घड़े से
निकाला गया सा मुड़ा-तुड़ा पायजामानुमा पेण्ट, पसीने से भीगे कुर्ते की बद्बू, बढ़ी
हुयी दाढ़ी, बेतरतीब बाल, सस्ता सा चश्मा, उँगलियों में फंसी सिगरेट, ठेठ भोजपुरी
के बीच-बीच में फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी का तड़का और वर्गहीन समाज के साम्यवादी दर्शन
का काकटेल कुमारी भाग्यश्री शुक्ला के लिये अद्भुत था । पहली भेंट में ही कन्हैया
के सम्मोहक व्यक्तित्व ने भाग्यश्री को पागल बना दिया था । इस तरह आभिजात्य परिवार
की भाग्यश्री के भाग्य में एक विपन्न मज़दूर के अभी-अभी किशोर से वयस्क हुये बेटे
ने प्रवेश किया । यह प्रवेश बिजली के निगेटिव तार से पॉज़िटिव तार के स्पर्श जैसा
था जिसमें से निकलने वाली चिंगारी और आवाज़ को रोक सकना असम्भव था ।
दूसरी
भेंट में जबकि कन्हैया 15 रुपये वाली थाली के लिए लाइन में अपनी बारी की प्रतीक्षा
करते हुये राष्ट्रवाद की नितांत अद्भुत व्याख्या कर रहा था, भाग्यश्री का मन भी 15
रुपये वाली थाली के लिय एकदम से मचल उठा । उसने देर नहीं लगायी और कन्हैया के ठीक
पीछे जाकर खड़ी हो गयी । परफ़्यूम की ख़ुश्बू ने कन्हैया को पीछे मुड़ कर देखने के
लिये विवश किया तो भाग्यश्री ने मुस्करा कर सिर झुकाते हुये अभिवादन किया ।
कन्हैया ने आश्चर्य से बस इतना ही कहा – “अरे आप ! यहाँ का खाना खाने जा रही हैं
?”
भाग्यश्री
ने जैसे सफाई दी – “भूख लगी थी, कण्ट्रोल नहीं हो रहा था, सोचा आज आप लोगों के साथ
ही खा लूँ ।”
भाग्यश्री
का मन हो रहा था कि वह कन्हैया के कुर्ते से आ रही पसीने की बद्बू को एक बार नाक
लगाकर सूँघ कर देखे । उसे यह गन्ध पवित्र लग रही थी जिसमें साम्यवाद के फ़ेरोमोंस
मिले हुये थे ।
कन्हैया
ने काउण्टर पर थाली परोसवाने में भाग्यश्री की मदद की तो वह और भी निहाल हो गयी ।
अपनी-अपनी थाली ले कर जब दोनो मुड़े तो कन्हैया ने ही हाथ से इशारा करते हुये
भोजनालय के बाहर नीम के पेड़ के नीचे पड़ी बेंच पर बैठने का संकेत किया । भाग्यश्री
हर पल धन्य हो रही थी । उसे लग रहा था कि भारतीय समाज और राजनीति को दिशा देने के
लिये एक कृष्ण जन्म ले चुका है जो किसी भी दिन कंस का वध करने ही वाला है ।
कन्हैया को कोई रोक नहीं सकेगा, लाल क्रांति हो कर रहेगी ।
भाग्यश्री
ने कन्हैया के पसीने के बद्बू सूँघने की अपनी अदम्य इच्छा का दमन किया और अपने
भाग्य की ही प्रतीक्षा करना उचित समझकर कोमल मनोभावों को डाँटते हुये एक ओर पटक
दिया । कोमल भाव संकोची हुआ करते हैं, इसलिये वे शरमा कर एक ओर बैठ गये ।
तीन
महीने, मात्र तीन महीने में ही भाग्यश्री कन्हैया ब्रिगेड की महत्वपूर्ण सदस्य बन
गयी । अपराजिता सान्याल, सुतीर्थो घोष, अलीओसा, चन्दर, अब्दुल्ला, रुकइया और शिवा
के. राजू अब उसके अच्छे मित्र बन गये थे । भाग्यश्री के सामने जाति और धर्म की
दीवारों को तोड़कर प्रकट हुये इस दल का एक अद्भुत संसार था जहाँ कोई दीवार नहीं थी,
कोई खाई नहीं थी, कोई वर्ग नहीं था । वे सब विश्वसंस्कृति की पताका लेकर पूरे
विश्व को एक परिवार बनाने के लिये ढेरों समस्यायों पर बहस करते, ठेले की चालू चाय
सुड़कते, एक ही सिगरेट में तीन-तीन लोग कश लगाते और कभी-कभी ढपली बजा-बजा कर
क्रांति के गीत गाते । भाग्यश्री को विश्वास हो चला था कि वे लोग एक ऐसी क्रांति
के महानायक बनने वाले हैं जो न केवल भारत की बल्कि पूरे विश्व की किस्मत बदल देगी
।
किशोरावस्था
में अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित करने, वर्तमान को चुनौती देने और वर्जनाओं को
तोड़ने की अदम्य इच्छा व्यक्तिगत विकास की एक स्वाभाविक स्थिति है जो परिपक्वता और
सही मार्गदर्शन के साथ विस्थापित हो जाया करती है । किंतु भारत में एक ऐसा वर्ग भी
धीरे-धीरे अपने अस्तित्व में आ चुका है जो वयस्कों को किशोरावस्था में ही बने रहने
देने के लिये दिन-रात प्रयत्नशील है । विश्वविद्यालयीन शिक्षकों के प्रगतिवादी
समूह और अन्य साम्यवादी विचारकों के अद्भुत् वक्तव्यों ने विश्वविद्यालयीन
छात्र-छात्राओं को एक अनोखी क्रांति का जुझारू एवं आक्रामक सैनिक बना दिया है । इन
सैनिकों के आदर्श भारत की भौगोलिक सीमाओं से दूर बसते हैं । इनका एक वैचारिक
परिवार है जो पूरे विश्व को एक वर्गहीन-जातिहीन-धर्महीन समुदाय मानता है जहाँ समता
की नदियाँ बहती हैं । ये ईश्वर को मूर्खों और भाग्यवादियों की कल्पना मानते हैं और
धर्म को समाज की वैचारिक अफीम । पुनर्जन्म का कोई वैज्ञानिक अस्तित्व स्वीकार न
करने वाले ये सैनिक वर्तमान में जीते हैं और विज्ञान के ज्ञात तथ्यों तक ही दुनिया
के सत्य को स्वीकार करते हैं । ग़रीबी और अन्याय इनके प्रिय विषय होते हैं इसलिये
सहज जिज्ञासा, लालसा और महत्वाकांक्षाओं के बाद भी पाँचसितारा होटल के भोजन की कटु
आलोचनाओं के बीच किसी सस्ते ढाबे के दाल-चावल और चालू चाय में एक आम आदमी की
ज़िन्दग़ी के साम्यवादी वैचारिक तड़के के अहं के साथ ही काम चला लेते हैं ।
अपराजिता
और रुकइया के क्रांतिकारी विचारों और अद्भुत् तर्कों ने भाग्यश्री के मन मस्तिष्क
में बचपन से बैठे काल्पनिक देवी-देवताओं और पशुयोनि वाले अवतारों के मूर्खतापूर्ण
विचारों को विस्थापित कर मार्क्स, लेनिन, स्टालिन और माओ की मूर्तियों को
सुस्थापित कर दिया था । भाग्यश्री को विश्वास हो गया था कि भारत के दुर्भाग्य के
सबसे बड़े कारण यहाँ के लोगों की मूर्खता और ब्राह्मणों के षड्यंत्र ही हैं । उसे
अपने ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने की ग्लानि होने लगी थी । वह इस निष्कर्ष पर
पहुँच चुकी थी कि इन धूर्त और षड्यंत्रकारी ब्राह्मणों से इस देश को मुक्त किये
बिना समाज को प्रगतिशील बनाया जा सकना सम्भव ही नहीं है । अपनी ग्लानि से मुक्त
होने के लिये क्रांति का प्रारम्भ करते हुये भाग्यश्री ने दो काम किये, पहला तो यह
कि उसने कुमारी भाग्यश्री शुक्ला के स्थान पर कामरेड भाग्यश्री लिखना प्रारम्भ कर
दिया और दूसरा यह कि हिंदूवादी वर्जनाओं को तहसनहस करने के क्रम में सार्वजनिकरूप
से गोमांस खाने का निश्चय किया । दूसरा काम कठिन था, शाकाहारी ब्राह्मण परिवार की
कन्या के लिये मांसभक्षण करना संस्कारी मन पर कठोर प्रहार से कम नहीं होता किंतु
साम्यवादी क्रांति के लिये वर्जनाओं को तहस-नहस करना आवश्यक था । भाग्यश्री ने एक
दिन साहस करके अपराजिता और रुकइया के साथ बैठकर इस वर्जना को भी तोड़कर फेंक ही
दिया । अब वह स्वयं को खाँटी कामरेड कह सकती थी ।
आज कॉमरेड
दीपंकर महतो ने हिंदू धर्म का परित्याग कर इस्लाम धर्म अपना लिया था । इस
क्रांतिकारी पर्व को उत्साहपूर्वक मनाने के लिये गोमांस भोज का आयोजन किया गया ।
शिक्षित युवाशक्ति धर्म को अफीम स्वीकार कर चुकने के कारण धर्मविरोधी थी, किंतु
धर्म के प्रति उनका आक्रोश हिंदूधर्म के लिये ही प्रकट हो पाता था । इस्लाम अपनाते
समय कॉमरेड महतो यह भूल गये थे कि वे मात्र धर्मांतरण कर रहे थे, धर्म की अफीम से
मुक्ति का उपाय नहीं । एक खुले पार्क में गोमांस भोज का आयोजन किया गया । रुकइया
के साथ-साथ भाग्यश्री ने भी बड़े उत्साह से व्यवस्था में भाग लिया । गाय को अपनी
अम्मा मानकर पूजने वाले ज़ाहिल पशुतुल्य भगवावादियों द्वारा गड़बड़ी उत्पन्न किये
जाने की सम्भावनाओं के कारण पुलिस सुरक्षा की माँग की गयी और कुछ स्थानीय नेताओं
को भी आमंत्रित किया गया । कॉमरेड महतो के गोमांस भोज में स्थानीय नेताओं में
पंडित रामशरण द्विवेदी, शिवशंकर अय्यर और श्रीमती दीपा बनर्जी के भाग लेने की पूरे
शहर में चर्चा रही । भोज में अतिउत्साहित भाग्यश्री ने शीघ्र ही हिन्दूधर्म से
स्वयं को मुक्त कर भगवान बाबा साहब की शरण में जाने की घोषणा कर सबको चौंका दिया
था ।
एक दिन
अपराजिता सान्याल और रुकइया में सार्वजनिक गुह्यचर्चा हो रही थी । रुकइया सुन्दर
थी ... तराशी हुयी सी, ओस में भीगी हुयी सी और किसी बुभुक्ष के लिये ताजी रोटी की
उष्णता लिये हुयी सी । वह परम्परागत तरीके से विवाह किये जाने के विरुद्ध थी किंतु
पुरुष मित्रों के साथ उन्मुक्त सहवास के विषय पर परम्पराओं को त्यागने के पक्ष में
नहीं थी । बहस का विषय यही था, सांवली किंतु बड़ी-बड़ी आँखों के बीच उन्नत नासिका
वाली अपराजिता सान्याल उन्मुक्त सहवास के पुरुष एकाधिकार को चुनौती देने के पक्ष
में थी । उसका तर्क था – “यौनसंबन्धों की गुह्यता मनुवादियों का घिनौना षड्यंत्र
है । जो कार्य सर्वस्वीकार्य है, अवश्यम्भावी है, आनन्द का स्रोत है और व्यावहारिक
है उसे गुह्य विषय बनाने का क्या औचित्य ? यौनानन्द के लिये पुरुषों की
स्वच्छन्दता को उनकी मर्दानगी का प्रतीक मान लिया जाता है जबकि स्त्रियों को उसी
कार्य के लिये अपमानित और लांछित किया जाने लगता है । एक ही कार्य के लिये दोहरे
मापदण्ड क्यों ? क्या यह पुरुष वर्चस्व का प्रतीक नहीं ? साम्यवाद किसी भी प्रकार
के वर्चस्व को स्वीकार करने के पक्ष में कभी नहीं रहा ।”
रुकइया
ने उत्तर देने का प्रयास किया – “निश्चित् ही यौन सम्बन्धों को गुह्य विषय माना
जाना गलत है किंतु यौन स्वच्छन्दता को स्वीकृति देने से हममें और वैश्याओं में
फर्क करना मुश्किल हो जायेगा”।
अपराजिता
ने कहा – “नहीं, यह फ़र्क फिर भी रहेगा । यौन सम्बन्ध को व्यापार बना देना गलत है ।
वैश्यायें धन के लिये यौनानन्द को बेचती हैं जबकि यौन स्वच्छन्दता यौनानन्द के सहज
आदान-प्रदान की स्वतंत्रता है । तुम स्वयं विचार करो रुकइया ! हम पुनर्जन्म में
विश्वास नहीं रखते, खोखले आदर्शों के कारण अपने जीवन को प्रकृतिप्रदत्त सहज जैविक
आनन्द से वंचित करने का क्या औचित्य ?”
गुह्य
विषय पर सार्वजनिक चर्चा को सुनते समय अब्दुल्ला की आँखें भाग्यश्री की देहयष्टि
में उलझी रहीं जबकि शिवा के. राजू रुकइया में डूबता चला गया । भाग्यश्री ने अपने
मन की शंका प्रकट की – “किन्तु यौनस्वच्छन्दता को समाज में सम्मानित आचरण नहीं
माना जाता, समानाधिकार होते हुये भी तिरस्कार की पात्र स्त्री ही होती है”।
अपराजिता
ने उग्र होते हुये कहा – “यही तो, यही तो है वह हीन भावना, जो तुम लोगों को खाये
जाती है । यौनानन्द पर पुरुषों का ही एकाधिकार क्यों होना चाहिये ? अच्छा सच
बताना, क्या कभी किसी युवक को देखकर तुम्हारे मन में उत्तेजना नहीं होती ? क्या
तुम्हारा मन नहीं होता ? और क्या अपनी इच्छा का दमन करना सदा स्त्री का ही धर्म है
?”
बहस चल
ही रही थी कि तभी वहाँ कन्हैया आ गया ।
आते ही उसने भाग्यश्री से पूछा – “आज नसीरुद्दीन
शाह का प्ले है, अभी आधे घण्टे बाद, तुम चलोगी ?”
भाग्यश्री
तुरंत उठकर खड़ी हो गयी ।
अब्दुल्ला
को अब वहाँ और रुकने का कोई औचित्य न रहा, वह भी चल दिया तो सभा विसर्जित हो गयी ।
रात में
रुकइया को नींद नहीं आयी, उसके कान में अपराजिता के स्वर गूँजते रहे – “..... यौन
स्वच्छन्दता यौनानन्द के सहज आदान-प्रदान की स्वतंत्रता है ..... खोखले आदर्शों के कारण अपने जीवन को प्रकृतिप्रदत्त
सहज जैविक आनन्द से वंचित करने का क्या औचित्य ?”
उधर थिएटर
में बैठी भाग्यश्री का मन प्ले से अधिक कन्हैया में लगा रहा और वह अपने सम्मोहक
स्वप्नलोक में विचरण करती रही ।
दो वर्ष
पश्चात् .....
साम्यवाद
को लेकर अलीओसा के विचार बिल्कुल स्पष्ट थे । आर्थिक असमानता को वह शोषण का परिणाम
मानता था और इसीलिये किसी भी तरह किसी की सम्पत्ति को हथिया लेना वह आर्थिक समानता
का सहज तरीका मानता था । वह अक्सर तर्क देता – “हम किसी क्रांति की कब तक
प्रतीक्षा करेंगे ? जिनके पास उनकी आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति है उनकी अतिरिक्त
सम्पत्ति पर वंचितों का स्वाभाविक और नैतिक अधिकार है” ।
अलीओसा
की दृष्टि एक विधवा की धान मिल पर बहुत दिनों से जमी हुयी थी । वह किसी भी प्रकार
उस मिल को हथियाने की जुगाड़ में लगा रहता । उसकी दृष्टि में साम्यवाद के लिये
दीर्घकालीन जनक्रांति में अपनी ज़िन्दग़ी तबाह कर देने की अपेक्षा पूँजीवाद से लड़ने
का तात्कालिक और व्यावहारिक समाधान यही था । अंततः वह सफल हुआ । विधवा की धान मिल
हथियाने में अलीओसा को सफलता प्राप्त हुयी । साम्यवाद ने पूँजीवाद को अपने तरीके
से स्वीकार कर लिया ।
एक दिन कन्हैया
और अब्दुल्ला के बीच “स्वच्छन्द आनन्द का मूल्य” चुकाने को लेकर विवाद हो गया ।
भाग्यश्री को “यौनानन्द के भौतिक परिणमन” से मुक्ति के लिये पैसे और स्वास्थ्य
दोनो को खोना पड़ा । कन्हैया और अब्दुल्ला इसके लिये एक-दूसरे को दोषी मानते थे ।
इस अंतहीन विवाद से मुक्ति के लिये भाग्यश्री ने कन्हैया के समक्ष विवाह का
प्रस्ताव रखा जिसे अब्दुल्ला ने अस्वीकार कर दिया । वैश्विक परिवार के प्रबल
पक्षधर अदुल्ला भाग्यश्री पर एकाधिकार चाहने लगा था ।
रुकइया
ने स्वच्छन्द यौनानन्द के अधिकार को अंततः स्वीकार कर लिया था और अब वह फ़ीमेल सेक्स
इरॉज़ल डिस-ऑर्डर्स पर अपराजिता के साथ मिलकर एक पुस्तक लिखने की योजना बना रही थी
। कन्हैया को मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टी से विधायक का टिकट मिल गया और वह अपने
एक कांग्रेसी मित्र से चुनाव जीतने के टिप्स जानने में अधिक रुचि लेने लगा ।
अभी-अभी
पता चला है कि किसी ने भाग्यश्री की हत्या कर दी है । विश्वविद्यालय कैम्पस में
चर्चा है कि ऐसी हत्यायें भगवावादियों के अतिरिक्त और कोई कर ही नहीं सकता ।
हाँ !
अब्दुल्ला आजकल कहीं दिखायी नहीं देता ।
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