अफ़्रीका के एक मित्र ने मुझसे जानना चाहा कि “नयी पीढ़ी का भारत कैसा है?” मुझे लगा कि पूरी ईमानदारी से उत्तर देने के लिये मुझे नेताओं और उच्चाधिकारियों की चर्चित और विवादास्पद गलियों से दूर आम जनता की भीड़ में घुसकर आधुनिक भारत को देखने का प्रयास करना चाहिये ।
वे
विद्यालयीन परीक्षाओं के दिन थे, बिहार में परीक्षा में नकल
कराते हुये रिश्तेदारों और मित्रों की भीड़ के बीच से मैंने नयी पीढ़ी के भारत को
झाँक कर देखने का प्रयास किया था । कुछ प्रांतों में मुक्त-विद्यालय से हाईस्कूल
और इण्टरमीडिएट की परीक्षायें पूर्ण मुक्त वातावरण में देने की सुविधा भी उपलब्ध
है । बाद में मुझे पता लगा कि नकल करके छप्परफाड़ नम्बर लाने वाले कई लोगों को बाद
में सरकारी नौकरियों के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था । मुझे अचानक ही उन
कर्मचारियों की याद आने लगी जो ऑपरेशन के बाद सर्जिकल इंस्ट्र्यूमेंण्ट्स को पानी
में भिगाकर फिर से बिना साफ किये हुये ही स्टरलाइज़र में डाल दिया करते हैं और
समझाने के बाद भी कोई बात मानने के लिये कभी तैयार नहीं होते ।
मैंने
देखा सरकारी अस्पताल के युवा चिकित्सक ने एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को एक मोटी
रकम के बदले एक झूठा मेडिकल सर्टीफ़िकेट बना कर दे दिया, दोनों
हर्षित हुये । भ्रष्टाचारिक सहजीविता (सिम्बियॉसिस) के इस सुस्थापित व्यवहारवाद
में आदर्शवाद न जाने कब का समाधिस्थ हो चुका था ।
मैंने देखा, दूध
और घी बेचने वाले शोषित-दुःखी और गरीब आदमी ने दूध में दरिया का पानी मिला दिया है
और मृत पशुओं की हड्डियों को उबालकर निकाली गयी मज्जा से निर्मित तरल में घी का एसेंस
मिला दिया है जिससे नकली घी में असली घी की तरह ख़ुश्बू आने लगी है ।
मैं
भारत के अंतिम आदमी को भी देखना चाहता था इसलिये वंचित, दुःखी
और शोषित माने जाने वाले ग़रीबों की झुग्गियों की ओर गया, जहाँ
कुल दो सौ नब्बे परिवारों के बीच चार सौ ग्यारह राशन कॉर्ड बनाये गये थे । ग़रीबों
के लिये सरकार की ओर से फ़्री बिजली होने के कारण बल्व दिन-रात जलते रहते थे और
टेबल फ़ैन का उपयोग वारिश के दिनों में कपड़े सुखाने के लिये किया जाता था । फ़्री
में मिलने वाली सरकारी सुविधाओं के दुरुपयोग से उत्पन्न सुख ने निर्धनता की पीड़ा
को बहुत कुछ कम कर दिया था । मैंने वहाँ मितव्ययता को तलाशने की कोशिश की जो मुझे
वहाँ कहीं नहीं मिली, मुझे आगे बढ़ना पड़ा ।
अमीबा
एक ऐसा प्राणी है जिसके शरीर में कहीं भी कूटपाद (धोखा देने वाले पैर) उत्पन्न
होते हैं और अमीबा को एक गति देकर अगले ही क्षण विलुप्त हो जाते हैं । कूटपाद
उत्पन्न और विलुप्त होते रहते हैं ...अमीबा आगे की ओर बढ़ता रहता है । पैर झूठे
होते हैं किंतु गति वास्तविक होती है । यह अद्भुत है किंतु विश्व के अधिकांश देशों
की यही दुष्ट और छल नीति है जो राजनीति के नाम से व्यवहृत होती है ।
जहाँ
ग़रीबी, वंचना, शोषण और दुःख जैसे शब्द दुष्टनीति के लिये
अमीबा के कूटपाद की तरह व्यवहृत किये जाने लगे हों और वास्तव में जहाँ हर मछली
अपने सामने पड़ गयी हर मछली के शिकार पर आमादा हो वहाँ मुझे नयी पीढ़ी के भारत को
तलाशने का काम बड़ा दुस्साहसिक लगने लगा है ।
भारत की
नयी पीढ़ी भारत के बारे में क्या सोचती है, और वह स्वयं को भारत के लिये
कहाँ पर खड़ा पाती है ?
मुम्बई
के राकेश दुबे जी ने अपने एक मित्र को सूचना दी कि भारत की बिगड़ती स्थितियों को
देखते हुये विदेश प्रवासिनी उनकी बेटी ने उनसे भारत छोड़ देने का अनुरोध किया है ।
“बिगड़ती
स्थितियाँ” -इस पर दीर्घ चर्चा हो सकती है । बिगड़ती महँगाई, बिगड़ती
सामाजिक समरसता, बिगड़ते पैमाने, बिगड़ती
आज़ादी, बिगड़ते लोग और बिगड़ती सीमायें ...।
भोपाल से
भाई अशोक चतुर्वेदी जी कहते हैं – “महँगाई बढ़्ती जा रही है और लोगों का जीवनयापन
मुश्किल होता जा रहा है । रोटी, कपड़ा, मकान
और नागरिक सम्मान जैसी चीजें दुर्लभ होती जा रही हैं । सरकार और जनसामान्य के बीच
का सम्वाद कठिन होता जा रहा है । सम्वाद से सरकार और नागरिकों के बीच सरोकार बनता
है जो किसी देश को रहने के योग्य बनाता है । समाज के बीच भी सहज भरोसे का सम्वाद
समाप्त होता जा रहा है”।
पूर्व
विधान सभा सचिव भाई अशोक चतुर्वेदी जी का आकलन गम्भीर है । समाज का समाज से सम्वाद, समाज
का सरकार से सम्वाद ...। समाज है, सरकार है, सम्वाद कहाँ है?
मैंने
गोरखपुर वाले ओझा जी से पूछा – “सम्वाद से सरकार और नागरिकों के बीच सरोकार बनता
है जो किसी देश को रहने के योग्य बनाता है । समाज के बीच भी सहज भरोसे का सम्वाद
समाप्त होता जा रहा है । समाज है, सरकार है, सम्वाद कहाँ है?”
गोरखपुर
वाले ओझा जी ने नखरे दिखाये– “जा ...तुहीं खोजा ...सम्वाद कहाँ बाटे”।
मैंने
कहा, “मैं गम्भीर हूँ, आपसे अपेक्षा है कि आप सोच-समझकर
उत्तर देंगे”।
ओझा जी
गम्भीर हो गये, बोले – “चीन में समाज बा, सरकार बा, …सम्वाद सुनले हौ का? सम्वाद एगो स्वस्थ प्रक्रिया बा
...होखे के चाहीं ...के करी सम्वाद? केकरा से करी सम्वाद?
भेंड़ से सम्वाद ना करल जाला ...हाँकल जाला । चीन मं सम्वाद नइ खे
...तभियो समृद्धि बाटे ..चीन के इकोनॉमी देखले हौ?”
मैंने
पूछा – “लोकतांत्रिक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं क्या?”
वे बोले
– “दुनिया के कवनो तंत्र ..कतना हू नीमन होखे... कुछ दिन के बाद भ्रष्ट हो जाला ।
लोकतंत्र त एगो ग़ुस्ताख़ तंत्र बाटे ...कुल बुड़बक बनाये वाला तंत्र”।
तान्या शुक्ला
को कैलीफ़ोर्निया में रहते हुये दूसरा साल है । मैंने पूछा – “नये भारत के निर्माण
में तुमने अपनी क्या भूमिका निर्धारित की है?”
सुभाष
चंद्र बोस को भारत का प्रथम प्रधानमंत्री मानने वाली तान्या ने उत्तर दिया – “किसी
मृत समाज का क्या निर्माण! हमारे सामने बहुत से भारतवंशी हैं जिन्होंने अमेरिका के निर्माण में अपनी
भूमिका तय कर ली है । रही बात राष्ट्रवाद की तो आपका राष्ट्रवाद एक ऐसे देश की
भौगोलिक सीमाओं में सिमटा हुआ है जो अभी तक अपनी दिशा तक तय नहीं कर सका है
...युवापीढ़ी के पास इतना समय नहीं है कि वह सुभाषचंद्र बोस बनकर एक मृत समाज के
लिये अपनी आहुति दे दे । यह दुनिया आने वाले समय में किसी भारतवंशी को अमेरिका का
उपराष्ट्रपति ही नहीं राष्ट्रपति भी बनते हुये देखने वाली है । हम जीवित समाज के लिये
अपनी भूमिकायें निर्धारित करने वाले लोग हैं”।
मेरे सामने
एक नया विषय आ गया है ...भारतवंशियों का विराट राष्ट्रवाद!
बहुत बढ़िया Firstgyan
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