रविवार, 6 मार्च 2022

कश्मीर फ़ाइल्स

            विरोध के लिये विरोध करना दुष्टों का स्वभाव है, इसका सामना किया जा सकता है किंतु सांस्कृतिक धरोहर एवं भारतीय सभ्यता को नष्ट करने के लिये विरोध करना भारतीय लोकतंत्र के लिये सर्वाधिक घातक प्रवृत्ति है । विरोध ही नहीं, हम तो सातवीं शताब्दी से सांस्कृतिक आक्रमण का असफल सामना करते हुये कुछ न कुछ खोते भी आ रहे हैं ।

कश्मीर से कश्मीरी पंडितों के क्रूर निष्कासन पर आधारित विवेक रंजन अग्निहोत्री की फ़िल्म “कश्मीर फ़ाइल्स” खुलने के पहले ही विवादों में आ गयी, एनडीटीवी इण्डिया ने नकारात्मक टिप्पणी प्रसारित की, और कुछ लोग उसके प्रदर्शन पर रोक लगाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँच गये । कश्मीर फ़ाइल्स, फ़िल्म नहीं, एक सच्चा इतिहास है जो उन लोगों को पसंद नहीं है जो झूठा इतिहास लिखते रहने के अभ्यस्त हैं ।

अब जब सर्वोच्च न्यायालय से हरी झण्डी मिलने के बाद यह फ़िल्म ग्यारह मार्च से सिनेमाघरों में प्रदर्शन के लिये तैयार है तो विवेक अग्निहोत्री को जान से मार डालने की धमकियाँ मिलनी शुरू हो गयी हैं । भारत की लोकतांत्रिक पद्धति में यह भी एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है जिसमें आपराधिक और निरंकुश गतिविधियों के लिये भी पर्याप्त स्थान सदा उपलब्ध रहता है । पहले हर सम्भव बाधा उत्पन्न करो, सफलता न मिले तो हत्या पर उतारू हो जाओ । मैंने इस अलोकतांत्रिक प्रक्रिया को लोकतांत्रिक इसलिये कहा क्योंकि इसमें बहुत से ऐसे राजनेता भी सम्मिलित रहते हैं जो राजनीति को जनसेवा का नहीं बल्कि अपने वैभव का माध्यम मानते हैं । यह सब होता है, और कोई कुछ कर भी नहीं पाता । कश्मीर घाटी में स्थानीय मुसलमानों द्वारा वर्षों तक कश्मीरी पंडितों को आतंकित किया जाता रहा, उनकी बहू-बेटियों के साथ यौनदुष्कर्म होते रहे, उनकी हत्यायें की जाती रहीं और अंततः 1991 में उन्हें घाटी से निष्कासित कर दिया गया । भारत के नेता मौन धारण किये रहे, लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की लेखनी को जंग लग गयी और हमेशा दोहरा चरित्र अपनाने वाले विघटनकारी वामपंथी आँखें बंद करके ख़ुश होते रहे । कश्मीर के मुस्लिम नेताओं की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था, वे आश्वस्त हुये कि मुसलमान गज़वा-ए-हिन्द की ओर बढ़ चुके हैं ।

कश्मीर की फ़ाइल खुल गयी है, वे तथ्य खुल गये हैं जिन्हें गड्ढों में गाड़ दिया गया था और जिन पर कई दशक तक पूरा भारत मौन बना रहा । प्रीमियर शो में दर्शकों के घाव हरे हो गये, वे सिनेमा हाल में ही बिलखने लगे । वह सत्य, जिसे कालकोठरी में बंद कर दिया गया था, प्रकट होकर भारतीय लोकतंत्र की दुर्बलता को उजागर करने लगा । मुसलमानों द्वारा कश्मीरी पंडितों के क्रूर शोषण की कहानी को अब पूरी दुनिया के लोग देख और समझ सकेंगे । भारत के प्रति विदेशियों के दृष्टिकोण में परिवर्तन का एक और कोण खुल जायेगा । यही सब पसंद नहीं है उन सबको जो गज़वा-ए-हिन्द को अपने जीवन का अंतिम उद्देश्य मानते हैं ।  

हिन्दुओं को अपने अस्तित्व की लड़ाई पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी लड़नी पड़ रही है और भारत में भी । मोहनदास करमचंद होते तो उनसे पूछता, क्या अब भी तुम मंदिर में कुरान की आयतें पढ़ने के हठ पर अड़े रहोगे और किसी मस्ज़िद में हनुमानचालीसा पढ़े जाने के प्रश्न को इस्लाम विरोधी मानते रहोगे?

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 9 मार्च 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
    !

    अथ स्वागतम् शुभ स्वागतम्

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  2. यही तो विडम्बना है कि धर्म के रास्ते ही अत्याचार होते हैं. मंदिर में कुरान पढ़ी जाए या मस्जिद में हनुमान-चालीसा, अगर कोई सच्चा धार्मिक हो तो उसे फ़र्क़ नहीं पढ़ना चाहिए। जिसे मन हो जहाँ जो करे बस हिंसा का त्याग करे। कश्मीर पूरी तरह भारत का है यह पूरी दुनिया जान ले और शान्ति स्थापित हो।

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    1. जी! बिल्कुल सही कहा दीदी ! सच्चे धार्मिक को तो न कुरान की आवश्यकता है और न हनुमान चालीसा की, आचरण ही सुधर जाय तो अपने आप धार्मिक हो जायेगा ।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.