शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

सम्वेदनाओं के व्यापार

         नृशंस हत्या, यौनदुष्कर्म, लूटपाट और मंदिर विध्वंस की पीड़ायें झेलना हमारी नियति बन चुकी है । 

समाज में नैतिक क्षरण से होने वाले अपराधों और शासन-प्रशासन के विभिन्न तंत्रों में होने वाले क्षरण को दूर करने के स्थान पर उन्हें संरक्षण दिये जाने की परम्परा ने राजनीति का अर्थ, उद्देश्य और सीमायें बदल कर रख दीं हैं । राजनीति में अब राजा की सु-नीति नहीं होती, गुण्डों और अपराधियों के कुचक्र और षड्यंत्र होते हैं जिनके सहारे देश की विशाल जनसंख्या को अपने नियंत्रण में रखने की प्रतिस्पर्धा कुछ लोगों के बीच होती रहती है । राजनीति के नाम से किये जाने वाले सुनियोजित अपराधों और षड्यंत्रों का धरातलीय सत्य एक बहुत बड़ा छल बन कर उभरता जा रहा है । भारत की हिन्दू जनता ने इस सत्य से अपनी आँखें फेर ली हैं, भ्रष्टाचार को मधुमेह जैसी व्याधि मानकर आम लोगों ने उसके साथ जीना सीख लिया है ।

जम्मू-कश्मीर में अक्टूबर 2021 के प्रथम सप्ताह के प्रथम छह दिनों में सात ग़ैरमुस्लिमों की हत्या कर दी गयी । परिचय-पत्र देखकर ग़ैरमुस्लिमों की हत्यायें की जा रही हैं । मुस्लिम नेताओं की छोड़िए, हिन्दुत्व विरोधी हिन्दूगुट अभी भी अपनी बात पर अड़ा है कि इस्लाम का विस्तार कभी तलवार के सहारे नहीं किया गया । सात अक्टूबर के दिन भी दो शिक्षकों - सुपिंदर कौर और दीपक चंद मेहरा को, विद्यालय में जाकर हिंदू होने के अपराध में मृत्युदण्ड दिया गया । मिथ्या भाईचारे की बात करने वाले मुसलमानों की प्रतिक्रिया हिन्दुओं को आश्वस्त नहीं करती, जिससे भय का वातावरण और भी गहरा हो गया है ।

पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह भारत में भी हिन्दू होना एक गम्भीर अपराध माना जाता है इसलिए हर बार की तरह इस बार भी हिन्दुओं की नृशंस हत्या पर किसी की सम्वेदना जाग्रत नहीं हुयी । हमने अपने जन्म से लेकर अब तक ऐसा ही भारत देखा है ।

सोलह अगस्त 1946 में हिन्दुओं और सिखों के विरुद्ध ब्रिटिश इण्डिया में छेड़े गये वीभत्स जिहाद की निरंतरता भारतीय उपमहाद्वीप में आज तक समाप्त नहीं हो सकी है । मानवीय संवेदना जैसे भावनात्मक शब्द भी गहन हाइबरनेशन में जा कर निष्क्रिय हो गये और “ईश्वर-अल्ला तेरो नाम” जैसे खोखले और भ्रामक गीतों को उनके मूल गीतों से पृथक कर देश और दुनिया को बेवकूफ़ बनाने का जो क्रम प्रारम्भ किया गया था वह आज भी यथावत है ।

1946 में मुस्लिम लीग ने तत्कालीन अंतरिम सरकार की कैबिनेट मिशन की योजना से स्वयं को अलग करते हुये  पाकिस्तान के लिये 16 अगस्त का दिन सीधी कार्यवाही दिवसके लिये मुकर्रर कर दिया जिसके बाद देश भर में हिन्दुओं का नरसंहार प्रारम्भ हो गया । हिंसा की पहली लहर कलकत्ता में 16 से 18 अगस्त के बीच शुरू हुई जिसे ग्रेट कैलकटा किलिंग्स के नाम से जाना जाता है । इसमें लगभग चार हजार लोग मारे गये, हजारों घायल हुये और लगभग एक लाख लोग बेघर हुये । इस हिंसा की आग पूर्वी बंगाल के नोआखाली जिले और बिहार तक फैल गयी ।

 3 मार्च 1947 में रावलपिण्डी में धार्मिक दंगे हुये, थोहा खालसा गाँव में सिख स्त्रियों ने मुस्लिम उत्पीड़न से बचने के लिये कुओं में छलाँग लगाकर आत्महत्या कर ली । अगस्त, सितम्बर और अक्टूबर में पञ्जाब के गाँव–गाँव और शहर-शहर में अल्पसंख्यक स्त्रियों पर कहर ढाया जाने लगा । पाकिस्तान में ग़ैरमुस्लिमों के उत्पीड़न के वीभत्स दृश्य आज भी जारी हैं जिससे वहाँ के अल्पसंख्यक अब लगभग समाप्त होने की कगार पर हैं ।

जुलाई 1947 से देश में फिर धार्मिक दंगे शुरू हो गये । पश्चिमी पञ्जाब से हिन्दुओं और सिखों का नरसंहार किया जा रहा था जबकि इसकी प्रतिक्रिया पूर्वी बंगाल में देखी जाने लगी जहाँ मुसलमानों की हत्या शुरू कर दी गयी ।

लाहौर, मुल्तान, बहावलपुर, कराची और मीरपुर ख़ास आदि से भारत की ओर आने वाली रेलगाड़ियों को रास्ते में रोक-रोक कर यात्रियों का सामूहिक नरसंहार और हिन्दू स्त्रियों से यौनदुष्कर्म किये जा रहे थे । 15 अगस्त के दिन जब गांधी नोआखाली में हुये दंगों में मुसलमानों की हत्या से पीड़ित होकर अपनी एकांगी संवेदनाओं का दरिया बहा रहे थे ठीक उसी समय दिल्ली में आज़ादी की ख़ुशियाँ मनायी जा रही थीं और कुछ मोहल्लों में हिन्दू औरतों के ज़िस्म नोचे जा रहे थे । यही स्थिति लाहौर और कराची में भी थी ।  

कराची में 1948 तक दंगे, आगजनी और कत्लेआम होते रहे । जब लाहौर में हिन्दू और सिखों को मारा-काटा जा रहा था, उनकी बहू-बेटियों के साथ यौनदुष्कर्म किये जा रहे थे, उनकी सम्पत्तियाँ लूटी जा रही थीं तो मोहनदास करमचंद गांधी की संवेदना जाग्रत नहीं हो सकी, वहीं जब नोआखाली में हिन्दुओं ने प्रतिक्रियास्वरूप मुसलमानों को मारना-काटना शुरू किया तो मोहनदास करमचंद गांधी की सुकोमल भावनायें आहत हो गयीं, उनकी संवेदना अचानक गहन निद्रा से जाग्रत हो गयी, वे अनशन करके हिंदुओं पर दबाव डालने और मुसलमानों से माफ़ी माँगने के लिये नोआखाली पहुँच गये । स्वेच्छाचारी संवेदना के कहीं जाग्रत होने या कहीं सुषुप्त होने के घुमक्कड़ी आचरण को अब हमारे देश में प्रशंसनीय और अनुकरणीय माना जाने लगा है ।

अक्टूबर 2021 के प्रथम सप्ताह में ही लखीमपुर खीरी में स्वयं को किसान कहने वाले सिखों की भीड़ ने केंद्रीय मंत्री के दौरे को प्रभावित करते हुये उन्हें घेरने का प्रयास किया । केंद्रीय मंत्री ने अपना मार्ग बदल दिया, भीड़ विरोध प्रदर्शन करने नये मार्ग के बीच में भी पहुँच गयी, भगदड़ मची, हिंसा हुयी, नौ लोग मारे गये, केंद्रीय मंत्री के बेटे पर आरोप लगाये गये । सियासत बुज़कशी का एक निर्मम खेल है, अवसर मिलते ही घोड़े दौड़ने लगते हैं ।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने सभी आठ मृतकों के घर वालों को पैंतालीस-पैंतालीस लाख रुपये और परिवार के किसी एक सदस्य को शासकीय नौकरी देने की घोषणा की तो जवाब में छत्तीसगढ़ और पंजाब के मुख्यमंत्री भी गये और पीड़ित परिवारों में से केवल चार मृतकों के घर वालों को, जिन्हें “किसान”, “अन्नदाता” और “शहीद” नामक संज्ञायें दी गयी थीं, पचास-पचास लाख रुपये क्षतिपूर्ति की घोषणा कर दी, जबकि शेष चार मृतकों को “हार्दिक या आर्थिक संवेदना” का पात्र नहीं मानते हुये न तो उनसे सम्पर्क किया गया और न उन्हें कोई क्षतिपूर्ति राशि दी गयी । यह हार्दिक संवेदना से अधिक आर्थिक संवेदना का प्रदर्शन था जिसमें संवेदना को तौलने का एक आर्थिक पैमाना निर्धारित करते हुये पाँच-पाँच लाख रुपये अधिक देकर यह बताने का प्रयास किया गया कि पञ्जाब और छत्तीसगढ़ की संवेदनायें उत्तर प्रदेश की सम्वेदना से कहीं अधिक संवेदनशील है ।

1947 के विभाजन में पाकिस्तान से लखीमपुर आने वाले सिखों की अधिकता है जिनमें से अधिकांश लोग अपने पुरुषार्थ के बल पर अब सम्पन्न हो गये हैं और दुर्भाग्य से उन्हीं में से कुछ लोग खालिस्तान के समर्थक भी हो गये हैं । यह एक विचित्र त्रासदी है । इस्लामिक आतंक से पीड़ित होकर भारत के पश्चिमी छोर से भगाये गये सिख आज उन्हीं आतंकियों के समर्थन से भारत में अपने लिये एक और नया देश बनाना चाहते हैं ।

अस्सी करोड़ रुअप्ये की मिल्कियत वाले ग़रीब टिकैत का किसान आंदोलन बीच-बीच में उबाल मारता रहता है । जिस देश में किसान आत्महत्यायें करते हैं वे अचानक हत्यायें करने लगे, अपनी बात मनवाने के लिये धरना-प्रदर्शन और अराजक घटनायें करने लगे । “किसान आंदोलन” अब एक राजनैतिक शब्द बन गया है जिसका किसान आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है । अब पूरे देश में कहीं भी कोई भी घटना होगी उसे केवल किसान आंदोलनही कहा जायेगा भले ही उसमें खालिस्तानी हों या अराजक तत्व ।  

सी.एन.बी.सी. आवाज ने लखीमपुर खीरी में हुयी हत्याओं को लेकर हो रही राजनैतिक हलचलों पर आधारित “राजनैतिक पर्यटन” विषय पर एक चर्चा आयोजित की थी । गम्भीर चर्चा के लिये केवल पत्रकारों को ही आमंत्रित किया गया । वार्ता प्रारम्भ हुयी तो एक बार फिर प्रमाणित हुआ कि आमंत्रित पत्रकारों की प्रतिबद्धतायें पत्रकारिता के प्रति बहुत न्यून किंतु राजनीतिक दलों के प्रति बहुत अधिक थीं । गम्भीर चर्चा को आरोप-प्रत्यारोप में बदलते देर नहीं लगी ।

अधिकांश पत्रकारों ने इस बात का समर्थन किया कि मृत्यु किसी भी कारण से क्यों न हुयी हो, सार्वजनिक जीवन वाले राजनीतिज्ञों को वहाँ जाना ही चाहिये । यह अनिवार्यता अब एक परम्परा बना दी गयी है किंतु मैं यह समझ पाने में असमर्थ रहा हूँ कि तब फिर स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों के क्या दायित्व रह जाते हैं ?

जनता ने भाजपा को शासन का अधिकार दिया, राजनीति के मठाधीशों ने इसे स्वीकार नहीं किया, वे लगातार न केवल मोदी का व्यक्तिगत विरोध करते रहे बल्कि निरंतर अपदस्थ करने के कुचक्र में भी व्यस्त रहे इस बीच विपक्ष की मृत्यु हो गयी, किसी की सम्वेदना नहीं जागी । महाराष्ट्र के पालघर में हिन्दू संत की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है, राजनैतिक दलों की सम्वेदना जाग्रत नहीं होती, कोई राजनैतिक हलचल नहीं होती । भारत में सम्वेदना स्वेच्छाचारी है, वह कभी जागती है, कभी गहरी नींद में सोती रहती है ।

बहुत साल पहले की बात है, कांग्रेस के चुनाव में सुभाष चंद्र बोस जीत गये, नेहरू हार गये किंतु जम्हूरियत के अलम्बरदार बनने वाले नेहरू और गांधी ने उनकी जीत को कभी स्वीकार नहीं किया । राजनीतिक मठाधीश किसी भी सत्य को स्वीकार नहीं करते और उन्हें मानसिक सम्बल देने के लिये “सत्य हिन्दी” के फ़ाउण्डर आशुतोष और उनकी मण्डली के लोग “असत्य की स्थापना और प्रतिष्ठा” में तत्काल प्रभाव से कटिबद्ध हो खड़े हो जाया करते हैं ।

5 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१६ -१०-२०२१) को
    'मौन मधु हो जाए'(चर्चा अंक-४२१९)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. आज का यर्थाथ ल‍िखा नव्‍या जी ने ---वाह

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  3. very nicely written and I really like your blog post so thank you so much for sharing this interesting post with us.
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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.