*अब और किसी मंदिर को बचाने के लिये उनकी कोई योजना नहीं है। वे औरंगजेब रोड का नाम बदलने के पक्ष में नहीं हैं। वे दासता के किसी भी प्रतीक को समाप्त करने के पक्ष में नहीं है। वे उन्हें भी साथ लेकर चलने के लिये तैयार हो चुके हैं जो हमारे अस्तित्व के लिये चुनौती बने रहे हैं, बने हुये हैं। वे खीर में लाल मिर्च को मिलते हुये देखने के लिये तैयार हैं।*
तब
हिन्दुओं को ऐसे किसी स्वयंभू ठेकेदार की आवश्यकता ही क्या है, क्यों है?
कट्टर
साम्प्रदायिक लोग उस देश को इस्लामिक और ईसाई देश बनाना चाहते हैं जो मौलिक रूप से
सनातनी देश रहा है, जो मतभिन्नता को भी सहिष्णुता के
साथ स्वीकार करता रहा है, जो अपने विरोधियों का भी सम्मान
करता रहा है, जिसने राज्य के विस्तार के लिए
अपने किसी पड़ोसी देश पर कभी आक्रमण करने का विचार भी नहीं किया।
जब कोई
सनातनी हिन्दू-देश की बात करता है तो सारे साम्प्रदायिक और हिन्दूद्वेषी अतिविद्वान
उस पर टूट पड़ते हैं। पूरा विश्व साम्प्रदायिक कट्टरवाद का साक्षी होता रहा है।
भारत को समाप्त करने के लिये सेक्युलरिज़्म, मिली-जुली संस्कृति, और आर्यन इन्वेज़न जैसे छद्म सिद्धांत गढ़ लिये गये हैं। कोई अतिविद्वान
चिंतक यह नहीं कहता कि विश्व में कम से कम एक हिन्दू देश क्यों नहीं होना चाहिये, और क्यों भारत एक इस्लामिक देश होना चाहिये?
यह सही है
कि सनातन परम्परा समावेशी और सहिष्णु रही है पर प्रतिरोध की भी समावेशिता!
विनाशकारी आक्रमण के प्रति भी सहिष्णुता! यह तो सिद्धांतों के अतिवाद और उनके
दुरुपयोग का हठ है।
भारतीयता, सनातन और हिन्दुत्व की चर्चा तो बहुत से लोग करते हैं पर इस तरह
के किसी निष्ठावान संगठन का अभाव दिखाई दे रहा है। वे हिन्दुत्व की बात करते हैं
पर समय-समय पर सनातनी प्रतीकों को भुला देने और इस्लामिक प्रतीकों को साथ लेकर
चलने के पक्ष में खड़े दिखायी देते हैं। वे भारतीय मूल्यों और गौरव की बात करते हैं
पर इस्लामिक मूल्यों और दासता के प्रतीकों को जीवित बनाये रखने की हीनबोधता को
बनाये रखना चाहते हैं। यही सब तो गजवा-ए-हिन्द वाले भी चाहते हैं। फिर भारत को ऐसे
किसी भी छद्म ठेकेदार की क्या आवश्यकता?
भारत का
सामान्य सनातनी इस तरह की किसी व्यवस्था को कभी स्वीकार नहीं करेगा जो कालांतर में
सनातनी संस्कृति को ही समाप्त कर देने का कारण बन जाय।
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