मंगलवार, 30 नवंबर 2021

कोरोना वैरिएण्ट्स और आयुर्वेद

         अपने पिछले लेख में मैंने कोरोना के नए वैरिएण्ट “ओमिक्रॉन” के बार में चर्चा की थी, जिसके बाद कुछ लोगों ने नये वैरिएण्ट्स से बचने के लिये आयुर्वेदिक उपायों के बारे में जानकारी चाही थी ।   

पैथोजेनिक माइक्रॉब्स को लेकर आयुर्वेद का सिद्धांत स्पष्ट है । जब रोग का बाह्य कारण सूक्ष्म हो, रूपपरिवर्तनकारी हो और बारबार रणनीति बदलने वाला हो तो किसी माइक्रॉब या उसके वैरिएण्ट के पीछ पड़ने से अपेक्षित लाभ की आशा करना कितना संतोषजनक हो सकता है! हमें उस क्षेत्र की किलेबंदी करनी होगी जिस पर माइक्रॉब्स का आक्रमण होने वाला है । इस किलेबंदी का आयुर्वेदिक नाम है “जीवनशैली” जो शरीर की रक्षा प्रणाली को सशक्त बनाने के लिए उत्तरदायी है । आयुर्वेद उस जीवनशैली को प्रशस्त मानता है जो प्रकृति के समीप और स्वाभाविक (स्व-भाव में स्थित) हो । इसे सीखने के लिये हमें मनुष्येतर प्राणियों की जीवनशैली को सूक्ष्मता से देखना होगा । सुबह जागने से लेकर रात को सोने तक उनकी जीवनशैली का अवलोकन करना होगा ।

पैथोजेनिक माइक्रॉब्स को अपनी वंशवृद्धि के लिये अन्य प्राणियों या वनस्पतियों की कोशिकाओं पर निर्भर रहना होता है, इसलिये संक्रमण का होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिससे बचने का प्रयास तो किया जा सकता है किंतु पूरी तरह रोका नहीं जा सकता । संक्रमण को रोग उत्पन्न करने का कारण बनने से रोकने के लिये हमें माइक्रॉब्स के रिप्लीकेशन को रोकना होगा जिसे संतुलित आहार और नेचुरल एण्टीऑक्सीडेण्ट्स के सेवन से सम्भव बनाया जा सकता है ।

यदि हम तलवार से मच्छर पर वार करें तो सफलता मिलने की कितनी प्रायिकता हो सकती है! इसके लिये तो धुआँ करना, शरीर के किसी हिस्से को खुला न रखना, मच्छरदानी लगाना और अपने शरीर में मच्छर रिपेलेण्ट तेलों का लगाना कहीं अधिक फलदायी होगा, यही किलेबंदी है । यह सब हमारी जीवनशैली में होना चाहिये । फ़ंगल इनफ़ेक्शन से बचने के लिये तैलाभ्यंग का नित्याभ्यास ही सबसे अच्छा उपाय है जो दुर्भाग्य से हमारी जीवनशैली से प्रायः बिदा ही हो चुका है ।

 

वायरस और बैक्टीरिया से बचने के लिये मेडिकल अनटचेबिलिटी, संतुलित आहार और एण्टी ऑक्सीडेण्ट्स के सेवन का अभ्यास ही सबसे निर्दुष्ट उपाय है । एण्टीकोरोना वैक्सीन की प्रभावशीलता एक वर्ष से अधिक नहीं बतायी गयी है । वैक्सीन के सभी डोज़ ले लेने के बाद भी लोग कोरोना से संक्रमित हो रहे हैं, वैज्ञानिक वैक्सीन से पूर्णसुरक्षा का दावा नहीं कर पा रहे हैं । डॉ. के.के. अग्रवाल का दुःखद अंत हमें सावधान करता है ...हमें प्रकृति में उपलब्ध विकल्पों की ओर भी देखना होगा । और ये विकल्प हैं नेचुरल एण्टीऑक्सीडेण्ट्स जिनके बारे में पूर्व के लेखों में भी उल्लेख किया जाता रहा है ।

हमें उन लोगों के बारे में भी सोचना होगा जो विभिन्न कारणों से वैक्सीन के लिये उपयुक्त नहीं पाये जाते । ऐसे लोगों के लिये वैक्सीन का क्या विकल्प है? क्या उन्हें संक्रमण के लिये छोड़ दिया जाना चाहिये? क्या शिशुओं और बच्चों को भी संक्रमण के लिये छोड़ दिया जाना चाहिये? जहाँ तक शिशुओं की बात है तो यदि माँ नेचुरल एण्टीऑक्सीडेण्ट्स का सेवन करती है तो वह अपने साथ-साथ अपने शिशु की भी कोरोना से किलेबंदी कर सकती है ।

मैं एक बार फिर नेचुरल एण्टीऑक्सीडेण्ट्स का उल्लेख कर रहा हूँ – लौंग, कालीमिर्च, सोंठ, दालचीनी और स्टार एनिस । समान मात्रा में लेकर बनाये गये इसके चूर्ण की मात्रा है मात्र एक ग्राम सुबह-शाम मधु के साथ । बच्चों के लिये 250 मिलीग्राम से 500 मिलीग्राम तक की मात्रा पर्याप्त है । कोरोना संक्रमण के प्रारम्भ से ही हर प्रकार के वायरल इन्फ़ेक्शंस से सुरक्षा के लिये मैं भारत सहित अफ़्रीका, यू.एस.ए. और योरोप में बसे अपने परिचित भारतवंशियों को इस प्रोफ़ाइलेक्टिक औषधि का परामर्श देता रहा हूँ । ध्यान रहे, संक्रमण के पैथोलॉज़िकल परिणामों को न्यूनतम से लेकर शून्य करने तक के लिये हमें वायरस के रिप्लीकेशन को रोकना होगा जिसके लिये एण्टीऑक्सीडेण्ट्स का नित्यसेवन एक प्रभावी उपाय है ।

रविवार, 28 नवंबर 2021

समलैंगिकता अब नहीं है असामान्य

         असामान्य और सामान्य के मध्य की मिटती विभेदक रेखा क्या प्रकृति को चुनौती देने वाली हो सकती है? क्या अब मानव मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा के कुछ अध्यायों को नये सिरे से लिखना होगा?

समलैंगिक अधिवक्ता सौरभ कृपाल को दिल्ली हाइकोर्ट का जज नियुक्त किया गया है जिसके बाद लाख टके का एक प्रश्न यह उठने लगा है कि क्या ऐसा कोई व्यक्ति इस प्रकार के प्रकरणों की सुनवायी करते समय स्थितप्रज्ञ हो सकेगा?  

समलैंगिकता को अब पर्वर्टेड सेक्सुअल बिहैवियर नहीं माना जायेगा तो क्या सनी लियोनी की तरह ऐसे लोग हमारे आदर्श व्यक्तियों की सूची में स्थान बनाने में सफल होते जायेंगे और लोग अपने आदर्श व्यक्ति के चरण चिन्हों पर चलने का प्रयास नहीं करेंगे?

न्यायाधीश को मनसा-वाचा-कर्मणा स्थितिप्रज्ञ होना चाहिये जो कि इस पद के लिये एक गरिमामय एवं आदर्श स्थिति है । मनोचिकित्सक मानते रहे हैं कि सेक्सुअल पर्वज़न एक असामान्य मानसिक और वैचारिक स्थिति है जिसके पीछे व्यक्तिगत, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक या परिवेशजन्य कारण हो सकते हैं । चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से भी पुरुष समलैंगिकता स्वास्थ्य के लिये चुनौतीपूर्ण हो सकती है । हैती की वे समलैंगिक घटनायें अभी बहुत पुरानी नहीं हुयी हैं जो अंततः एड्स जैसी घातक व्याधि को जन्म देने का कारण बन गयी थीं ।

सुप्रीम कोर्ट के कुछ न्यायाधीश सेवानिवृत्त होने के बाद न्यायव्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करते रहे हैं । इसलिये अब मैं पुनः स्थितिप्रज्ञता की बात करूँगा, क्या ऐसा कोई व्यक्ति न्यायाधीश होने के बाद वादी या प्रतिवादी के शारीरिक आकर्षण के मोह से मुक्त रहकर निष्पक्ष न्याय कर सकेगा ?

शनिवार, 27 नवंबर 2021

कोरोना वायरस का नया वंशज ओमिक्रॉन(B.1.1.529)

         बहुरूपिया कोरोना वायरस के नये संस्करण से सावधान!

        सार्स कोरोना परिवार का यह वायरस अपने रूप और जीवनशैली में लगातार परिवर्तन करता जा रहा है जिसके कारण कई उत्परिवर्तनों (MUTATIONS) के साथ इसके वंशजों के नये-नये संस्करण (VARIENTS)  सामने आते जा रहे हैं । प्रकृति की यह स्पष्ट चेतावनी है कि कोरोना का सामना करने के लिये हमें भी अपनी जीवनशैली में परिवर्तन करने ही होंगे । मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूँ कि “हमें सार्स कोरोना वायरस के साथ ही रहना होगा”।   

चालू नवम्बर महीने में सार्स कोरोना वायरस-2 के जिस नये संस्करण “ओमिक्रॉन” ने दक्षिण अफ़्रीका, इज़्रेल, बेल्ज़ियम, बोत्स्वाना और हॉन्गकॉन्ग में दस्तक दे दी है वह अभी तक के सर्वाधिक ख़तरनाक डेल्टा संस्करण से भी अधिक चुनौतीपूर्ण प्रमाणित हो रहा है । इसी महीने, बुधवार यानी 24 नवम्बर को दक्षिण अफ़्रीका में पहली बार कोरोना वायरस के एक और नये संस्करण के बारे में पुष्टि हुयी है । इस संस्करण के अध्ययन में अभी कई दिन लग सकने की सम्भावना है किंतु इसके प्रारम्भिक लक्षणों में यह स्पष्ट हो गया है कि इस संस्करण में संक्रमण के तीव्रता से फैलाव की सर्वाधिक क्षमता है । इसकी मारक क्षमता और विभेदात्मक लक्षणों (Differential Diagnosis) के बारे में अभी कुछ भी स्पष्ट नहीं है ।

कोरोना वायरस के इस नये संस्करण “ओमिक्रॉन” में अभी तक तीस से भी अधिक उत्परिवर्तनों का पता लग चुका है जिनमें से दस तो केवल इसकी स्पाइक प्रोटीन में हुये हैं जिसके कारण इसकी संक्रामक क्षमता में इतनी अधिक वृद्धि सम्भव हो सकी है, साथ ही यह हर्ड-इम्यूनिटी उत्पन्न कर सकने में भी बाधक हो सकता है जिसके कारण यह एक ही व्यक्ति को बारम्बार संक्रमित कर सकता है ।

उत्परिवर्तन प्राणियों और वनस्पतियों में होने वाली वह जैवरासायनिक प्रक्रिया है जिससे वे अपने आपको पहले की अपेक्षा और भी अधिक सक्षम बनाते हैं । सबसे बुरी बात यह है कि ओमिक्रॉन कोरोना से संक्रमित लोगों में से अधिकांश ऐसे लोग हैं जिन्होंने पहले से ही एण्टीकोरोना वैक्सीन लगवा ली थी जबकि इज़्रेल का एक संक्रमित व्यक्ति ऐसा भी है जिसने तीसरा बूस्टर डोज़ भी ले लिया था । यह ऐसी घटना है जिसने एक बार फिर वैक्सीन की कार्मुकता और विश्वसनीयता पर वैज्ञानिकों को चिंतन करने के लिये विवश कर दिया है । यूँ भी वैज्ञानिक एण्टी-कोरोना वैक्सीन की प्राभाविकता अधिकतम एक वर्ष तक की बताते रहे हैं । प्रश्न उठता है कि एक वर्ष के बाद फिर क्या? एक दूसरी चुनौती यह भी है कि कई पैथोलॉज़िकल लैब्स वर्तमान पी.सी.आर. टेस्ट को एक मार्कर के रूप में उपयोग करने की सलाह दे रही हैं जिसका कारण पी.सी.आर. टेस्ट की वह अक्षमता है जो तीन में से एक टार्गेट जीन (एस. जीन टार्गेट फ़ैल्योर) की पहचान करने के लिए आवश्यक है । इस असफलता के कारण जीन सीक्विंसिंग की पुष्टि सम्भव नहीं हो पाती ।           

        कोरोना वायरस को लेकर हमारे सामने बहुत सी चुनौतियाँ हैं किंतु वह मनुष्य ही क्या जो चुनौतियों का सामना न कर सके । आवश्यकता इस बात है कि कोरोना की आदतों और उत्परिवर्तन की महान क्षमताओं का सम्मान करते हुये हम अपनी जीवनशैली में परिवर्तन करें साथ ही प्रचुर मात्रा में एण्टीऑक्सीडेण्ट्स से युक्त काली मिर्च, लौंग, दालचीनी, स्टार एनिस और सोंठ जैसे गर्म मसालों का औषधि की तरह समुचित उपयोग करें ।

एक सवाल देश के मन का

         लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाली भारत की प्रजा के मन में कुछ दिनों से एक प्रश्न लावा की तरह फूटने लगा है । सर्जिकल स्ट्राइक करने और धारा 370 हटाये जाने के पीछे जो दृढ़ आत्मविश्वास था, क्या राकेश टिकैत और योगेंद्र यादव ने उसे ढहा दिया है?

साल भर तक दिल्ली की सीमाओं पर आवागमन बाधित करने, उपद्रव करने, सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने, हत्या और बलात्कार करने, लालकिला परिसर में पुलिस कर्मियों पर तलवारों से हमले करने और लालकिले पर खालिस्तानी परचम लहराने वाले जिन लोगों को पूरा देश आँखें फाड़-फाड़ कर साल भर तक देखता, भोगता और कोसता रहा है वे अचानक प्रधानमंत्री जी को किसान नहीं होकर भी किसान भाई लगने लगे हैं । प्रधानमंत्री के मन में अचानक हुये इस परिवर्तन का कोई स्पष्ट और तर्कसंगत कारण भारत के आम नागरिक को दिखायी नहीं देता सिवाय इसके कि इसके पीछे उस लचर मानसिकता की बर्फीली ठण्डक रहे होगी जिसने पालघाट संत हत्या, शाहीनबाग का देश विरोधी हठ, और बंगाल चुनावों के बाद बंगाल में हुयी अराजक हिंसा के सामने भारत के लोकतंत्र को लाचार और बेचारा बना दिया था । भाजपा के नेताओं ने ही नहीं, देश के आम नागरिक ने भी दिल्ली की सिंधु सीमा को बाधित करने वाले हठी लोगों को किसान मानने से इंकार कर दिया था, प्रधानमंत्री जी ने अचानक ही उन अराजकतत्वों को भारत का दयालु अन्नदाता स्वीकार कर उनके सामने लोकतंत्र को तड़पते हुये मरने के लिये समर्पित कर दिया । भारत के आम नागरिक और छोटी एवं मध्यम जोत के किसान प्रधानमंत्री जी के इस निर्णय से हताश हुये हैं । प्रधानमंत्री ने भारत की प्रजा के उस अतिआत्मविश्वास को छिन्न-भिन्न कर दिया है जो उसने उनमें व्यक्त किया था ।

प्रश्न अब और भी उठने लगे हैं । क्या भारत के लोकतंत्र का सारथी इसी तरह के अवरोधक पथों पर आगे भी रथचालन करता रहेगा या फिर उसमें कुछ सुधार भी करेगा? समान नागरिक कानून, एक देश एक विधान और जम्मू-कश्मीर-लद्दाख की योजनाओं का अब क्या होगा? क्या सड़क पर इसी तरह नमाज पढ़ी जाती रहेगी? क्या किसी ग़ैरमुस्लिम के घर में घुसकर नमाज पढ़ने वालों की नयी परम्परा अपनी जड़ें मज़बूत करने वाली है? क्या संतों पर हिंसक आक्रमण होते रहेंगे? क्या देश में कहीं भी मजारें और मस्ज़िदें बनती रहेंगी? क्या भारत में हिन्दू-विरोधी गतिविधियों को राजनीतिक प्रश्रय मिलता रहेगा? क्या भारत से हिन्दुओं को समाप्र कर देने वाली मुस्लिम नेताओं की धमकियाँ सच साबित होने वाली हैं? सच यह है कि भारत का सशंकित आम हिन्दू अब और भी भयभीत हो गया है ।     -  अचिंत्य की कलम से

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दुत्वा

         हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दुत्वा जैसे तीन शब्द आजकल भीड़ में कुलाँचे मारते हुये घूम रहे हैं, गोया सब्जी मण्डी में कुछ नंदी घुस आये हों । हमने अपना कपार खुजाते हुये मोतीहारी वाले मिसिर जी को फोन लगाया – “गोड़ परतनी मिसिर बाबा! हम अकदम कनफुजिया गये हैं, बुझयबे नहीं करता है के हिन्दू, हिन्दुत्व आ हिन्दुत्वा मँ झगड़ा लगा के लोग कहना का चाहता है ? तन हमरो मदद किया जाय मिसिर बाबा”।

गुरु गम्भीर वाणी में मिसिर जी उवाचे –  इस तरह के आधारहीन विवाद हमारे अधोपतन और भाषायी अज्ञान के द्योतक हैं । क्या जड़त्व के बिना स्थिरता सम्भव है ? क्या मिठास के बिना गुड़ का अस्तित्व संभव है? क्या दैवत्व के बिना किसी देवता का अस्तित्व सम्भव है ? हिन्दुत्व, दैवत्व, नित्यत्व आदि शब्द मात्र नहीं प्रत्युत् वे अनिवार्य गुण या धर्म हैं जिनके अभाव में हिन्दू, देव और नित्य आदि संज्ञा धारकों का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है, ये धर्म या गुण वाचक शब्द हैं जो क्रमशः हिन्दू, देव और नित्य आदि में समवेत भाव से रहते हैं और अयुतसिद्ध हैं । व्हेन वी से हिन्दुत्व, इट डिनोट्स द स्टेट ऑर कण्डीशन ऑफ़ बींग अ हिन्दू । हिन्दुत्व इज़ अ कॉन्कोमिटेण्ट एलीमेंट विदाउट व्हिच बींग अ हिन्दू इज़ नॉट पॉसिबल ।  

अंग्रेज़ी पृष्ठभूमि से जब हिन्दुत्व को देखने का प्रयास किया जाता है तो वह हिन्दुत्वाहो जाता है, इसीलिये उसका वास्तविक स्वरूप लोगों को दिखायी नहीं देता । यह कुछ-कुछ उसी प्रकार है जैसे अंग्रेज़ी पृष्ठभूमि से देखने पर केरल केरला’, आंध्र आंध्रा’, बंग बंगा’, तरंग तरंगाऔर योग योगा हो जाता है । यही कारण है कि जब हम केरल को केरला’, आंध्र को आंध्रा’, बंग को बंगा’, तरंग को तरंगाऔर योग को योगा के रूप में देखते हैं तो उनके मूल स्वरूप कहीं खो जाते हैं; तब जो हम देख पाते हैं वह केवल उनका बाह्य कलेवर भर होता है जो कि परिवर्तनशील, सतही और सारतत्व रहित हुआ करता है; ...तब भारतीयता कहीं खो जाती है, उन संज्ञाओं के मूल तत्व हमारे सामने से ओझल हो जाते हैं ।

हमने भी सुना है, आजकल भीड़ के सामने कुछ लोग  विचित्र ज्ञानवर्षा कर रहे हैं– “जब हिन्दू पहले से मौज़ूद है ही तो अब आज हिन्दुत्वा की क्या ज़रूरत? कभी आप स्वयं को हिन्दू कहते हैं, कभी आप हिन्दुत्वा कहते हैं, आप एक साथ दोनों कैसे हो सकते हैं, एक समय में एक ही हो सकते हैं – हिन्दू या फिर हिंदुत्वा”।

भारत की यह नयी परम्परा है, कुछ शब्दों को प्रश्न बनाकर भीड़ की ओर उछाल दिया जाता है और वे अप्रश्न बन कर इधर से उधर लोगों से टकराते फिरते हैं । हिन्दुत्वा वाले अप्रश्न प्रश्न से कुछ और भी अप्रश्नप्रश्न उत्पन्न हो गये हैं, यथा - जब आप बंधु हैं तो बंधुत्वा की क्या ज़रूरत? जब आप मनुष्य हैं तो मनुष्यत्वा की क्या ज़रूरत? इसी तरह दैवत्वा, मुमुक्षुत्वा, प्रभुत्वा, राक्षसत्वा, नित्यत्वा, विशेषत्वा और क्षुद्रत्वा आदि की क्या आवश्यकता? इन अप्रश्नप्रश्नों ने कुछ प्रचलित और सम्मानित शब्दों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है । क्या ये लोग नहीं जानते कि नैतिकता के अभाव में कोई व्यक्ति नैतिक हो ही नहीं सकता !  

भीड़ में उछाले गये निरर्थक शब्दों और अप्रश्न प्रश्नों को भीड़ से बाहर निकालकर उनके परिमार्जन का प्रयास भी अब कोई नहीं करना चाहता । हिन्दुत्वा’, ‘आयुर्वेदाऔर योगा वेलनेस सेण्टरजैसे नये शब्द भीड़ को आकर्षित करते हैं । मेरे जैसे पुरातनपंथी ...”द सो कॉल्ड अनसिविलाइज़्ड एण्ड नींडर्थल विलेज़ पीपुल ऑफ़ मोतीहारी” ऐसे अनर्थकारी शब्द सुनकर बरबस बोल उठते हैं – साँकरी गली में मातु मेरी काँकरी गड़त है ।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

कृषि कानूनों की भ्रूण हत्या

                क्या अब भारत के लोकतंत्र को मुट्ठी भर दबंग ब्लैकमेलर्स की इच्छा के अनुसार चलना होगा ? क्या अब भारतीय राजनीति में अधोपतन की कुछ और नयी परम्परायें स्थापित हो रही हैं ?

आज, गुरु नानक देव जी की जयंती के प्रकाशपर्व पर भारत ने स्पष्ट अनुभव किया कि राकेश टिकैत ने प्रधानमंत्री को आत्मसमर्पण के लिये विवश कर दिया है । प्रधानमंत्री ने कुछअराजक और स्वार्थी लोगों के दबाव में आकर कृषि कानूनों की भ्रूण हत्या की अनुमति दे दी है ।

दुर्भाग्य से गुजरात ने भारत को एक और गांधी दे दिया है जो “कुछ” लोगों की संतुष्टि के लिये “बहुसंख्य” लोगों की बलि देने के लिये तैयार है ?

“कुछ” लोगों ने, जिन्हें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री समझा सकने में असफल रहा, “बहुत” लोगों के जीवन और भाग्य को बंधक बना लिया है । आज, अनायास ही छप्पन इंच का एक गर्वीला सीना टिकैत के सीने के आगे बौना हो गया और एक प्रधानमंत्री ने कुछ अराजक तत्वों के सामने संधि का प्रस्ताव रख दिया है ।

आज एक बार फिर जनता का भरोसा टूटा है, …उस जनता का, जो पिछले सत्तर सालों से ठगी जाती रही है । बात केवल कृषि कानूनों की नहीं बल्कि उस राजकीय संकल्प की भी है जिसमें दृढ़ता नहीं, बल्कि अवसरवादिता का प्रदूषण मिला हुआ है ।  

सुबह-सुबह भारत के प्रधानमंत्री ने कृषि कानून वापस लेने की घोषणा करके अपने विरोधियों और समर्थकों को एक साथ चौंका दिया । मोदी की दृष्टि में अपना भरोसा रखने वाले मतदाता तो जैसे हकबका ही गये, उन्हें लगा जैसे हिंद महासागर में अनायास ही कोई चक्रवात आ गया है ।  

विरोध करना ही जिनका एकमात्र धर्म है वे अब कुछ और बहाने खोजने में लग गये हैं । बक्कल नोचने की धमकी देने वाले जिस ब्लैकमेलर को जेल में होना चाहिये था वह अब कृषि कानूनों को वापस लिये जाने का पक्का कागजमाँग रहा है । छप्पन इंच ने बावन इंच के समक्ष हथियार डाल दिये जिन्हें तुरंत ही विपक्ष ने हाथों-हाथ उठा लिया और प्रधानमंत्री पर वार पर वार करने प्रारम्भ कर दिये जिससे आल्हा में कुछ पंक्तियाँ और जुड़ गयीं ...”जइसेइ मोदी हार मानि कै, सौंपि दयी अपनी तलवार । मोदी के दुस्मन झपटि उठाय लयी, करन लगे वार पै वार”॥

   

मैंने मोतीहारी वाले मिसिर जी की प्रतिक्रिया जानने के लिये उनसे सम्पर्क करने का कई बार प्रयास किया किंतु उन्होंने संध्या छह बजे तक मुझे बिल्कुल भी भाव नहीं दिया । अंततः जब सम्पर्क हुआ तो मेरे बोलने से पहले ही मिसिर जी ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया की भूमिका प्रारम्भ कर दी  – “आज हम अकदम रिसियाइल बानी, एही से फुनवा ना उठवलीं”।

मैंने धीरे से कहा – “मैं आपकी मनःस्थिति समझ सकता हूँ”।

मिसिर जी मुखर हुये – “अँधेरा कायम रहे हमेसा ...ई है नू सिद्ध कऽइलीं हँ मोदी जी । जवन हाथ मँ हम राच्छस के बध करे खातिर तलवार दिहले रहलीं ऊ राच्छस के सामने आत्मसमर्पन कइ देले बा । अतना बड़का देस के परधानमंत्री एगो ठरकी टिकैत से हार गइल बा । आज किरसी कानून वापिस हो गऽइल, काल्ही “NRC”“CAA” वापस हो जाई । हम त देस आ सनातन धरम के रच्छा खातिर मोदिया के भोट दिहले रहलीं ...हमार भोटवा के भैलू सतियानास हो गइल बा”।

मैंने उनके क्रोध को कम करने की कामना से कहा – “हाँ ...देश निराश हुआ है, यह सिद्धांतों की पराजय के साथ एक अहंकारपूर्ण हठ की जीत है । आज गुरुनानक देव जी के प्रकाशपर्व के दिन देश का छोटा किसान अपने चारो ओर अंधकार का अनुभव कर रहा है । जनता यह समझ पाने में असमर्थ रही है कि आख़िर मोदी जी ने ऐसा क्यों किया ? लाल किले पर हमला करके खालिस्तानी झण्डा लहराने वालों की आज एक बार फिर जीत हो गयी है । ट्रैक्टर से बैरीकेट्स तोड़ने वालों की निरंकुशता को बल मिला है, आंदोलन के नाम पर आम लोगों के जीवन को बाधित करने वाले उत्साहित हुये हैं और अराजक शक्तियाँ के मनोबल में बाढ़ आ गयी है”।

मिसिर जी गम्भीर हुये – “यूँ भी, न्यायालय के निर्णय से कृषि कानून अभी दो वर्ष तक लागू ही नहीं होना था । राजकीय निर्णयों के क्रियान्वयन में जिस संकल्प और दृढ़ता की अपेक्षा की जाती है उसका अभाव आज मोदी के समर्थकों के साथ-साथ विरोधियों ने भी अच्छी तरह देख लिया है । शासन इस तरह नहीं किया जा सकता, शांति और कल्याणकारी व्यवस्था के लिये राजकीय कठोरता आवश्यक है, अधिक लोगों के कल्याण के लिये कुछ लोगों का दमन करना शासन की अपरिहार्य विवशता है । सत्ता हर किसी को प्रसन्न नहीं कर सकती, सम्भव ही नहीं है । तालिबान की तरह वामपंथी और सत्तालोलुप भी ऐसे जीव होते हैं जिन्हें लोककल्याण से कोई प्रयोजन नहीं होता । आज मोदी ने जो किया है उसमें अवसरवादिता का प्रदूषण मिला हुआ है । अस्तित्व में आने से पहले ही कृषि कानून की भ्रूणहत्या कर दी गयी जो हतोत्साहित करने वाली है । मोदी ने अराजकतत्वों को, सत्य की हत्या पर उत्सव मनाने का अवसर दिया है, टीवी पर जो लोग एक-दूसरे को मिठाइयाँ खिला रहे हैं, मैं दावे से कह सकता हूँ कि उनमें से 99 प्रतिशत लोग किसान नहीं हैं । मोदी के निर्णय से इण्डिया तो ख़ुश हुआ किन्तु भारत को बहुत बड़ी निराशा हुयी है”।

मोतीहारी वाले मिसिर जी ही नहीं, आज तो पूरा देश निराश हुआ है ...इसलिये और भी क्योंकि मोदी से किसी को ऐसी आशा नहीं थी । यूँ, मोदी के चेहरे पर पराजय की गहरी पीड़ा की घनी काली छाया बहुत स्पष्ट दिखायी दे रही थी ।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

मृत्यु का छायांकन

         वसंत ऋतु का आगमन हो चुका था, बुग्याल पर बिछी सफ़ेद हिमानी चादर के पिघलते ही धरती के भीतर से घास झाँकने लगी थी, धीरे-धीरे हिमालय के बुग्याल हरी-हरी लम्बी घास से भर गये और जहाँ-तहाँ रंग-बिरंगे फूल भी मुस्करा उठे । पश्मीना बकरियों, नौरों, भेंडों, घोड़ों, खच्चरों, याकों और गायों के लिये यह सबसे अधिक आनंददायक ऋतु हुआ करती है । पशुओं के नन्हें शावक लम्बे-लम्बे बुग्यालों में इधर से उधर उछल-कूद मचाते रहते । उनमें से अधिकांश ने अपने जीवन में पहली बार बुग्याल की यात्रा की थी और इतनी सारी घास को एक ही स्थान पर उगे हुये देखा था ।

दोपहर हो चुकी थी, पशुपालक ने तीन पत्थर रखकर एक चूल्हा बनाया और सूखी झाड़ी की टहनियों से आग जलाकर थनेर की छाल और याक के मक्खन वाली नमकीन चाय बनाने लगा । नौर (भारल, ब्ल्यू-शीप) चरते हुये दूर निकल गये, कुछ इधर कुछ उधर ...जिन्हें टकटकी लगाये देख रहे थे कुछ लोग ...दूर एक पहाड़ी चोटी की आड़ से । 

घास का वह अंतिम कौर था जिसे उसने हिमालय के बुग्याल में चरने का प्रयास किया था । झुण्ड के अन्य नौर भी आसपास ही चर रहे थे । अचानक वह उछला और वहीं गिर कर तड़पने लगा । पहाड़ी चोटी की आड़ में छिपे लोग ख़ुशी से झूम उठे । तड़पने वाला पशु था ..झुण्ड का एक युवा नौर और झूमने वाले सभ्य थे ...कुछ मनुष्य । शिकारियों का दल तड़पते हुये नौर के पास आया, और उसके चारो ओर घेरा बनाकर नाचने लगा । इस बीच गोली से घायल हुये नौर ने अपने जीवन की अंतिम साँस ली, घास के अंतिम बार चरे गये ग्रास का कुछ हिस्सा उसके मुँह में था और कुछ बाहर झूल रहा था ...जैसे कि खाने की चेष्टा कर रहा हो । असभ्य नौर की नश्वर काया ने सभ्य मनुष्य की उदरपूर्ति के लिये स्वयं को तैयार कर लिया था ।

नाचने के बाद फ़ोटो-सेशन शुरू हुआ मृत्यु में आनंद का छायांकन । शिकारियों ने मृत नौर को विभिन्न मुद्राओं में पकड़कर खूब सारे फ़ोटो खीचे । अपने मित्रों को शिकारगाथा सुनाने के लिये यह सब उन्हें आवश्यक लगता है ।

स्यूडोइस वंश के एकमात्र सदस्य नौर का शिकार करना हिंसक हिम तेंदुये की पहली पसंद है । किंतु आज तो अहिंसा पर चर्चा करने वाले सभ्य मनुष्य ने नौर का शिकार किया था । मृत्यु में आनंद के छायांकन के बाद शिकारियों ने मृत नौर की देह को एक बड़े से थैले में भरा और पीठ पर लादकर चल दिये ।

हिमालय में इस बार फिर ...पहले हिम-स्खलन हुआ और फिर भू-स्खलन । हिम के भीतर की अग्नि को तुम अभी भी नहीं देख पा रहे हो न!

गुरुवार, 11 नवंबर 2021

गुरुग्राम बना “अंतर-राष्ट्रीय सूर्य गठबंधन” का मुख्यालय

             निरंतर नकारात्मक समाचारों के विशाल पर्वत के पीछे एक ओर उपेक्षित से खड़े इस समाचार ने धीरे से मुझे बताया कि 2015 में भारत ने फ़्रांस के साथ मिलकर सौरऊर्जा के क्षेत्र में काम करने के लिये जिस “अंतरराष्ट्रीय सूर्य गठबंधन” की स्थापना की थी उसके सदस्य देशों की संख्या अब 124 तक पहुँच गयी है, और हाल ही में अमेरिका ने भी इसकी सदस्यता ग्रहण कर ली है । प्रदूषण रहित ऊर्जा का उत्पादन और सन् 2050 तक ग्रीन हाउस गैसेज़ को शून्य स्तर तक लाना इस संस्था के मुख्य उद्देश्य हैं । संस्था का नारा है – “एक सूर्य, एक विश्व और एक ग्रिड” । वसुधैव कुटुम्बकम का इससे बड़ा अनुप्रयोग और क्या हो सकता है!

प्रारम्भ में इस संस्था का नाम रखा गया था – “अंतरराष्ट्रीय सौर प्रौद्योगिकी एवं अनुप्रयोग अभिकरण” (International Agency for Solar Technology and Applications), जिसे बाद में बदलकर अंतरराष्ट्रीय सूर्य गठबंधन” (International Solar Alliance) कर दिया गया । इस तरह भारत सौरऊर्जा की वैश्विक राजधानी बन गया ।

इस गठबंधन के उद्देश्यों के क्रियान्वयन से सर्वाधिक लाभ उन देशों को मिलता है जो कर्क और मकर रेखा के मध्य स्थित हैं । सूर्य की किरणों से सर्वाधिक आप्लावित रहने वाले इन देशों को “सूर्यपुत्र देश” कहा गया है, वहीं भारत को सौर-ऊर्जा निर्माण के लिये एक आदर्श देश माना जाता है । वैश्विक स्तर पर सौर-ऊर्जा के लिये भारत की इस महत्वाकांक्षी योजना की सराहना विश्व भर में की जा रही है । 2015 से अब तक इस गठबंधन के कई सम्मेलन आयोजित किये जा चुके हैं । नवम्बर 2021 में ग्लास्गो में हुये अंतर-राष्ट्रीय सूर्य गठबंधनके सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा – “सूर्य देवता गठबंधन में सबसे बड़े साथीहैं । वैदिक साहित्य में सूर्य की उपासना से सम्बंधित ऋचाओं की प्रचुरता देखी जा सकती है, सूर्य-ऊर्जा उसी का एक व्यावहारिक अनुप्रयोग है ।

सौर-ऊर्जा के बारे में दशकों से चर्चा होती रही है किंतु इसके निर्माण, समायोजन  और उपयोग में कई चुनौतियाँ भी हैं । सबसे बड़ी चुनौती है सौर-ऊर्जा का अस्थिर स्वरूप जिसके कारण इसे ग्रिड में समायोजित कर पाना एक बड़ी समस्या है । भारत ने इन समस्याओं को पहचाना और 2015 में इनके वैज्ञानिक समाधान के लिये पहल करने का निर्णय लिया । इतना ही नहीं, इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले देशों को प्रोत्साहित और सम्मानित करने के उद्द्श्य से विश्वेश्वसरैया पुरस्कार, कल्पना चावला पुरस्कार और दिवाकर पुरस्कार जैसे पुरस्कारों की घोषणा कर भारत के प्रधानमंत्री ने भारतीय मेधा और भारतीयता की विश्वस्तर पर एक पहचान बनाने का भी सराहनीय कार्य किया है ।

हर्ष की बात यह है कि भारत को सौर-ऊर्जा की अंतरिम वैश्विक राजधानी भी बनाया गया है जिसका अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय गुरुग्राम में है । इसके साथ ही विश्वबंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम के आदर्श को लेकर चलने वाले भारत ने एक और वैश्विक कीर्तिमान स्थापित कर लिया है ।

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

समावेशी शिक्षा का एक रूप यह भी

         दावा है कि तीन दिसम्बर 2021 को “कलांजलि आर्ट स्पेस” में होने वाले आठवें बैड एण्ड ब्यूटीफ़ुल वर्ल्ड फ़िल्म फ़ेस्टिवलमें जिन लघु चलचित्रों का प्रीमियर किया जाने वाला है उन्हें देखने के बाद पश्चिमी बंगाल के (डीविएटेड) युवा स्वयं को सशक्त अनुभव करने लगेंगे ।

कोलकाता के साल्ट लेक सिटी स्थित प्रयासम विज़ुअल बेसिक्सके युवा निर्देशकों और कलाकारों द्वारा “समावेशी शिक्षा” के अंतर्गत समलैंगिक सम्बंधों पर निर्मित 8 शॉर्ट मूवीज़ का पश्चिम बंगाल के विद्यालयों में प्रसारण किये जाने की योजना है । प्रयासम के निर्देशक प्रशांत रॉय के अनुसार कोरोना के कारण लम्बे समय से बंद विद्यालयों के दिसम्बर में खुलते ही विद्यार्थियों के समक्ष इन शॉर्ट मूवीज़ का प्रदर्शन किया जायेगा जिनमें समलैंगिक सम्बंधों से जुड़ी काल्पनिक कहानियों के अतिरिक्त भाईचारा, बच्चों के यौनशोषण के प्रति जागरूकता, स्वीकार्यता, पहचान का संकट और मानवीय संवेदनाओं के विभिन्न पक्षों को भी दिखाया जायेगा । समलैंगिक सम्बंधों से उपजी अ-सहज स्थितियों को दूर कर समलैंगिकों के प्रति सहज दृष्टिकोण निर्मित करने और समाज की मुख्य धारा में उनके समावेश के लिये यह एक नयी पहल है ।

प्रयासम के युवा निर्देशकों की चिंता LGBTQ युवाओं की उस समस्या को लेकर है जिसके कारण वे स्वयं को समाज से अलग या अवांछित अनुभव करने लगते हैं । प्रयासम का प्रयास है कि LGBTQ युवा स्वयं को समाज से अलग या अवांछित अनुभव न करें बल्कि मुख्य समाज का ही एक हिस्सा स्वीकार करें, और इसके लिये समलैंगिक विषयों पर बनी फ़िल्में समाज के हर वर्ग को दिखायी जानी चाहिये जिससे उनके प्रति उपेक्षा भाव को समाप्त किया जा सके ।

समाज का एक बड़ा वर्ग अब अ-प्राकृतिक यौन सम्बंधों को अ-प्राकृतिक या “परवर्टेड सेक्सुअल बिहैवियर” मानने के लिये तैयार नहीं है, वे ऐसे सम्बंधों को सहज और सामान्य सम्बंध मानते हैं और आग्रह करते हैं कि समाज उनके प्रति अपने दृष्टिकोण को बदल दे । यह एक विचित्र स्थिति है जिसमें सहज और अ-सहज के बीच के अंतर को समाप्त करने का हठ किया जा रहा है । इस तरह तो आने वाले समय में ड्रग एडिक्ट्स और सात्विक व्यक्ति की जीवनशैली और उनके चिंतन के बीच के अंतर को भी समाप्त करते हुये उनकी स्वीकार्यता की माँग की जाने लगेगी । ममता के राज में यह कैसा समावेश है? युवा फ़िल्म निर्देशक समलैंगिकों को सामान्य मानने का आग्रह कर रहे हैं किंतु क्या समाज वेश्याओं और सामान्य स्त्री के बीच की जीवनशैली के अंतर को समाप्त कर सका है?

23 वर्षीय युवा फ़िल्म निर्देशक सलीम शेख़ के अनुसार उनके कुछ मित्र मेल-एस्कॉर्ट्स (पुरुष यौनकर्मी) हैं जिनका कहना है आत्मसम्मान उन जैसे लोगों के लिये बहुत आवश्यक है । इसी से प्रेरित होकर सलीम शेख़ ने अपनी फ़िल्म “दक्खिना” में एक ऐसे पुरुष यौनकर्मी की कहानी का चित्रण किया है जिसे एक बुज़ुर्ग व्यक्ति शहर में घुमा रहा होता है । उनकी एक और लघु फ़िल्म “देखा” में एक पिता और उसके “गे” बेटे की कहानी है । वे इन फ़िल्मों के माध्यम से “पुरुष यौनकर्मियों” और “गे” की बातें व उनकी रुचियों को समाज के सामने इस आशा के साथ रखना चाहते हैं कि समाज उन्हें अपने जैसा ही सामान्य व्यक्ति मान ले ।

24 वर्षीय फ़िल्म निर्देशक सप्तर्षि रॉय ने बताया कि “दूरबीन” फ़िल्म की कहानी सुनते ही एक्टर्स भाग गये थे इसलिये ऐसी शॉर्ट मूवीज़ समाज को दिखाना बेहद आवश्यक है । यह फ़िल्म उस रहस्योद्घाटन के आसपास घूमती है जिसमें एक युवा पत्रकार अपनी लिव-इन-रिलेशन को यह बताता है कि कैसे उसके पिता के निधन के बाद उसे उनके “गे” होने की बारे में पता चला ।  

24 वर्षीय डायरेक्टर मनीष चौधरी ने अपनी पंद्रह मिनट की शॉर्ट मूवी देया नेयामें फ़ूड डिलीवरी ब्वाय और एक व्यक्ति के बीच विकसित होते समलैंगिक सम्बंधों के विभिन्न पक्षों को फ़िल्माया है जिसमें उन्होंने ऐसे अप्रचलित रिश्तों के साथ उनकी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को भी खँगालने का प्रयास किया है ।