बुधवार, 29 मार्च 2017

प्रगति प्रतीप



 मेरा आदर्श है वही सत्य
जो मुझे दिखायी देता है  
मेरा आदर्श है वही सत्य  
जो मुझे सुनायी देता है
मैं लड़ूँगी सत्य के लिये  
मैं लड़ूँगी न्याय के लिये  
जगाने हैं मुझे  
सोते हुये मज़दूर और किसान
नहीं स्वीकारना मुझे  
तुम्हारे ढकोसले... तुम्हारे बलात्कारी भगवान
हमें रामराज्य नहीं, प्रगतिशील समाज चाहिये
प्रगतिशीलता, जो वैज्ञानिक है
प्रगतिशीलता, जो ज़र्मनी, फ़्रांस और चीन से आयी है  
जिसके लिये आवश्यक है तोड़ देना  
सारी वर्जनायें
जो हर लेती हैं हमारी स्वतंत्रता  
और बना लेती हैं हमें अपना दास  
मैं नहीं सहूँगी अब और  
वेदों और उपनिषदों की बकवास  
जाऊँगी दाराशिकोह की क़ब्र पर  
दूँगी जी भर गालियाँ
क्या पड़ी थी उसे  
जो कर दिया पचास उपनिषदों का अनुवाद  
और फैला दी औपनिषदिक बकवास  
पूरी दुनिया में ।   

मैं हो जाती हूँ पीड़ित
देखकर ग़रीबों और अल्पसंख्यकों की पीड़ा
मैं लड़ूँगी उनके लिये  
कर लूँगी समाज को मुक्त
जाति, धर्म, और वर्ग के बन्धनों से
मैं जाऊँगी ग़रीबों की झोपड़ी में
बैठकर जमीन पर उनके साथ  
पियूँगी महुआ की ताजी शराब  
और खाऊँगी गोमांस  
बाह्मण हूँ तो क्या हुआ  
जिऊँगी स्वेच्छा से  
करूँगी वह सब कुछ
जिससे प्रमाणित हो मेरी प्रगतिशीलता
मैं जला दूँगी मनुस्मृति  
और रहूँगी रहमान बेग के साथ  
बिना लिये सात फेरे  
प्रिय रहमान ! प्रिय ज़ोसेफ़ ! प्रिय शांतनु !
बस ! अब और नहीं  
दो महीने बाद  
पूरी होते ही पीएच.डी.  
हम गोराई बीच पर  
बोन फ़ायर की रोशनी में  
एक बार फिर करेंगे लिप-लॉक  
एक बार फिर करेंगे समूह नृत्य
और फिर वह रात तुम्हारी होगी  
सिर्फ़ तुम्हारी
देखते हैं, कोई क्या कर लेगा हमारा  

अ-संस्कृति की ओर



दादा जी के मुँह से कभी-कभार निकलने वाला एक वाक्य अब बारबार निकलने लगा है – “अब तो भगवान ही मालिक है इस देश का”। दादी जी सांत्वना देती हुयी पूरी आशा के साथ कहने लगी हैं – “देर है, अन्धेर नहीं । कभी तो अवतार लेंगे भगवान । यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्”। 
शून्य होती संवेदनशीलता, आत्मकेन्द्रित होते लोग, बिखरते सम्बंध, शिथिल होते सामाजिक बन्धन और बढ़ती अराजकता को प्रायः लोगों ने स्वीकार कर लिया है और वे तदनुरूप ही अपना जीवन ढालने का यथासम्भव प्रयास करने लगे हैं । गाँव-शहर के बड़े-बूढ़े नयी पीढ़ी के चाल-चलन और स्वच्छन्द जीवनशैली से क्षुब्ध भी हैं और निराश भी । मुक्त यौनसम्बन्धों को लेकर बदलते मूल्यों ने जहाँ पुरानी पीढ़ी को व्यथित किया है वहीं नयी पीढ़ी ने उपभोग और यौन-आनन्द जैसे मर्यादित विषयों को नये दृष्टिकोण से रेखांकित करने का दर्शन खोज लिया है । जीवन के नैतिक-सामाजिक मूल्य करवट ले रहे हैं और यौनसम्बन्ध अब मर्यादित विषय नहीं रह गया है । राजसंरक्षण में निर्मित खजुराहो और भोरमदेव मन्दिरों के बाहर बनी कामुक मूर्तियाँ लोगों को नये अर्थ और नयी प्रेरणा देने लगी हैं । जीवन काम पर आकर रुक गया है, समाधि का अब कोई अर्थ नहीं रहा ।
पुराने प्रतिमान ध्वस्त होते जा रहे हैं । राष्ट्र, देश, समाज, परिवार, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, सत्ता, पूँजी, श्रम, युद्ध और आनन्द के औचित्य एवं इनके पारस्परिक सम्बन्धों पर प्रतिलोम दिशा में चिंतन ने एक व्यवस्थित स्वरूप ग्रहण कर लिया है जिसका स्पष्ट प्रभाव समाज में दिखायी पड़ने लगा है । दादा-दादी की चिंता नयी पीढ़ी के लिये ही नहीं है बल्कि अपनी धूमिल होती सांस्कृतिक विरासत के लिये भी है ।
लोग कहने लगे हैं – “राष्ट्रीय भावना समाप्त हो रही है”, “लोगों में मानवीय संवेदना  मरती जा रही है”, “भ्रष्टाचार ने सदाचार का परिधान धारण कर लिया है”, “लोग क्रूर होते जा रहे हैं”, “बलात्कारी निर्भय होते जा रहे हैं”, “मुक्तयौनवृत्ति ने वैश्यावृत्ति से प्रतिस्पर्धा प्रारम्भ कर दी है”, “शिक्षा का स्तर रसातल में चला गया”, “शिक्षा और नैतिकता के बीच अब कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा”, “शिक्षक अपनी छात्राओं से बलात्कार करने लगे हैं”, “शिक्षिकायें अपने छात्रों से यौनसम्बन्ध स्थापित करने लगी हैं...”।
हर कहीं एक व्यग्रता है, निराशा है और भविष्य के प्रति चिंता है । किंतु इसी समाज में एक वर्ग ऐसा भी है जो इस सबसे किंचित भी व्यथित नहीं प्रत्युत आनन्दित है, वह जीवन के हर पल का निर्बन्ध हो उपभोग कर रहा है । आर्थिक भ्रष्टाचार से उसे कोई परिवाद नहीं है, हशीश और कोकीन उसे अच्छी लगती है, न्यूनतम परिधान उसे आकर्षक लगते हैं और यौनसम्बन्धों में नित नवीनता उसे आनन्द के चरम तक पहुँचाती है । वह आश्चर्यचकित हो पूछता है – “हम अपने जीवन को अपने तरीके से क्यों नहीं जी सकते ? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को नियंत्रित करने का अधिकार कैसे पा गया ? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के जीवन का नियंता कैसे हो सकता है ? उस सभ्यता का क्या औचित्य जो हमें हमारी उन आदिम वृत्तियों से दूर कर देती है जो हमें चरमानन्द प्रदान करती हैं ? हम आदिम युगीन स्वच्छन्द वातावरण से दूर क्यों रहना चाहते हैं जबकि वह पूरी तरह प्राकृतिक, निर्मल, भेदभावविहीन, शोषणमुक्त और कृत्रिम बन्धनों से मुक्त है”?
कुछ लोगों का विश्वास है कि संस्कृति ने हमारे जीवन में कृत्रिमता भर दी है जो हमारे दुःखों का कारण है । पशु संस्कारित नहीं होते इसीलिए मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक सुखी हैं । सुख के लिए मनुष्य को संस्कृति का मोह छोड़ना होगा... वर्जनायें तोड़नी होंगी ।     
आज यह सब हमारे चिंतन और विमर्श का विषय न होता यदि हम एक-दूसरे के आचरणों और कृत्यों से प्रभावित न हो रहे होते । जो लोग “समाज नहीं, व्यक्ति” सिद्धांत के पोषक हैं और अकेले चलना चाहते हैं वे भी प्रभावित होते हैं हमसे और हम भी प्रभावित होते हैं उनसे । जो लोग “समाजविहीन समाज” का निर्माण करना चाहते हैं वे भी एक नये समाज का ही निर्माण करना चाहते हैं । समाज के बिना किसी भी प्राणी के जीवन की कल्पना आसान नहीं है । पशु-पक्षियों का भी अपना समाज होता है और उस समाज के कुछ अपने नियम भी होते हैं ।           
आधुनिक तकनीकी संसाधनों से धरती की दूरियाँ निरंतर कम होती जा रही हैं, जीवनशैली में एकरूपता सी दिखायी पड़ने लगी है और एक छोर की घटना दूसरे छोर को प्रभावित करने लगी है । इस बीच देव, दानव, दैत्य, राक्षस और मनुष्य की प्रवृत्तियों में भी परिवर्तन हुये जिससे उनके मध्य होने वाले संघर्ष के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ । वर्चस्व के संघर्ष ने एक ओर क्रूर हिंसा और दूसरी ओर सांस्कृतिक युद्ध का स्वरूप धारण कर लिया । संस्कृतियों को नष्ट करने के लिये अपसंस्कृति (Deculturization) विकसित की जाने लगी और बड़े ही सुनियोजित तरीके से संस्कृति के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया गया है ।
भारत सहित विश्व के सभी देशों के जागरूक लोगों में सांस्कृतिक एवं नैतिक क्षरण को लेकर चिंता व्याप्त होती जा रही है । धार्मिक उन्मादजन्य हिंसक घटनाओं के कारण होने वाला पलायन भी एक गम्भीर समस्या होती जा रही है । इधर नयी पीढ़ी में सामाजिक-नैतिक मूल्यों के प्रति उग्र विरोध ने भारत की गौरवशाली संस्कृति को धता बताना प्रारम्भ कर दिया है । भारत ही नहीं विश्व के अन्य देश भी इस संक्रामक अपसांस्कृतिक युद्ध की चपेट में आ चुके हैं । अब जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि अपने वर्चस्व के लिए आतंकवाद को संरक्षण देने वाले देश भी आतंकवाद से जूझने के लिए विवश हो रहे हैं, हमें भस्मासुर की पौराणिक कहानी को स्मरण करना चाहिये ।
हदीथ में इस्लामिक पैगम्बर ने जिस “गज़ा और गज़वा” का स्वप्न मुसलमानों को दिखाया, और जो अठारहवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक ऑट्टोमन साम्राज्य के बिखरने एवं टूटने के कारण कुछ समय के लिए मुल्तवी हो गया था, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उनके अनुयायियों द्वारा उसी “गज़वा” को पुनः गम्भीरता से लिया जाने लगा । यह स्वप्न पूरी दुनिया पर “शरीयत से संचालित होने वाली इस्लामिक हुक़ूमत” स्थापित करने का स्वप्न है । तत्कालीन ब्रिटिश इण्डिया में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज( वर्तमान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) के ब्रिटिश प्रिंसिपल विलियम ए.जे. आर्चबोल्ड की प्रेरणा से हिज़ हाइनेस प्रिंस शाह क़रीम अल हुसैनी इमाम आगा ख़ां चतुर्थ के नेतृत्व में तीस दिसम्बर 1906 को मुस्लिम लीग की स्थापना की गयी और उन्नीस सौ सैतालीस में धर्म के आधार पर ब्रिटिश इण्डिया के दो टुकड़े कर दिये गये । हिन्दुस्थान के दोनों देशों – भारत और पाकिस्तान को अपने अस्तित्व में आने के क्षण से ही धार्मिक उन्माद और हिंसा से जूझना पड़ा । पाकिस्तान के धार्मिक उलेमाओं द्वारा हदीथ के निर्देशानुसार “गज़वा-ए-हिंद” के लिए तैयार होने को कहा गया । पाकिस्तान ने पश्चिम में बलूचिस्तान को बड़ी आसानी से हड़प लिया और उत्तर में कश्मीर पर आक्रमण कर दिया जो गज़वा-ए-हिंद की रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना । पाकिस्तान के उलेमा आज भी “गज़वा-ए-हिंद” के लिए तैयारी में जुटे हुये हैं जिसके लिए भारतीय जनता का एक वर्ग भी अपनी सहभागिता के लिये तैयार हो रहा है । दुर्भाग्य से भारत के राजनीतिक दल अपने राजनीति स्वार्थों के लिए इस्लामिक उलेमाओं की रणनीतिक तैयारी की उपेक्षा करते रहे हैं ।
अपने भारतीय उपनिवेश को स्वाधीनता के पश्चात् भी धार्मिक संघर्षों में उलझाये रखने और अपरोक्षरूप से अपना वर्चस्व बनाये रखने वाले ब्रिटेन को अंततः अपने द्वारा उत्पन्न किये गये भस्मासुर का सामना करने के लिए विवश होना ही पड़ा । आज आइसिस के लक्ष्य में भारत ही नहीं इंग्लैण्ड का नाम भी जुड़ गया है । अभी पुनः हाल ही में बाइस मार्च, दो हजार सत्रह को लन्दन के वेस्ट-मिनिस्टर में संसद के बाहर एक आतंकी आक्रमण किया गया । आक्रमण के तत्काल बाद इस्लामिक स्टेट संगठन ने इस तरह के और भी आक्रमण किये जाने की घोषणा की तो लन्दनवासियों को आतंक का अर्थ समझ में आने लगा । इस्लामिक स्टेट के “गज़ा” से अब दुनिया का कोई भी देश सुरक्षित नहीं रहा । अब तक योरोप के कई देशों के कई शहरों पर छलपूर्वक अचानक आक्रमण किये जा चुके हैं । आइसिस के बढ़ते प्रभाव से चिंतित लन्दन के मेयर सादिक़ ख़ान ने स्वीकार किया है कि “आतंकवाद लन्दनवासियों के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है, युवक आइसिस से प्रभावित हो रहे हैं और पश्चिमी देशों में उसके समर्थक बढ़ते जा रहे हैं” ।
यह लन्दन के लिए ही नहीं प्रत्युत पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय होना चाहिये कि आख़िर ग़ैरमुस्लिम लोग भी आइसिस की ओर क्यों आकर्षित होते जा रहे हैं । बाइस मार्च को अपने ही देश लन्दन में आक्रमण कर कई लोगों की हत्या कर देने वाले ब्रिटिश युवक एड्रियन एल्म्स को धर्मांतरण करने और ख़ालिद मसूद बनने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? आइसिस में ऐसा कौन सा आकर्षक तत्व है जिससे पश्चिम के युवक ही नहीं युवतियाँ भी प्रभावित होकर धर्मांतरण कर रही हैं और आइसिस के लिये “गज़ा” में सम्मिलित होने में ही जीवन की सार्थकता को स्वीकार कर रही हैं ? अब शुतुर्मुर्ग की तरह समस्या से आँख बन्द कर लेने से काम नहीं चलने वाला । हमें इस प्रश्न का उत्तर पूरी ईमानदारी से सबके सामने रखना ही होगा ।
आज हमें भौतिक स्तर पर आतंकी आक्रमणों एवं वैचारिक स्तर पर सांस्कृतिक क्षरण का सामना करना पड़ रहा है । युद्ध की आधुनिक तकनीक ने इस्लामिक ज़िहाद के स्वरूप को और भी क्रूर और अमानवीय बना दिया और पैगम्बर का उपदेशित “गज़वा-ए-हिन्द” का लक्ष्य फिर से उभर कर सामने आने लगा है । समाज में अराजकता और स्वेच्छाचारिता की प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही हैं ।
“ये तो समस्यायें ही समस्यायें हैं, आम आदमी क्या कर सकता है भला ! सरकारों को सोचना चाहिये कि उन्हें क्या करना है” – यह एक सामान्य और उदासीन सी अकर्मण्य प्रतिक्रिया है । यह उसी तरह है जैसे वारिश में टपकती छत को सुधारने का दायित्व भी हम सरकार पर डाल दें । यूँ भी सरकारों ने ग़रीब आदमी पर केवल बच्चे ही पैदा करने का दायित्व स्वतंत्ररूप से छोड़ा है । विवाह से लेकर बच्चों के जन्म, उनके पालन-पोषण, भोजन, आवास शिक्षा, चिकित्सा आदि सारे दायित्व तो सरकारों ने अपने ऊपर ले ही लिए हैं ।
चलिये हम उस टोले में चलते हैं जहाँ उच्च-मध्यम वर्गीय लोग रहते हैं, जो विवाह के लिए सरकार का मुँह नहीं ताकते और अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ने भेजते हैं । इन समस्याओं पर वे थोड़े से गम्भीर होते हैं फिर कहते हैं – “हमारे अकेले करने से क्या होगा, सब लोग मिलकर बोलें तो शायद सरकार कुछ करे”। यानी यहाँ भी दायित्व सरकार का ही है, जनता उससे निवेदन कर सकती है कि वह इन समस्याओं से उन्हें मुक्ति दिलाये ।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि सांस्कृतिक क्षरण को युवा वर्ग एक सुखद परिवर्तन मान चुका है, यौनसुख के मुक्त अधिकार के लिए जॉर्ज़ ल्यूकेक्स सर्वसम्मति से आदर्श चुन लिए गये हैं और ज्ञान की सीमा हमारी इन्द्रियग्राह्यता तक सीमित होकर रह गयी है ।
सत्य तो यह है कि कोई भी चिंतित नहीं है । किसी को भी ये समस्यायें “समस्यायें” लगती ही नहीं । बहुसंख्यक लोगों को केवल अपनी कुमारी बेटियों के कौमार्यभंग होने की नहीं प्रत्युत केवल गर्भवती होने की चिंता रहती है । इसके अतिरिक्त और कोई चिंता ऐसी नहीं है जिसके लिए वे रात को सो न सकें । उच्चशिक्षित वर्ग को मार्क्सवाद ने चमत्कृत कर दिया है, मुट्ठी भर लोग बचे हैं जो देश और अपने सांस्कृतिक क्षरण के लिए चिंतित हैं । पश्चिम से प्रारम्भ हुये संक्रामक अपसांस्कृतिक युद्ध और इस्लामिक ज़िहाद से अपने अस्तित्व को सुरक्षित करने के लिए हमें साम्यवादियों और इस्लामिक विस्तारवाद की रणनीतियों को समझना होगा । अगले चरण में हमें यह भी समझना होगा कि हम किस तरह उनके चक्रव्यूह में घिरते जा रहे हैं और उससे निकलने के लिए हमें क्या उपाय करने होंगे । अंतिम चरण में हमें इन सभी कार्यों के लिए अपनी-अपनी भूमिकायें सुनिश्चित करनी होंगी ।

मंगलवार, 21 मार्च 2017

झुकते-झुकते



हमने जल बिन मेघ घनेरे इधर-उधर देखे हैं फिरते ।
घिर कर चक्रव्यूह में सबने अभिमन्यु अनेकों देखे मरते ॥
संदेहों के मेघ विषैले लिये पोटली में सब फिरते ।
कुछ चमकीले लोग न जानें कितने दाग छिपाये फिरते ॥ 
पल-पल मरते वे जीते-जीते, हम जीते हैं मरते-मरते ।
बीत गया कलियों का जीवन ऋतुओं का ऋण भरते-भरते ॥
शीतल ऋतु में उष्ण हवायें, सच कहते हम डरते-डरते ।
कोई मिले ऐसा तो बताना, पोंछ सके जो आँसू झरते ॥
कब डूबा कोई खारे जल में, अश्रु बहा दो चाहे जितने ।
मधुर प्रेम में डूब गये हम, जीत लिया जग झुकते-झुकते ॥
किरण खोजने निकला हूँ मैं, रात बितायी चलते-चलते ।
दृढ़ संकल्प अगर कर लो तो, बात बनेगी बनते-बनते ॥