्र ढहना प्रारम्भ हो जाता है । सामूहिक दायित्वों के
निर्वहन के लिये साम्यवादी सरकारें कठोर कानून बनाती हैं जिससे आमजनता दबाव में आ
जाती है और एक समय के पश्चात् यह दबाव जनविद्रोह के रूप में फूट पड़ता है ।
साम्यवादी तंत्र स्वयं भी भ्रष्टाचार की ग़िरफ़्त से स्वयं को बचा नहीं पाता, और वह
मानव सुलभ विकृतियों का शिकार हो जाता है । रूस, चीन, पोलैंड आदि इसके उदाहरण हैं
जबकि भारत में पश्चिम बंगाल और केरल इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । साम्यवाद की सबसे
बड़ी शक्ति और दुर्बलता उसकी असहिष्णुता है । और कोई भी समाज अधिक समय तक किसी
असहिष्णुता को झेल नहीं पाता ।
यह तय है कि आत्मशासित समाज की कल्पना एक ऐसा आदर्श है जो व्यावहारिक
धरातल पर बिल्कुल भी सम्भव नहीं है । साम्यवाद जिस वैश्विकसमाज, वैश्विकभाषा,
वैश्विकसंस्कृति और वैश्विकराष्ट्र की कल्पना करता है वह भी एक अव्यावहारिक आदर्श
कल्पना है ।
यहाँ हमें “साम्यवादी वैश्विकसमाज” और भारतीय “वसुधैव कुटुम्बकम्”
के अंतर को भी समझना होगा । साम्यवाद का वैश्विकसमाज विस्तारवाद का शिकार है जबकि भारत
में वसुधैव कुटुम्बकम् की ऐषणा पारस्परिक सहिष्णुता की आदर्श कल्पना है जो विश्व
को विनाशकारी युद्धों से बचाने की पृष्ठभूमि तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाती है ।
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