शुक्रवार, 21 जून 2024

आधुनिक कविता का शिल्प और विषय

 

आधुनिक कविता की आधुनिकता

 

देश, काल और वातावरण वे भौतिक घटक हैं जिनसे साहित्य ही नहीं अपितु यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रभावित होता है। भारत की विभिन्न भाषाओं में लिखी जाती रही कविताओं के साहित्यिक इतिहास को व्यवस्थित करने के लिये इन्हें विभिन्न कालखण्डों में वर्गीकृत करने का प्रयास किया जाता रहा है। यूँ तो हर कविता अपने कालखण्ड की आधुनिक ही होती है पर आधुनिक कविता नित्य-आधुनिक है। उत्तरछायावाद से प्रारम्भ होकर राष्ट्रवाद, गांधीवाद, विप्लववाद, प्रगतिवाद, यथार्थवाद, प्रयोगवाद और नवगीतवाद से होते हुये वर्तमान तक आज हम आधुनिक कविता के वर्तमान स्वरूप को देखते हैं।

 

आधुनिक कविता का शिल्प

कोई भी साहित्य अपने परिवेश से ऊर्जा लेकर चित्रित होता है। साहित्यकार अपने परिवेश की प्रतिध्वनि को चिन्हित कर अपनी निजी प्रतिक्रिया को व्यक्त करता है। यह साहित्यकार पर निर्भर करता है कि वह अपने परिवेश की प्रतिध्वनि को कितना, किस रूप में और क्यों चिन्हित करता है। वास्तव में साहित्यकार अपने कालखण्ड का एक इतिहास लिख रहा होता है जो सही, अपूर्ण, मिथ्या या विकृत भी हो सकता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि साहित्यकार की सत्य और समाज के प्रति निष्ठा कितनी और कैसी है। देश-काल-वातावरण का तत्कालीन परिवेश उसकी साहित्यिक ऊर्जा है जिसे वह शब्दों के परिधान से सुसज्जित करता है। वर्तमान काल की आधुनिक कविता ने स्वयं को काव्य के साहित्यिक एवं शास्त्रोक्त बंधनों से प्रायः मुक्त रखा है, यहाँ तक कि कुछ रचनाकारों ने तो गद्यात्मक काव्य की भी रचना की है। छंदमुक्त, अतुकांत और सीधे-सीधे प्रहार करने वाली अंबर रंजना की पेटीकोट शैली की कवितायें भी रची गयीं। भाषा में प्राञ्जलता के स्थान पर बोलचाल की भाषा को अपनाया गया जिसमें फ़ारसी, अरबी और अंग्रेजी के शब्दों की भरमार हुआ करती है। भाषा का यह वह तरल प्रवाह है जो वर्जनापूर्ण मर्यादा को लाँघकर अपने मार्ग में आने वाले सब कुछको स्वीकार करता हुआ चलता है। यहाँ हम कविता के शास्त्रोक्त स्वरूप के स्थान पर अगढ़, निर्बंध और स्वच्छंद स्वरूप के दर्शन करते हैं। वर्तमान कालखण्ड की आधुनिक कविता के शिल्प में स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता का कोई बंधन दिखायी नहीं देता। यही कारण है कि पेटीकोट शैलीकी कविताओं के राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रशंसक और समर्थक मिलते हैं जो अश्लील और सनसनीखेज कविताओं की सामाजिक स्वीकार्यता का स्पष्ट प्रमाण है।

प्रकृति और विकृति किसी चित्रकार या रचनाकार की तूलिका या लेखनी के विषय हो सकते हैं। कोई रचनाकार अपने उद्देश्य को प्रकृति और विकृति की मर्यादाओं में रहते हुये या मर्यादाओं से परे जाकर सार्थक करने का प्रयास करता है।   

 

आधुनिक साहित्य की विशेषतायें

आधुनिकता, वैश्विकता और वैज्ञानिकता को साहित्यविशेषज्ञ आधुनिक साहित्य की विशेषतायें मानते हैं। इस विषय में मेरा मत किंचत् भिन्न है। मुझे लगता है कि हर कविता अपने कालखण्ड की आधुनिक कविता होती है, उसमें वैश्विकता का न्यूनाधिक समावेश हो सकता है किंतु वैज्ञानिकता का समावेश तो हर कालखण्ड में अपेक्षित रहा है। यह बात अलग है कि कोई रचनाकार अपने परिवेश की प्रतिध्वनि को कितने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनी कविताओं में अनूदित कर पाता है। भारत में साहित्य ही नहीं बल्कि गणित से लेकर दर्शन, रसायनशास्त्र, खगोलशास्त्र, ज्योतिष और चिकित्साशास्त्र जैसे सभी जटिल विषयों को पद्य में भी लिखे जाने की समृद्ध, अनूठी और अद्वितीय परम्परा रही है। स्वर और चित्र हर सभ्यता के प्रारम्भिक और अपरिहार्य घटक रहे हैं, कविता भले ही बाद में लिखी गयी हो परंतु गुनगुनाना तो आदिम मनुष्य का स्वभाव रहा है। आधुनिक कवितायें अतुकांत और गद्यात्मक हो सकती हैं किंतु उनमें भी लयबद्धता का होना ही उन्हें काव्य की श्रेणी में लाता है। नृत्य लास्य हो या तांडव, लयबद्धता तो उसमें होती ही है। मुझे तो आधुनिक कविता को स्वच्छंद कविता कहना कहीं अधिक उपयुक्त लगता है।      

 

कुछ और मिथक

कुछ साहित्यकार मानते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी में पश्चिमी देशों से भारत में आयी बयार के प्रभाव से भारत के लोगों ने जाना कि शिक्षा सबका अधिकार है। माना जाता है कि तत्कालीन समाज में आयी इस बयार ने आधुनिक कविता को भी प्रभावित किया जिसे बाद में प्रगतिशील प्रतिक्रिया के विभिन्न रूपों, यथा दलित कविता, नारी कविता आदि में देखा जाता रहा है। अर्थात् उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व भारत में शिक्षा को सबका अधिकार नहीं माना जाता था। इसे इस रूप में भी कहा गया कि भारतीय समाज में शिक्षा को केवल सवर्णों के अधिकार तक ही सीमित रखा गया, जिसके परिणामस्वरूप छुआछूत, शोषण और वर्गभेद आदि का जन्म हुआ जिसकी स्पष्ट प्रतिध्वनि प्रगतिशीलवादी आधुनिक कविताओं में सुनी जाती रही है। वास्तविकता यह है कि अठारहवीं शताब्दी के भारत में साक्षरता का मान शतप्रतिशत हुआ करता था। भारत में शिक्षा के अधिकार से स्त्रियों या सवर्णेतर लोगों को कभी वंचित नहीं रखा गया। इस तरह की जो भी वंचना दिखायी देती है वह विदेशी आक्रमणकारियों के भारत में शासनकाल के अनंतर होती रही है जिसके लिये भारत की जड़ों और प्राचीन परम्पराओं को दोषी नहीं माना जा सकता। प्रमाण के लिये सत्यान्वेषी जिज्ञासुओं को धर्मपाल रचित “The Beautiful Tree: Indigenous Indian Education in the Eighteenth Century” का अवलोकन करना चाहिये। तथापि यह सत्य है कि पराधीनता के तत्कालीन समाज में आयी विकृतियों ने कई कुरीतियों और शोषण को जन्म दिया किंतु यह भारत की सांस्कृतिक सभ्यता का कभी अंश नहीं रहा।     

दूसरा मिथक यह है कि छायावादी कवितायें तत्कालीन समाज के प्रभाव से अछूती रहीं जिसके प्रतिक्रियात्मक परिणामस्वरूप प्रगतिवाद का जन्म हुआ। साहित्य का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कोई भी कविता अपने परिवेश से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकती। रचना का यह परिवेश तत्कालीन राजसत्ता की शासनव्यवस्था, उस कालखण्ड की आवश्यकताओं, रचनाकार की अपनी व्यक्तिगत क्षमता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे कई घटकों के जटिल संयोजन से निर्मित होता है। यदि कोई परिवेश किसी कवि की रचनाधर्मिता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है तो उसकी कविताओं में सीधी प्रतिक्रिया के स्थान पर विचलन का होना स्वाभाविक है। यह विचलन, प्रभावित समाज को हताशा से बचाने का काम करता है। गोस्वामी तुलसीकृत रामचरितमानस, कवितावली और विनयपत्रिका इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं।  

 

आधुनिक कविता के विषय

जिस देश की शासनव्यवस्था में अभद्रता, असभ्यता, कुतर्क और हठ को सहिष्णुता मानकर स्वीकार कर लिया जाता है, पूर्वजों का अपमान किया जाता है और भारतीय महापुरुषों की अश्लीलतापूर्ण आलोचना करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानी जाती है, ऐसे परिवेश की प्रतिध्वनि भी तदनुरूप ही होगी। इसीलिये आधुनिक कविता अपने परिवेश के हर अच्छे-बुरे विषय को स्पर्श करती हुयी चलती है। इसमें आर्तनाद है, शोषण है, शोषण के विरुद्ध गालियाँ हैं, विद्रोह की अग्नि है, क्रांति का ज्वार है, कुंठा से उपजी भड़ास है, कुंठित मानस का दैहिक आकर्षण है, वंचना के विरुद्ध प्रतिक्रिया है। यहाँ विषयों का कोई बंधन नहीं, कोई एक लहर नहीं, हर तरह के विषयों पर रचनाकारों ने अपनी लेखनी चलायी है। यह बात अलग है कि इनमें से कौन से विषय कितने समय तक चल पाते हैं, कौन सी कविता कालजयी हो पाती है और कौन सी मूढ़गर्भ की तरह अकालमृत्यु को प्राप्त होती है। 

सोमवार, 17 जून 2024

विवाहविमुख होता भारतीय समाज

            दार्शनिकों की भाषा में सृष्टि की गति बुलबुले की तरह है। बुलबुले बनते हैं, फूटते हैं। यह ब्रह्माण्डीय संकुचन-विमोचनयुक्त स्पंदन है। सृष्टि की यही गति सर्वत्र दिखायी देती है, द्रव्य-गुण-कर्म तीनों में। इसीलिए जब विवाह विमुख होते भारतीय समाज की चर्चा होती है तो हम व्यवस्था के एक बुलबुले को फूटता हुआ देखते हैं।

आदिम समाज में विवाह नहीं होते थे, बुलबुले का द्रव्य बिखरा हुआ था। बिखराव समाप्त हुआ तो स्थायी सम्बंधों की एक व्यवस्थित स्थिति तक स्त्री-पुरुष सम्बंधों के बुलबुले विस्तारित हुये। भारतीय समाज में विवाह का बुलबुला अब फूट रहा है, पश्चिमी समाज में विवाह के बुलबुले बन रहे हैं। विभिन्न समाजों में संकुचन और विमोचन की किसी न किसी स्थिति में यह स्पंदन बना ही रहेगा।

बुलबुलों को उनकी हर स्थिति में स्वीकार करना ही होगा, चाहे वह निर्माण की स्थिति हो या फूटने की। भारतीय लड़के-लड़कियों में लिव-इन-रिलेशनशिप के प्रति बढ़ते आकर्षण ने बहुतों को चिंतित किया है। पश्चिमी जगत में विवाह के प्रति युवकों-युवतियों में बढ़ते आकर्षण ने सृष्टि की स्पंदनीय व्यवस्था के प्रति भारतीय दर्शन के दृष्टिकोण की विश्वसनीयता को बनाये रखा है।

शोपेन हॉर की विवाहमुक्त समाज व्यवस्था का मैं भी आलोचक रहा हूँ, आज भी हूँ, सदा रहूँगा। यह आलोचना ही वह पोटेंशियल शक्ति है जो फूट चुके बुलबुले के द्रव्य को एक बार फिर समेटकर नये बुलबुले की सृष्टि का मार्ग प्रशस्त करेगी।

पिछले दिनों एक ऐसा प्रकरण सामने आया जिसमें पति-पत्नी ने संतानोत्पादन को स्वतंत्र जीवनयापन में एक अनावश्यक बाधा के रूप में स्वीकार किया। उन्हें संतान नहीं चाहिये, कभी नहीं, वे वंशहीन होना चाहते हैं।

भारतीय समाज में वंशहीन होना किसी श्राप से कम नहीं माना जाता, आज लोग उसे स्वेच्छापूर्वक अपनाकर हर्षित हो रहे हैं। पाप-पुण्य की प्रासंगिकता अपने अर्थ और उद्देश्य का आदान-प्रदान कर रही है। हमारे लक्ष्य और मार्ग परिवर्तित हो रहे हैं। लड़कियों के कपड़े छोटे से छोटे होते जा रहे हैं, उन्मुक्तता और स्वेच्छाचारिता ने आदर्श जीवनशैली का स्थान ले लिया है। लड़कियाँ अपने माता-पिता के अनुशासन से मुक्त हैं, विवाहपूर्व यौनसम्बंध को अब अवांछनीय नहीं माना जाता। क्या हम एक बार पुनः आदिम जीवनशैली की ओर बढ़ चले हैं! विश्व में कई समाज ऐसे हैं जो आज भी आदिमशैली का ही जीवन जीने में विश्वास रखते हैं।    

भारतीय समाजव्यवस्था विश्व की सर्वश्रेष्ठ समाजव्यवस्थाओं में से एक रही है, जहाँ व्यष्टि से समष्टि तक के सभी विषयों पर गहन चिंतन के बाद उसे व्यवस्थित रूप दिया जाता रहा है। आज हम अपने बुलबुले को फूटता हुआ देख रहे हैं। यह दुःखद है, पर यही तो स्पंदन का एक छोर है, समय आने पर हम पुनः सुसभ्य और सुसंस्कृत होंगे, तब तक के लिए हमें बुलबुले के द्रव्य को बिखरते हुये देखना ही होगा।

शनिवार, 15 जून 2024

भारतीयता के प्रतीकों पर प्रहारों की स्वीकार्यता

           *अब और किसी मंदिर को बचाने के लिये उनकी कोई योजना नहीं है। वे औरंगजेब रोड का नाम बदलने के पक्ष में नहीं हैं। वे दासता के किसी भी प्रतीक को समाप्त करने के पक्ष में नहीं है। वे उन्हें भी साथ लेकर चलने के लिये तैयार हो चुके हैं जो हमारे अस्तित्व के लिये चुनौती बने रहे हैं, बने हुये हैं। वे खीर में लाल मिर्च को मिलते हुये देखने के लिये तैयार हैं।*

तब हिन्दुओं को ऐसे किसी स्वयंभू ठेकेदार की आवश्यकता ही क्या है, क्यों है?     

कट्टर साम्प्रदायिक लोग उस देश को इस्लामिक और ईसाई देश बनाना चाहते हैं जो मौलिक रूप से सनातनी देश रहा है, जो मतभिन्नता को भी सहिष्णुता के साथ स्वीकार करता रहा है, जो अपने विरोधियों का भी सम्मान करता रहा है, जिसने राज्य के विस्तार के लिए अपने किसी पड़ोसी देश पर कभी आक्रमण करने का विचार भी नहीं किया।

जब कोई सनातनी हिन्दू-देश की बात करता है तो सारे साम्प्रदायिक और हिन्दूद्वेषी अतिविद्वान उस पर टूट पड़ते हैं। पूरा विश्व साम्प्रदायिक कट्टरवाद का साक्षी होता रहा है। भारत को समाप्त करने के लिये सेक्युलरिज़्म, मिली-जुली संस्कृति, और आर्यन इन्वेज़न जैसे छद्म सिद्धांत गढ़ लिये गये हैं। कोई अतिविद्वान चिंतक यह नहीं कहता कि विश्व में कम से कम एक हिन्दू देश क्यों नहीं होना चाहिये, और क्यों भारत एक इस्लामिक देश होना चाहिये?

यह सही है कि सनातन परम्परा समावेशी और सहिष्णु रही है पर प्रतिरोध की भी समावेशिता! विनाशकारी आक्रमण के प्रति भी सहिष्णुता! यह तो सिद्धांतों के अतिवाद और उनके दुरुपयोग का हठ है। 

भारतीयता, सनातन और हिन्दुत्व की चर्चा तो बहुत से लोग करते हैं पर इस तरह के किसी निष्ठावान संगठन का अभाव दिखाई दे रहा है। वे हिन्दुत्व की बात करते हैं पर समय-समय पर सनातनी प्रतीकों को भुला देने और इस्लामिक प्रतीकों को साथ लेकर चलने के पक्ष में खड़े दिखायी देते हैं। वे भारतीय मूल्यों और गौरव की बात करते हैं पर इस्लामिक मूल्यों और दासता के प्रतीकों को जीवित बनाये रखने की हीनबोधता को बनाये रखना चाहते हैं। यही सब तो गजवा-ए-हिन्द वाले भी चाहते हैं। फिर भारत को ऐसे किसी भी छद्म ठेकेदार की क्या आवश्यकता?

भारत का सामान्य सनातनी इस तरह की किसी व्यवस्था को कभी स्वीकार नहीं करेगा जो कालांतर में सनातनी संस्कृति को ही समाप्त कर देने का कारण बन जाय।     

अलोकतांत्रिक होता लोकतंत्र

-फ़र्जी वोट डालने गयी महिलाओं को पुलिस पकड़ कर ले गयी, रात को भीड़ ने पुलिस स्टेशन पर आक्रमण किया और महिलाओं को मुक्त कराकर ले गयी। पुलिस कुछ भी नहीं कर सकी। पुलिस-प्रशासन के औचित्य पर पुनः चिंतन किया जाना चाहिये। क्यों न इसी भीड़ को समाज की अंतरव्यवस्था का अधिकार दे दिया जाय!

-यौन-उत्पीड़न की पीड़िता जब अपने जैसी ही अन्य यौन-उत्पीड़िताओं को न्याय दिलाने के लिए चुनाव लडती है तो मतदाता उसे पराजय का दंड देते हैं। ऐसे समाज में किसी भी व्यवस्था के औचित्य पर पुनः चिंतन किया जाना चाहिये। क्यों न यौनौत्पीड़क पुरुषों को ही समाज और सत्ता के सारे अधिकार अर्पित कर दिये जायँ!

-कोलकाता हाईकोर्ट से कोई निर्णय होता है, राज्य की महिला मुख्यमंत्री उस निर्णय को स्वीकार करने से मना कर देती है। उच्च-न्यायालय के औचित्य पर पुनः चिंतन किया जाना चाहिये। क्यों न सर्वशक्तिमान महिला मुख्यमंत्री को ही हर तरह के निर्णय का अधिकार दे दिया जाय!

-पूजा, शोभायात्रा और धार्मिक पर्वों पर आपत्ति करते हुये हिंसक आक्रमण करने की घटनाओं की निरंतरता, अपने ही देश में सनातनियों के धार्मिक अनुष्ठानों पर सत्ता के प्रतिबंध और हिंदुत्व को उखाड़ फेकने के आह्वान को देखते हुये भारत में सनातन संस्कृति और सभ्यता के औचित्य पर पुनः चिंतन किया जाना चाहिये। क्यों न आक्रमणकारी अपसंस्कृति और असभ्यता को भारत की राष्ट्रीय संस्कृति और सभ्यता घोषित कर दिया जाय!   

-भारत का विभाजन कर पृथक खालिस्तान देश बनाने की दिशा में आगे बढ़ते एक व्यक्ति को जेल से चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाती है और वह भारी मतों से चुनाव जीत जाता है। अब वह संसद में बैठकर खालिस्तान बनाने की नींव निर्मित करने के लिये अधिकृत है। यदि भारत के संविधान में इस तरह की अराजक गतिविधियों को रोकने के लिये कोई प्रावधान नहीं है तो संविधान के औचित्य पर पुनः चिंतन होना चाहिये। क्यों न अराजकता को ही भारत का अलिखित संविधान स्वीकार कर लिया जाय!

-जो लोग बारम्बार संविधान बदलते रहे हैं वे दूसरों पर संविधान समाप्त कर देने का आरोप लगाते रहे हैं जिसे बहुत से मतदाता यथावत् स्वीकार भी करते रहे हैं। राजनीति में नैतिक मूल्यों के औचित्य पर पुनः चिंतन किया जाना चहिये। क्यों न झूठे दुश्प्रचार और संविधान बदलने वालों के ही हाथों में संविधान अर्पित कर दिया जाय!

-जातिप्रथा को विभाजनकारी और घृणामूलक मानने वाले *ब्राह्मणेतर राजनेता* एवं चिंतक जातीय-जनगणना करके जातिप्रथा को और भी सुदृढ़ करने की दिशा में कटिबद्ध हो चुके हैं ...इस घोषणा के साथ कि जातियाँ बनाने के लिये उत्तरदायी ब्राह्मणों को मारकर भारत से भगा देना चाहिये। इस देश में ब्राह्मणों के रहने के औचित्य पर पुनः चिंतन किया जाना चाहिये। क्यों न ब्राह्मणों को मारने और उन्हें भगा देने के लिये ऐसे राजनेताओं को स्वतंत्र कर दिया जाय!

चुनावी रणनीति और राष्ट्रधर्म

            विपक्षी दलों की नैतिक-राजनैतिक निर्बलता और सिद्धांतहीनता के कारण वर्ष २०२४ के लोकसभा चुनाव में भाजपा बहुमत से दूर रहकर भी गठबंधन-सरकार बना सकने में सफल रही। यह सभी पक्षों के लिये निष्ठापूर्वक और तटस्थभाव से आत्मनिरीक्षण का समय है। इस चुनाव ने स्पष्ट कर दिया है कि कोई भी राजनैतिक दल सनातनी मूल्यों और सांस्कृतिक समाज के प्रति लेश भी गंभीर नहीं है।

सत्तापक्ष सहित सभी राजनैतिक दल भारत के सनातनियों की उपेक्षा करते हये केवल मुस्लिमों को रिझाने में लगे रहने की परम्परा को और भी सुदृढ़ करने में अभी भी लगे हुये हैं। भाजपानीत शासन में भी सर्वहितकारी राष्ट्रधर्म की उपेक्षा की जाती रही और देश में अराजक शक्तियाँ और भी शक्तिशाली होती रहीं। पिछली बार की तरह इस बार भी अराजकता और हिंसा के गढ़ बन चुके पश्चिम बंगाल के लोगों को केंद्र सरकार द्वारा उसके अपने हाल पर छोड़ दिया गया।

नरेंद्र मोदी ने मुसलमानों को देश की मुख्यधारा में लाने के लिये उन्हें हर सम्भव लाभ पहुँचाने का प्रयास किया पर इस्लामिक कट्टरवाद के सामने वे उनका वोट नहीं ले सके, योगी जी भी नहीं ले सके। भारत के बहुत कम मुसलमान सनातनी और राष्ट्रवादी हैं, उन्हें छोड़कर अधिकांश मुसलमान भारत को इस्लामिक देश बनाने पर तुले हुये हैं। जो भी राजनीतिक या सामाजिक दल इस सत्य की उपेक्षा करेगा वह भारत के हिन्दुओं का ही नहीं अन्य साम्प्रदायिक समाजों का भी अहित ही करेगा।

राष्ट्रहित को सम्प्रदाय-हित की सभी सीमाओं से मुक्त और ऊपर रखने और एक रचनात्मक वातावरण बनाने के लिए विभिन्न समुदायों को आगे आना ही होगा अन्यथा अंतरकलहों और युद्ध से बचना सम्भव नहीं होगा। पिछले त्तीन दशकों से विभिन्न देशों के गृहयुद्धों का इतिहास हम सबके सामने है।     

जो लोग इतिहास को भूलकर आगे बढ़ने की बात करते हैं उन्हें राष्ट्रवादी और सनातनी नहीं माना जा सकता। जो लोग प्राचीन गौरव, भवन-स्थापना, महत्वपूर्ण मंदिरों और भारतीय मूल्यों के प्रतीकों को भूल जाने की बात करते हैं उन्हें राष्ट्रवादी और सनातनी नहीं माना जा सकता। जो लोग बाबर और बख़्तियार ख़िलजी जैसे अत्याचारियों के प्रतीकों को समाप्त न करने के पक्ष में खड़े दिखायी देते हैं उन्हें भारतीय महापुरुषॉं का अनुसरणकर्ता नहीं माना जा सकता।  

सनातनी संगठनों को इस तरह के आत्मघाती चिंतन को छोड़ना होगा अन्यथा भारत को अफगानिस्तान और पाकिस्तान बनने से कोई शक्ति रोक नहीं सकेगी। निस्संदेह, इंडिया को भारत बनाने के मार्ग में आने वाली हर बाधा को समाप्त करके ही हिन्दुओं का अस्तित्व बच सकेगा, किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि अ-सनातनियों के लिये भारत में कोई स्थान नहीं होगा, वे भी रहेंगे, किंतु उन्हें भी पारसियों की तरह देश की रचनात्मक मुख्यधारा में सम्मिलित होना होगा। सनातनी भारत में ऐसी कोई भी गतिविधि अस्वीकार्य होगी जो सनातनियों की जीवनपद्धति, उनके मूल्यों और उनके विकास में बाधा उत्पन्न करेगी या उन्हें समाप्त करने के हिंसक प्रयास करेगी।        

भाजपा के शासनकाल में देश का तकनीकी और आर्थिक दृष्टि से तो उल्लेखनीय विकास हुआ पर सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अपेक्षित सुधार नहीं हो सका। भेदभाव और सामाजिक अन्याय में भी कमी नहीं हो सकी। यह सामाजिक विघटन की निरंतरता है जिसे रोकने के लिये हर व्यक्ति को सामने आना चाहिये। सच्चा राष्ट्रधर्म तो यह है कि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक जैसे शब्द ही सामाजिक-राजनैतिक भेदभावमूलक होने के कारण त्याज्य कर दिये जायँ। भाजपा जैसे राजनीतिक दल भी जब ऐसे मकड़जाल में फँसे दिखायी देते हैं तो भारत के भविष्य को लेकर निराशा होती है। सन् १९४७ से लेकर अब तक सामाजिक समानता निर्मित करने के स्थान पर हमारी व्यवस्थाओं ने उसे और भी बढ़ाया ही है। जाति व्यवस्था को अभिषाप मानने वाले राजनीतिक दल भी न केवल जातीय आधार पर प्रत्याशियों का चयन करते हैं, प्रत्युत जातीय जनगणना के पक्ष में भी खड़े दिखायी देने लगे हैं, यह देश का विकास नहीं ह्रास है। राजनीतिक दल और चिंतक साम्प्रदायिक और जातीय भँवरजालों का विरोध और समर्थन दोनों ही करते हैं, यह कैसी राजनीति है! ये लोग समाज को समाज के रूप में कब देख सकेंगे?

मंगलवार, 11 जून 2024

वेदों के रचयिता या दृष्टा

यह आधुनिक सभ्यता की स्वाभाविक जिज्ञासा है कि वेदों के रचनाकार कौन हैं!

यह वह युग है जहाँ किसी साहित्यिक कृति के लेखक या रचनाकार होते हैं, आई.एस.बी.एन. संख्या के साथ कॉपीराइट होता है, साहित्यिक चोरियाँ होती हैं और अपने नाम के लिए लोग लालायित रहते हैं। वैदिक युग में ऐसा नहीं था; साहित्यकार, शोधकर्ता, आविष्कारक और वैज्ञानिक, सभी लोग उन्हें प्राप्त उपलब्धियों को ईश्वर का आशीर्वाद मानते थे। इसलिये किसी भी प्रणेता ने किसी कृति के साथ अपने नाम का उल्लेख नहीं किया। कृति पर नाम का प्रकाशन व्यक्तिगत अधिकार और अहंकार का द्योतक है। प्राचीन भारतीय मानते थे कि ज्ञान ईश्वर का ही एक रूप है, वह सार्वकालिक है, उस पर किसी व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं होता। व्यक्ति तो अपने तप से उसका दृष्टा मात्र होता है। यही भारतीय परम्परा थी।

वेदों को अपौरुषेय (किसी व्यक्ति द्वारा रचित नहीं) माना जाता है, उनका कोई रचयिता नहीं है, महर्षि वेद-व्यास वैदिक ऋचाओं के संकलनकर्त्ता हैं, उन्हें ही वेदों के लेखक कह सकते हैं, ठीक किसी इतिहास लेखक की तरह। ज्ञानदृष्टा महर्षियों ने ईश्वरप्रदत्त ज्ञान को मंत्रबद्ध किया और गुरु-शिष्य परम्परा से उनका संवहन किया। ज्ञान संवहन और संरक्षण की इस विधि को “श्रुत” कहा जाता है। द्वापर युग में जब ज्ञान का क्षरण होने लगा तो महर्षि वेद-व्यास ने अज्ञातकाल से चले आ रहे इस ज्ञान को संकलित कर लिपिबद्ध किया। इसका अर्थ यह हुआ कि वैदिक ज्ञान तो अज्ञातकाल से चला आ रहा है, द्वापर युग में केवल उसे लिपिबद्ध किया गया। यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि ज्ञानदृष्टा ऋषियों में केवल ब्राह्मण ही नहीं थे बल्कि चारो वर्णों के लोग थे और स्त्रियाँ भी थीं जिन्होंने समय-समय पर अपने तप और ईश्वर के आशीर्वाद से ज्ञान प्राप्त किया।

ज्ञान तब भी था जब हम नहीं थे, ज्ञान तब भी रहेगा जब हम नहीं रहेंगे। सत्य को किसी साक्षी की आवश्यकता नहीं होती। वह सार्वकालिक और सार्वदेशज है। व्यक्ति तो केवल ज्ञान का प्रस्तोता भर होता है।

वैदिक ज्ञान :- सार्वकालिक ज्ञान ही वैदिक ज्ञान है। मनुष्य की अनुपस्थिति के समय का ज्ञान ही शुद्ध ज्ञान है, ..सूर्य प्रकाश की तरह। मनुष्य की भीड़ तो ज्ञान को विकृत करने का ही काम अधिक करती है। कोरोना चीन से आया, कोरोना अमेरिका से आया, अमेरिका के सहयोग से चीन में कोरोना वायरस तैयार किया गया, कोरोना चमगादड़ से आया...  कोरोना के सम्बंध में न जाने कितनी बातें कही जाती रहीं, संक्रमित रोगियों पर न जाने कितने प्रकार की औषधियों का प्रयोग किया जाता रहा, न जाने कितनी बार कोरोना संक्रमण के सिद्धांत परिवर्तित किये जाते रहे। कोरोना आज भी रहस्य ही है।  

जब नैतिक विघटन होता है तब ज्ञान और उसका उपयोग विकृत हो जाया करता है। भारतीय गुरुकुल परम्परा में उत्तीर्ण विद्यार्थी को आज की तरह कागज पर लिखे किसी उपाधिपत्र की आवश्यकता नहीं हुआ करती थी। गुरुकुल और आचार्य का नाम बता देना ही पर्याप्त हुआ करता था। आज सब कुछ कागज पर लिखा जाता है, सारे साक्ष्य लिखित होते हैं, कूटरचित उपाधि पत्र भी बना लिये जाते हैं। ज्ञान और ज्ञानार्थी के साथ इस तरह का परिहास कलियुग में ही सम्भव है। 

रविवार, 9 जून 2024

हवा में घुली घृणा और हिंसा

 *हिन्दू-मुसलमान-१*

“दहशत फैलाता है भाजपा वाला लोग, हिन्दू-मुसलमान करके नफ़रत का रजनीती करता है। हम सबको नोकरी देने का बात करता है, महँगाई कम करने का बात करता है, ऊ लोग केवल दंगा करने का बात करता है।” –राजद, सपा, आप तृणमूलकांग्रेस, उद्धव शिवसेना और कांग्रेस आदि।

इस बार के लोकसभा चुनाव में कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं ने हर बार की तरह भाजपा के विरुद्ध अन्य दलों को वोट देने का मुसलमानों से अनुरोध किया, एक महिला ने तो “वोट-जिहाद” का नया नारा देते हुये मुसलमानों को उत्साहित किया। यह कौन है जो “हिन्दू-मुसलमान” कर रहा है? 

सनातनी विष्णु शंकर जैन को मुस्लिम संगठनों की ओर से एक बार फिर हत्या कर दिये जाने की धमकियाँ मिलनी प्रारम्भ हो गयी हैं। यह कौन है जो हिन्दू-मुसलमानकर रहा है?

परमहंस की स्थिति को प्राप्त हो चुका हिन्दू सदा की तरह निर्विकार, प्रतिक्रियाशून्य और मौन है। पहले भी नूपुर शर्मा और नवनीत राणा सहित कई हिन्दुओं को जान से मार डालने या सामूहिक यौनौत्पीड़न कर हत्या कर देने की धमकियाँ दी जाती रही हैं, कई हिन्दुओं के “सर तन से जुदा” कर भी दिये गये, फिर भी हिन्दुओं पर “हिन्दू-मुस्लिम” करने और “नफ़रत फैलाने” का आरोप लगाया जाना उस वैश्विक षड्यंत्र का एक हिस्सा है जिसका उद्देश्य विश्व की सभी संस्कृतियों को समाप्त कर केवल इस्लामिक दुनिया की स्थापना करना है। दुर्भाग्य से इस षड्यंत्र में हिन्दू-विद्वेषी कई राजनीतिक दल भी सम्मिलित हैं। हिन्दूवादी संगठनों पर इस तरह के निराधार आरोप नये नहीं हैं। काश! भाजपा शत्रु और मित्र का भेद स्पष्ट कर पाती, उस विषैली हवा को समाप्त कर पाती जिस पर सवार विस्तारवादी झूठ देश-विदेश में जहाँ-तहाँ विचरण करता फिरता है।

हिन्दू मंदिरों पर इस्लामिक प्रतीकों के विरुद्ध न्यायालयों में तार्किक और प्रामाणिक-वैधानिक पक्ष रखने वाले हरिशंकर जैन और उनके पुत्र विष्णु शंकर जैन ने लगभग एक सौ दो प्रकरणों में सत्य का पक्ष रखा है, यही कारण है कि कट्टर मुसलमान उनकी हत्या कर देने पर उतारू हो गये हैं। हिन्दुओं को यह बात समझनी होगी कि कट्टर मुसलमान दुनिया के किसी न्यायालय को नहीं, केवल शरीया को मानता है।

अयोध्या का रामलला मंदिर तोड़कर बाबरी मस्ज़िद, वाराणसी के ज्ञानवापी मंदिर को तोड़कर ज्ञानवापी मस्ज़िद, आगरा के तेजोमहालय को तोड़कर ताजमहल, और नई दिल्ली में सम्राट समुद्र गुप्त निर्मित विष्णुध्वज का नामांतरण कुतुब मीनार के रूप में कर दिया गया। इन अतिक्रमणों से वामपंथी हिन्दुओं को कोई पीड़ा नहीं होती, जबकि नाजिया इलाही, अम्बर जैदी, सुबुही खान और ऐसे ही कई निष्ठावादी मुसलमान हिन्दू प्रतीकों के समर्थन में खुलकर सामने आते रहते हैं। भाजपाविरोधी और हिन्दूद्वेषी राजनीतिक दल तो इन प्रतीकों के विवादास्पद रूप में ही बनाये रखने के लिए सदा कटिबद्ध रहते हैं।

हमारे सामने इस्तंबूल की हागिया सोफ़िया का उदाहरण भी है जिसे सन् १४५३ में चर्च से मस्ज़िद में बदल दिया गया। भारत ही नहीं, मध्य एशिया और अब तो अमेरिका और योरोप में भी आराधना स्थलों के इस्लामिक अतिक्रमणों और इस्लामिकेतर धार्मिक प्रतीकों को नष्ट करने के विवाद खुलकर होने लगे हैं। हागिया सोफ़िया तुर्की का एक ऐसा धार्मिक विवाद है जहाँ हिन्दू नहीं है फिर भी आराधनास्थल पर इस्लामिक अतिक्रमण का विवाद पिछले सैकड़ों सालों से चला आ रहा है। सत्य को समझने के लिए इस तथाकथित “हिन्दू-मुस्लिम” हवा और इस्लामिक विस्तार को एक साथ रखकर देखना होगा।

*हिन्दू-मुसलमान-२*

        पिछले दिनों “द मनमौजी” एवं “द राजधर्म” की डिजिटल मीडिया न्यूज़ एडिटर एवं कंटेंट क्रिएटर अर्चना तिवारी का एक वीडियो देखा जिसमें वे अयोध्या के दो छोटे-छोटे मुसलमान बच्चों से बात करती दिखायी देती हैं जो शिक्षा के लिये मदरसा और विद्यालय दोनों जगह जाते हैं। बातचीत का सारांश यह है कि “...मदरसे में कोई पढ़ायी नहीं होती, हमें स्कूल जाना अच्छा लगता है, हमें योगी का बुलडोज़र पसंद है, वे गलत का विरोध और सत्य की बात करते हैं, हमें योगी जी बहुत पसंद हैं, हिन्दू-मुसलमान कुछ नहीं होता, जो गलत है उसका विरोध होना चाहिये चाहे वह कोई भी हो, हम बड़े होकर भी ऐसे ही रहेंगे चाहे कोई हमें कुछ भी समझाये, हमारे घर वाले भी हमें ऐसा ही बताते हैं, अगर उन्होंने कभी हमें भड़काने की कोशिश की भी तो हम कभी नहीं मानेंगे, ऐसे ही रहेंगे और जो हमारी बुद्धि कहेगी वैसा ही करेंगे।“

        वीडियो देखकर दर्शकों ने दोनों अंसारी बच्चों को भर-भर कर आशीर्वाद दिया, उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना की और उनके माता-पिता की प्रशंसा की। टिप्पणी करने वाले सभी लोग हिन्दू थे, जिनके मनोभाव सनातन की सहज समावेशिता और स्वीकार्यता की वह प्रतिध्वनि है जो हिन्दू को कभी समाप्त नहीं होने देती। यही कारण है कि हिन्दूविश्वासघातों के बाद भी हिन्दुओं का समूल उच्छेदन कभी नहीं हो सकेगा। 

शनिवार, 8 जून 2024

प्रतिक्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया

            अयोध्या के चुनाव परिणामों ने पूरे देश की जनता को व्यथित किया है, इसलिये इस पर लीपापोती की आवश्यकता नहीं है। यह भाजपा की पराजय या सपा के प्रत्याशी की विजय नहीं बल्कि सिद्धांतों की पराजय है जबकि कुछ लोग इस मैटर को डायल्यूट कर रहे हैं –

1-    अयोध्या से भाजपा की पराजय नहीं हुयी, फ़ैज़ाबाद लोकसभा क्षेत्र से हुयी है।

2-    भितरघात के लिए अयोध्यावासियों का बहिष्कार और उन्हें अपशब्द कहना दुर्भावनापूर्ण है।

3-    अयोध्या प्रकरण को उछालने वाले वामपंथी हैं।

4-    लल्लू सिंह एक अयोग्य प्रत्याशी थे जिसके कारण उनका हारना आवश्यक था।     

                अब इन चारो डायल्यूशन्स का बिंदुवार उत्तर भी समझ लीजिये –

1-    भारतीय जनमानस की दृष्टि में अयोध्या के आसपास चौरासी कोस तक का क्षेत्र अयोध्या ही है। आज जिसे आप फ़ैज़ाबाद कह रहे हैं कल उसका नाम अयोध्या लोकसभा क्षेत्र भी हो सकता है। ठीक है, अयोध्या उसका एक भाग है, किंतु यह निर्धारण किसने किया? हम अपनी प्राचीनता की ओर लौटने का प्रयास कर रहे हैं और आप अभी तक फ़ैज़ाबाद से ही चिपके हुये हैं। जब चारो ओर अयोध्या की बात हो रही है तो बीच में फ़ैज़ाबाद को लाना उस मानसिकता का प्रतीक है जो हर स्थिति में इस्लामिक प्रतीकों को जीवित बनाये रखना चाहती है।

2-    आप मानते हैं कि चुनाव में भितरघात हुआ है पर अयोध्यावासी निर्दोष हैं। यह उतना ही सत्य है जितना यह कि सुरक्षाबलों की मुठभेड़ में मारे जाने वाले लोग आतंकवादी या माओवादी नहीं बल्कि निर्दोष सामान्य नागरिक होते हैं। हम मानते हैं कि अयोध्या नगर के कयी लोगों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया होगा तो कयी लोगों ने विपक्ष में भी किया होगा। बात यह है ही नहीं, बात तो उन प्रतीकों की थी जिन्हें पुनर्स्थापित करने के लिए शताब्दियों तक संघर्ष किया गया। अयोध्या, वाराणसी और मथुरा के चुनाव भारतीय आदर्शों, मूल्यों और सनातन परम्परा के चुनाव हुआ करते हैं, इन्हें अन्य चुनावी क्षेत्रों की तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। वामपंथी अतिविद्वानों के अनुसार यह एक “ख़तरनाक हिन्दुत्ववादी सोच और धर्मनिरपेक्षता का हिन्दूवादी घातक स्वरूप” हो सकता है। वे कुछ भी आरोप लगाते रहें, किंतु मैं व्यक्तिगत रूप से अयोध्या, काशी, मथुरा और सोमनाथ को सनातनी सहिष्णुता और सर्वस्वीकार्यता के मूल्यों के प्रतीक मानता रहा हूँ, मानता रहूँगा। जहाँ तक लांछना की बात है तो प्रेम जितना गहरा होगा, अपेक्षायें जितनी स्पष्ट होंगी, विश्वासघात होने पर प्रतिक्रिया भी उतनी ही तीक्ष्ण होगी। यह स्वाभाविक है, होना भी चाहिए। प्रतिक्रिया का न होना, क्रिया की स्वीकार्यता का द्योतक है।

3-    वास्तव में, अयोध्या प्रकरण पर आई प्रतिक्रियाओं को वामपंथी कहने वाले प्रतिक्रियावादी स्वयं ही वामपंथी हैं जो अवांछित कृत्यों को भी वांछनीय सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। भारतीय परम्परा तो आलोचना, समालोचना, विमर्श, संभाषा और परिमार्जन की रही है। हम वैदिक साहित्य पर भी विमर्श और संभाषा करते हैं, अपने धर्म पर भी, और अपनी परम्पराओं पर भी, यही कारण है कि हम अभी तक जीवित हैं और समाज में कालक्रम से आने वाली विकृतियों का परिहार करने में सक्षम हो पाते हैं। अयोध्यावासी मज़हबी नबी नहीं हैं जिनकी आलोचना नहीं की जा सकती। आलोचना और प्रशंसा तो श्रीराम की भी हुयी और रावण की भी। यह आवश्यक है, भारत के लिये, आर्यावर्त के लिए, भारतीय मूल्यों की रक्षा के लिये और अवांछनीय पुनरावृत्तियों को रोकने के लिये।

4-    हम भाजपा प्रत्याशी को नहीं जानते, हो सकता है कि वे अयोग्य प्रत्याशी रहे हों किंतु क्या सपा का प्रत्याशी ही उसका उचित विकल्प था? क्या नोटा पर बटन नहीं दबाया जा सकता था? मतदान से पहले आपने आपस में चर्चा तो की होगी कि वोट किसे और क्यों दिया जाय, तब यह क्यों नहीं सोचा कि नोटा भी एक विकल्प हो सकता है? आपने उन अवमूल्यों को अपना मत देना उचित समझा जो सनातन मूल्यों के विरुद्ध सदा खड़े रहे, जो भारत की प्राचीन पहचान पर इस्लामिक पहचान को आरोपित करने के पक्ष में सदा खड़े रहे, जो हिन्दुत्व को समाप्त कर इस्लामिक सभ्यता को भारत में फलता-फूलता देखना चाहते हैं, जो भारत को भारत नहीं बल्कि पाकिस्तान बना देने का स्वप्न देखते हैं।

काश! भारत के लोग योग्य-अयोग्य प्रत्याशी की पहचान कर पाते तो अमृतपाल सिंह और अब्दुल राशिद जैसे विभाजनकारी लोग सांसद नहीं बन पाते!