रविवार, 10 अक्तूबर 2021

देवभूमि

             धरती की सृजनात्मक शक्तियों की ऊर्ध्वगामी दिशा हमें प्रायः पठारी और मैदानी क्षेत्रों में देखने को मिलती है, जबकि इनकी अधोगामी दिशा प्रायः मरुभूमि में दिखायी देती है । पर्वत और समुद्र, धरती की शक्तियों को संतुलित करने में लगे रहते हैं ।

धरती की भौगोलिक स्थितियाँ विविधता से भरी हुयी हैं । भारत अपनी अध्यात्मिक और दार्शनिक उन्नति के लिये सदा से विशिष्ट रहा है । सनातन धर्म के लिये प्रकृति को भारत की भूमि ही सर्वाधिक उपयुक्त लगती रही है । सनातन धर्म भारत के लोगों का स्वाभाविक धर्म रहा है ।   

भारत में मोहम्मद बिन कासिम, चंगेज़ ख़ान, तैमूर लंग, बाबर, लेनिन, स्टालिन, माओ और शी जिनपिंग जैसा कोई क्यों नहीं जन्म लेता? दुनिया के अन्य किसी देश में याज्ञवल्क्य, वेदव्यास, विदुर, गार्गी, आत्रेयी, विश्ववारा. लोपामुद्रा, घोषा, शचि,  मैत्रेयी, राम, कृष्ण, परशुराम, शंकराचार्य, विक्रमादित्य और चाणक्य जैसा कोई क्यों नहीं जन्म ले सका?

धरती के कुछ हिस्से तीर्थ क्यों हो जाते हैं तो कुछ अभिषप्त क्यों हो जाते हैं? धरती के जिस हिस्से को आप देवभूमि कहते हैं क्या सचमुच वहाँ देवता निवास करते हैं? कैलाश पर्वत क्या सचमुच दिव्य है? ऐसे बहुत से प्रश्न बड़ी उत्सुकता से उत्तर की अपेक्षा करते हैं ।

जो देता है, लेता नहीं, वही देवता है । जो सदा लेता ही लेता है, कभी किसी को कुछ देता नहीं वह असुर है । विभिन्न देशों में विभिन्न विचारधाराओं और जीवनशैलियों के प्राधान्य ने समय-समय पर राज्य किया है । राक्षस, दैत्य, दानव और असुर आदि पृथक-पृथक विचारधाराओं को मानने वाले लोग हैं, जो सदा रहे हैं, और भविष्य में भी सदा रहेंगे । कोई भी विचारधारा कितनी भी शुभ या अशुभ क्यों न हो, वह कभी समाप्त नहीं होती, समय-समय पर प्रबल और दुर्बल होती रहती है । आज शुभ और अशुभ विचारधाराओं के बीच टकराव की स्थिति हर क्षण गम्भीर होती जा रही है । दोनों विचारधारायें अपने-अपने वर्चस्व के लिये संघर्ष कर रही हैं ।

          हम भारतीय धरती को माँ का सम्मान क्यों देते हैं! ऋषियों ने इसका उत्तर देते हुये बताया ...क्योंकि धरती हमें वह सब कुछ देती है जो दुनिया के हर शिशु को अपनी माँ से अपेक्षित होता है । यह माँ के फ़िज़िकल और मेंटल कॉन्स्टीट्यूशन पर निर्भर करता है कि वह शिशु को क्या दे सकती है । हम सब अपनी दैहिक और मानसिक प्रकृति ही नहीं बल्कि जीवनशैली और संस्कार भी अपनी माँ से ही प्राप्त करते हैं । सभी प्राणियों में कुलगत (स्पिशीज़-जन्य) लक्षणात्मक भिन्नतायें इसीलिये होती हैं । कश्मीर और केरल में उगाये जाने वाले सेव के गुण एक से नहीं हो पाते, देहरादून और केरल की लीची में भी अंतर को स्पष्ट देखा जा सकता है । मंगोलिया और मिथिला में जन्मे व्यक्तियों के गुण एक से नहीं होते । हमारी धरती से हमारा बहुत निकट का सम्बंध है जिसे आज के संदर्भों में समझने की आवश्यकता है ।

          पहले मंगोलिया चलते हैं जहाँ के खेल भी हिंसा और क्रूरता पर आधारित होते हैं । खेलों को सामूहिक मनोरंजन का एक मौलिक साधन माना जाता है, किंतु यदि किसी जीवित प्राणी को खेल का साधन बना लिया जाय तो यह क्रूरता पशु के लिये भयानक पीड़ादायक हो जाती है । एक समय था जब मंगोलिया के लोगों को उदरपूर्ति के लिये मांसाहार और कठिन शिकार पर निर्भर होना पड़ता था । धीरे-धीरे क्रूरता और हिंसा वहाँ की सभ्यता बनती चली गयी । अरब के बहुत से हिस्से आज भी उपजाऊ नहीं बन सके, वहाँ भी मांसाहार और शिकार की प्रबल परम्परा रही है जिसने वहाँ के लोगों को क्रूरता, हिंसा और लूटमार का पर्याय बना दिया । मंगोलिया का इतिहास हिंसा, क्रूरता और लूटमार की भयानक कहानियों से भरा पड़ा है ।

सरस्वती, सिंधु और गंगा जैसी नदियों से सिंचित भूमि ने भारत को अद्भुत उर्वराशक्ति से संपन्न किया है । यह उर्वरता न केवल धान्य और फलों के लिये, बल्कि मानसिक और वैचारिक भी रही है । भारत में उदरपूर्ति के लिये मांसाहार कभी आवश्यक नहीं रहा है । उदरपूर्ति के लिये यहाँ की धरती ने एक से एक अच्छे विकल्प हमें उपलब्ध करवाये हैं । भारत के लोग इसीलिये भौगोलिक विस्तार और हिंसा से दूर रहकर अध्यात्मिक और तात्विक चिंतन की ओर निरंतर आगे बढ़ते रह सकने में सफल होते रहे हैं ।

वैदिक ऋचाओं की रचना में स्त्री-ऋषियों की भूमिका भी प्रमुख रही है । वैदिक ज्ञान से साक्षात् जैसा कोई अद्भुत कार्य मंगोलिया और अरब में सम्भव नहीं हो सका । आज भी पूरे विश्व में वैज्ञानिक शोधकार्य करने में भारतीय वैज्ञानिक ही अग्रणी हैं ।

धरती के जिस क्षेत्र पर प्राणियों में भय की अनुभूति हो वहाँ राक्षसत्व का प्राधान्य होता है । महाबलशाली राक्षस धरती के बहुत बड़े हिस्से को आक्रांत कर सकते हैं ....किंतु यह अवधि दीर्घकालीन नहीं हो सकती । पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़गानिस्तान की धरती भी कम उर्वर नहीं है किंतु वहाँ की धरती विदेशी आक्रांताओं के राक्षसत्व से आज आक्रांत हो चुकी । हम भारतीय उपमहाद्वीप के हर हिस्से को देवभूमि मानते हुये आशा करते हैं कि एक दिन यहाँ की धरती से राक्षसत्व का अन्त होगा, किंतु इसके लिये हमें अपने अंदर देवत्व और मनुष्यत्व को जाग्रत करना होगा । पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान जितने अधिक अशांत और हिंसाग्रस्त होते जायेंगे उतने ही अधिक राक्षसत्व से मुक्ति की ओर अग्रसर होते जायेंगे । पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान की राजनीतिक सीमायें विलीनता की ओर अग्रसर होती जा रही हैं । दिव्यता के लिये भारत की सृजनात्मक शक्तियों को एकजुट रहते हुये स्वयं को शक्तिसम्पन्न बनाना होगा ।  

दिव्य कैलाश पर्वत आज असुरों के अधीन है । इसीलिये उसकी दिव्यता का लाभ किसी को प्राप्त नहीं हो पा रहा । हमें दिव्य कैलाश को महाबलशाली राक्षसों से मुक्त करना होगा । 

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