अपने पिछले लेख में मैंने कोरोना के नए वैरिएण्ट “ओमिक्रॉन” के बार में चर्चा की थी, जिसके बाद कुछ लोगों ने नये वैरिएण्ट्स से बचने के लिये आयुर्वेदिक उपायों के बारे में जानकारी चाही थी ।
पैथोजेनिक
माइक्रॉब्स को लेकर आयुर्वेद का सिद्धांत स्पष्ट है । जब रोग का बाह्य कारण सूक्ष्म
हो, रूपपरिवर्तनकारी हो और बारबार रणनीति बदलने वाला हो तो किसी माइक्रॉब या उसके
वैरिएण्ट के पीछ पड़ने से अपेक्षित लाभ की आशा करना कितना संतोषजनक हो सकता है! हमें
उस क्षेत्र की किलेबंदी करनी होगी जिस पर माइक्रॉब्स का आक्रमण होने वाला है । इस किलेबंदी
का आयुर्वेदिक नाम है “जीवनशैली” जो शरीर की रक्षा प्रणाली को सशक्त बनाने के लिए उत्तरदायी
है । आयुर्वेद उस जीवनशैली को प्रशस्त मानता है जो प्रकृति के समीप और स्वाभाविक (स्व-भाव
में स्थित) हो । इसे सीखने के लिये हमें मनुष्येतर प्राणियों की जीवनशैली को सूक्ष्मता
से देखना होगा । सुबह जागने से लेकर रात को सोने तक उनकी जीवनशैली का अवलोकन करना होगा
।
पैथोजेनिक
माइक्रॉब्स को अपनी वंशवृद्धि के लिये अन्य प्राणियों या वनस्पतियों की कोशिकाओं पर
निर्भर रहना होता है, इसलिये संक्रमण का होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिससे बचने का प्रयास तो
किया जा सकता है किंतु पूरी तरह रोका नहीं जा सकता । संक्रमण को रोग उत्पन्न करने का
कारण बनने से रोकने के लिये हमें माइक्रॉब्स के रिप्लीकेशन को रोकना होगा जिसे संतुलित
आहार और नेचुरल एण्टीऑक्सीडेण्ट्स के सेवन से सम्भव बनाया जा सकता है ।
यदि हम तलवार
से मच्छर पर वार करें तो सफलता मिलने की कितनी प्रायिकता हो सकती है! इसके लिये तो
धुआँ करना, शरीर के किसी हिस्से को खुला न रखना, मच्छरदानी लगाना
और अपने शरीर में मच्छर रिपेलेण्ट तेलों का लगाना कहीं अधिक फलदायी होगा, यही किलेबंदी है । यह सब हमारी जीवनशैली में होना चाहिये । फ़ंगल इनफ़ेक्शन से
बचने के लिये तैलाभ्यंग का नित्याभ्यास ही सबसे अच्छा उपाय है जो दुर्भाग्य से हमारी
जीवनशैली से प्रायः बिदा ही हो चुका है ।
वायरस और
बैक्टीरिया से बचने के लिये मेडिकल अनटचेबिलिटी, संतुलित
आहार और एण्टी ऑक्सीडेण्ट्स के सेवन का अभ्यास ही सबसे निर्दुष्ट उपाय है । एण्टीकोरोना
वैक्सीन की प्रभावशीलता एक वर्ष से अधिक नहीं बतायी गयी है । वैक्सीन के सभी डोज़ ले
लेने के बाद भी लोग कोरोना से संक्रमित हो रहे हैं, वैज्ञानिक
वैक्सीन से पूर्णसुरक्षा का दावा नहीं कर पा रहे हैं । डॉ. के.के. अग्रवाल का दुःखद
अंत हमें सावधान करता है ...हमें प्रकृति में उपलब्ध विकल्पों की ओर भी देखना होगा
। और ये विकल्प हैं नेचुरल एण्टीऑक्सीडेण्ट्स जिनके बारे में पूर्व के लेखों में भी
उल्लेख किया जाता रहा है ।
हमें उन
लोगों के बारे में भी सोचना होगा जो विभिन्न कारणों से वैक्सीन के लिये उपयुक्त नहीं
पाये जाते । ऐसे लोगों के लिये वैक्सीन का क्या विकल्प है? क्या उन्हें
संक्रमण के लिये छोड़ दिया जाना चाहिये? क्या शिशुओं और बच्चों
को भी संक्रमण के लिये छोड़ दिया जाना चाहिये? जहाँ तक शिशुओं
की बात है तो यदि माँ नेचुरल एण्टीऑक्सीडेण्ट्स का सेवन करती है तो वह अपने साथ-साथ
अपने शिशु की भी कोरोना से किलेबंदी कर सकती है ।
मैं एक बार
फिर नेचुरल एण्टीऑक्सीडेण्ट्स का उल्लेख कर रहा हूँ – लौंग, कालीमिर्च,
सोंठ, दालचीनी और स्टार एनिस । समान मात्रा में
लेकर बनाये गये इसके चूर्ण की मात्रा है मात्र एक ग्राम सुबह-शाम मधु के साथ । बच्चों
के लिये 250 मिलीग्राम से 500 मिलीग्राम तक की मात्रा पर्याप्त है । कोरोना संक्रमण
के प्रारम्भ से ही हर प्रकार के वायरल इन्फ़ेक्शंस से सुरक्षा के लिये मैं भारत सहित
अफ़्रीका, यू.एस.ए. और योरोप में बसे अपने परिचित भारतवंशियों
को इस प्रोफ़ाइलेक्टिक औषधि का परामर्श देता रहा हूँ । ध्यान रहे, संक्रमण के पैथोलॉज़िकल परिणामों को न्यूनतम से लेकर शून्य करने तक के लिये
हमें वायरस के रिप्लीकेशन को रोकना होगा जिसके लिये एण्टीऑक्सीडेण्ट्स का नित्यसेवन
एक प्रभावी उपाय है ।