मंगलवार, 11 जून 2024

वेदों के रचयिता या दृष्टा

यह आधुनिक सभ्यता की स्वाभाविक जिज्ञासा है कि वेदों के रचनाकार कौन हैं!

यह वह युग है जहाँ किसी साहित्यिक कृति के लेखक या रचनाकार होते हैं, आई.एस.बी.एन. संख्या के साथ कॉपीराइट होता है, साहित्यिक चोरियाँ होती हैं और अपने नाम के लिए लोग लालायित रहते हैं। वैदिक युग में ऐसा नहीं था; साहित्यकार, शोधकर्ता, आविष्कारक और वैज्ञानिक, सभी लोग उन्हें प्राप्त उपलब्धियों को ईश्वर का आशीर्वाद मानते थे। इसलिये किसी भी प्रणेता ने किसी कृति के साथ अपने नाम का उल्लेख नहीं किया। कृति पर नाम का प्रकाशन व्यक्तिगत अधिकार और अहंकार का द्योतक है। प्राचीन भारतीय मानते थे कि ज्ञान ईश्वर का ही एक रूप है, वह सार्वकालिक है, उस पर किसी व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं होता। व्यक्ति तो अपने तप से उसका दृष्टा मात्र होता है। यही भारतीय परम्परा थी।

वेदों को अपौरुषेय (किसी व्यक्ति द्वारा रचित नहीं) माना जाता है, उनका कोई रचयिता नहीं है, महर्षि वेद-व्यास वैदिक ऋचाओं के संकलनकर्त्ता हैं, उन्हें ही वेदों के लेखक कह सकते हैं, ठीक किसी इतिहास लेखक की तरह। ज्ञानदृष्टा महर्षियों ने ईश्वरप्रदत्त ज्ञान को मंत्रबद्ध किया और गुरु-शिष्य परम्परा से उनका संवहन किया। ज्ञान संवहन और संरक्षण की इस विधि को “श्रुत” कहा जाता है। द्वापर युग में जब ज्ञान का क्षरण होने लगा तो महर्षि वेद-व्यास ने अज्ञातकाल से चले आ रहे इस ज्ञान को संकलित कर लिपिबद्ध किया। इसका अर्थ यह हुआ कि वैदिक ज्ञान तो अज्ञातकाल से चला आ रहा है, द्वापर युग में केवल उसे लिपिबद्ध किया गया। यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि ज्ञानदृष्टा ऋषियों में केवल ब्राह्मण ही नहीं थे बल्कि चारो वर्णों के लोग थे और स्त्रियाँ भी थीं जिन्होंने समय-समय पर अपने तप और ईश्वर के आशीर्वाद से ज्ञान प्राप्त किया।

ज्ञान तब भी था जब हम नहीं थे, ज्ञान तब भी रहेगा जब हम नहीं रहेंगे। सत्य को किसी साक्षी की आवश्यकता नहीं होती। वह सार्वकालिक और सार्वदेशज है। व्यक्ति तो केवल ज्ञान का प्रस्तोता भर होता है।

वैदिक ज्ञान :- सार्वकालिक ज्ञान ही वैदिक ज्ञान है। मनुष्य की अनुपस्थिति के समय का ज्ञान ही शुद्ध ज्ञान है, ..सूर्य प्रकाश की तरह। मनुष्य की भीड़ तो ज्ञान को विकृत करने का ही काम अधिक करती है। कोरोना चीन से आया, कोरोना अमेरिका से आया, अमेरिका के सहयोग से चीन में कोरोना वायरस तैयार किया गया, कोरोना चमगादड़ से आया...  कोरोना के सम्बंध में न जाने कितनी बातें कही जाती रहीं, संक्रमित रोगियों पर न जाने कितने प्रकार की औषधियों का प्रयोग किया जाता रहा, न जाने कितनी बार कोरोना संक्रमण के सिद्धांत परिवर्तित किये जाते रहे। कोरोना आज भी रहस्य ही है।  

जब नैतिक विघटन होता है तब ज्ञान और उसका उपयोग विकृत हो जाया करता है। भारतीय गुरुकुल परम्परा में उत्तीर्ण विद्यार्थी को आज की तरह कागज पर लिखे किसी उपाधिपत्र की आवश्यकता नहीं हुआ करती थी। गुरुकुल और आचार्य का नाम बता देना ही पर्याप्त हुआ करता था। आज सब कुछ कागज पर लिखा जाता है, सारे साक्ष्य लिखित होते हैं, कूटरचित उपाधि पत्र भी बना लिये जाते हैं। ज्ञान और ज्ञानार्थी के साथ इस तरह का परिहास कलियुग में ही सम्भव है। 

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