भीमराव
अम्बेडकर, गौतम बुद्ध, धम्म चक्र, नीला रंग और समाजवाद ....
अब प्रतीक
हो गये हैं
जो अलग
करते हैं
एक समूह
को समग्र भारत से,
बढ़ जाती
हैं और भी खाइयाँ
जिन्हें
पाटने की कोशिश
कभी
नहीं करता कोई
ताकि
बनी रहें खाइयाँ
उगाते
रहने के लिये
एक राजनीतिक
फसल ।
गांधी
जी, कांग्रेस, चरखा, खादी, तिरंगा और लोकतंत्र .....
विरासत
हो गये हैं
उस
महानता की
जिसके
एकाधिकार
सिमटे
हुये हैं
एक
परिवार तक,
उस एक
परिवार के बाद
समाप्त
हो जाती है
यह
दुनिया ।
मार्क्स,
स्टालिन, लेनिन, माओ, गरीब, मज़दूर, दलित, लालरंग, लालसलाम और साम्यवाद ....
ये शब्द
बन गये
हैं
एक घुमंतू
कुनबा
जो
लिखता है मोहब्बत के गीत
बन्दूक
की नली से,
इस
कुनबे का सरदार
सपनों
की खेती करता है
दिखाता
है सबको सपने
ताकि
बेच सके सबके सपने
सच करने
के लिये
सिर्फ़ अपने
सपने ।
राम,
कृष्ण, भगवा, हिंदू, वेद, मनुस्मृति और राष्ट्रवाद ....
गालियाँ
होते हुये भी
अस्पर्श्य
होते हुये भी
बिकाऊ
हैं अभी भी,
हाथी
मरकर भी
बिकता है
सवा लाख
का ।
न्याय,
करुणा, मानवता, समानता और प्रेम ....
एक
किस्सा है
जो दफ़न
हो चुका है
सदियों
पहले
और अब
विषय हो गया है
पुरातात्विक
महत्व का ।
राजा,
सत्ता, ऐश्वर्य, हत्या, क्रूरता, लूट-मार, बलात्कार और ज़िस्म की मण्डियाँ ....
शब्द
नहीं हैं
यथार्थ
हैं, दृष्टव्य हैं, अनुभूत सत्य हैं
हमारी-तुम्हारी
ज़िन्दग़ी
के पल-पल का ।
हमारी-तुम्हारी
घृणा
कृत्रिम
मुस्कान के साथ
भरपूर
सम्मान करती है
उनका,
पृथिवी
का सत्य
बस इतना
सा ही तो है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.