दिल्ली की सिंधु सीमा पर लग एक साल से किसान आंदोलन चल रहा है । इस बीच कई अप्रिय, हिंसक और राष्ट्रविरोधी घटनायें भी किसान आंदोलनकारियों के नाम से की जाती रहीं । नवरात्रि के पवित्र दिनों में एक बार फिर सिंधु सीमा पर एक दलित समुदाय के युवक की नृशंस हत्या, यह आरोप लगाकर कर दी गयी कि उसने गुरुग्रंथ साहिब का अपमान किया था । हत्या का तरीका तालिबान तरीके की तरह ही वीभत्स और क्रूर था । हत्या करने के बाद निहंगों ने इस हत्या का दायित्व स्वीकार करने की घोषणा करके एक और ग़ुस्ताख़ी की और सीधे-सीधे भारत की सरकार को चुनौती दे दी है ।
दुर्गापूजा
के दिनों में पूजा के विरोध में हिंसक और उत्तेजक घटनायें फिर होने लगी हैं । छत्तीसगढ़, पश्चिम
बंगाल और झारखण्ड आदि प्रांतों में हिन्दुओं की आराध्या देवी दुर्गा का अपमान करके
हिन्दुओं को स्पष्ट संदेश दिया जा रहा है कि भारत में हिन्दुओं को धार्मिक स्वतंत्रता
आने वाले समय भी बिल्कुल भी नहीं दी जायेगी ।
इस तरह के
कलमतोड़ संदेशों और धमकियों का क्रम बना हुआ है । अपराधियों को दण्ड देने के स्थान पर
संरक्षण और महिमामण्डित करने की परम्पराओं पर भी विराम नहीं लग सका है । यही कारण है
कि ऐसी घटनायें बारम्बार होती जा रही हैं ...पहले से भी अधिक उत्तेजना और क्रूरता के
साथ ।
कुछ साल
पहले एक सरकारी चिकित्सालय की महिला चिकित्सक द्वारा अपने रोगियों के प्रिस्क्रिप्शन
में इस्लामिक क़ायदों का पालन करने की हिदायतें लिख कर वर्षों तक दी जाती रहीं । शिकायतें
होती रहीं और महिला चिकित्सक अपना कार्य बदस्तूर करती रही । हो सकता है कि मीडिया में
हंगामे के बाद उस पर कुछ कार्यवाही की गयी हो किंतु इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्तियाँ
थमने का नाम नहीं ले रहीं हैं । पिछले साल एक मसीही चिकित्सक सर्जन ने आयुर्वेद की
वैज्ञानिकता को लेकर बड़ा हंगामा किया और उसे प्रतिबंधित करने की माँग कर दी ।
शिक्षा जैसे
पवित्र क्षेत्र को भी धार्मिक उन्माद और ध्रुवीकरण ने अपना शिकार बना लिया है । कुछ
ही दिन पहले छत्तीसगढ़ के एक सरकारी विद्यालय में शिक्षक द्वारा उन छात्रों की पिटायी
गयी जिन्होंने अपने घर में दुर्गापूजा की थी और जो ईश्वर में आस्था रखते थे । शिक्षक
ने छात्रों को धमकाते हुये प्रभु यीशु में अपनी धार्मिक आस्था बनाने के लिये कहा ।
जुलाई सन्
2020 में झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूमि जिले के घाटशिला में एक शिक्षिका ने छोटे बच्चों
को पाकिस्तान और बांग्लादेश के राष्ट्रगानों को याद करने और उनका अभ्यास करने का ऑन
लाइन गृहकार्य दिया था । पालकों ने इस पर संज्ञान लिया तो प्राचार्य ने उस आदेश को
वापस लेने की घोषणा कर दी और शिक्षिका को निलम्बित कर दिया । प्रश्न यह है कि किसी
मुस्लिम शिक्षक या शिक्षिका के मन में इतना दुस्साहस कब और कैसे उत्पन्न हो गया ? निश्चित
ही यह सब अनायास नहीं हुआ ..हो ही नहीं सकता ...यह वर्षों से चले आ रहे मस्तिष्क प्रक्षालन
का परिणाम है । माओ ने खाँटी” कम्युनिस्ट पीढ़ी उत्पन्न करने के लिये आयुर्वेदोक्त “मासानुमासिक
गर्भिणी परिचर्या” का पालन करते हुये कम्युनिस्ट विचारधारा वाले कट्टर युवकों-युवतियों
के आपस में विवाह करवाये और फिर गर्भावस्था में गर्भिणियों का मस्तिष्क प्रक्षालन करवाया
जाता रहा । चिकित्साविज्ञान की ओलम तक न जानने वाले माओ को यह दृढ़ विश्वास था कि इस
तरह उत्पन्न होने वाले बच्चे “खाँटी” कम्युनिस्ट होंगे । माओ के बाद शी-जिन-पिंग सरकार
ने एक कदम आगे बढ़कर तिब्बतियों के जातीय उन्मूलन के लिये खाँटी कम्युनिस्ट युवकों को
तिब्बती लड़कियों से बच्चे पैदा करने का आदेश जारी कर दिया । वैचारिक दृढ़ता,
निर्भीकता, और किसी स्थापित व्यवस्था को चुनौती
देने का दुस्साहस यूँ ही नहीं हो जाता ।
भारतीय सूचनातंत्र
की दयनीय मानसिकता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि धार्मिक दंगों का समाचार
प्रकाशित या प्रसारित करते समय “एक धर्म के लोग” या “धर्म विशेष
के लोग” जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो उस दहशत को दर्शाता है जिसे सुनियोजित
तरीके से उत्पन्न किया जाता रहा है । ये अपरोक्ष शब्द इस बात की भी चीख-चीखकर घोषणा
करते हैं कि भारत में हिन्दुओं के लिये एक धर्म विशेष के अपराधी का नाम लेना या उसका
धर्म बताना सुरक्षित नहीं है । क्या हम इसे गांधी और नेहरू के सपनों का भारत मान लें
।
भारत के
हिन्दू इन सारी बातों को बहुत हल्के में लेते हैं या फिर सब कुछ ईश्वर के भरोसे छोड़
देते हैं । गांधार देश, पचिमी भारत, पूर्वी भारत आदि अखण्ड भारत के भूखण्डों
के हिन्दुओं की रक्षा उनके ईश्वर ने नहीं की, उन्हें मुसलमान
बन जाना पड़ा । क्या आपको नहीं लगता कि आप इस्लामिक कानूनों वाले एक मुल्क में
तब्दील होते जा रहे हैं ?
हाल ही में
घाटी में सिख शिक्षिका-शिक्षक की हत्या के बाद वहाँ के मुसलमानों ने सड़क पर निकलकर
हिन्दुओं के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करने का साहस किया । हिंदुओं के पक्ष में शायद
पहली बार मस्ज़िदों से भी ऐलान किये गये हैं । यह एक मानवीय, अनुकरणीय
और प्रशंसनीय पहल है । घाटी में बहुत लम्बी शब के बाद एक सहर की शुरुआत सी लग रही है
।
वक्त के
नाम से एक आई ख़बर
वक्त को
वक्त की ना लगे फिर नज़र ।
वक्त के
ख़ौफ़ से वक्त दहशतज़दा
आज हर
कोई है हर किसी से ख़फ़ा ।
वक्त
मुशरिक है तू, वक्त मैं बुतशिकन
वक्त तू
शिर्क है, वक्त मैं हूँ सबब ।
वक्त ने
वक्त का है कतल फिर किया
फिर
ख़ुदा ने बुझाया ख़ुदा का दिया ।
वक्त ने
वक्त को फिर से दी धमकियाँ
ख़ौफ़ से
क्यों ख़ुदा की ये नजदीकियाँ ।
वक्त ने
वक्त को एक ख़त है लिखा
वक्त
बीमार वो, वक्त ये है दवा ।
था वो
वक्त शब, वक्त ये है सहर
वक्त कमजोर एक, वक्त दूजा ज़बर ।
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