विपक्षी दलों की नैतिक-राजनैतिक निर्बलता और सिद्धांतहीनता के कारण वर्ष २०२४ के लोकसभा चुनाव में भाजपा बहुमत से दूर रहकर भी गठबंधन-सरकार बना सकने में सफल रही। यह सभी पक्षों के लिये निष्ठापूर्वक और तटस्थभाव से आत्मनिरीक्षण का समय है। इस चुनाव ने स्पष्ट कर दिया है कि कोई भी राजनैतिक दल सनातनी मूल्यों और सांस्कृतिक समाज के प्रति लेश भी गंभीर नहीं है।
सत्तापक्ष
सहित सभी राजनैतिक दल भारत के सनातनियों की उपेक्षा करते हये केवल मुस्लिमों को
रिझाने में लगे रहने की परम्परा को और भी सुदृढ़ करने में अभी भी लगे हुये हैं।
भाजपानीत शासन में भी सर्वहितकारी राष्ट्रधर्म की उपेक्षा की जाती रही और देश में
अराजक शक्तियाँ और भी शक्तिशाली होती रहीं। पिछली बार की तरह इस बार भी अराजकता और
हिंसा के गढ़ बन चुके पश्चिम बंगाल के लोगों को केंद्र सरकार द्वारा उसके अपने हाल
पर छोड़ दिया गया।
नरेंद्र
मोदी ने मुसलमानों को देश की मुख्यधारा में लाने के लिये उन्हें हर सम्भव लाभ पहुँचाने
का प्रयास किया पर इस्लामिक कट्टरवाद के सामने वे उनका वोट नहीं ले सके, योगी जी
भी नहीं ले सके। भारत के बहुत कम मुसलमान सनातनी और राष्ट्रवादी हैं, उन्हें छोड़कर
अधिकांश मुसलमान भारत को इस्लामिक देश बनाने पर तुले हुये हैं। जो भी राजनीतिक या
सामाजिक दल इस सत्य की उपेक्षा करेगा वह भारत के हिन्दुओं का ही नहीं अन्य साम्प्रदायिक
समाजों का भी अहित ही करेगा।
राष्ट्रहित
को सम्प्रदाय-हित की सभी सीमाओं से मुक्त और ऊपर रखने और एक रचनात्मक वातावरण बनाने
के लिए विभिन्न समुदायों को आगे आना ही होगा अन्यथा अंतरकलहों और युद्ध से बचना सम्भव
नहीं होगा। पिछले त्तीन दशकों से विभिन्न देशों के गृहयुद्धों का इतिहास हम सबके सामने
है।
जो लोग
इतिहास को भूलकर आगे बढ़ने की बात करते हैं उन्हें राष्ट्रवादी और सनातनी नहीं माना
जा सकता। जो लोग प्राचीन गौरव, भवन-स्थापना, महत्वपूर्ण मंदिरों और भारतीय मूल्यों
के प्रतीकों को भूल जाने की बात करते हैं उन्हें राष्ट्रवादी और सनातनी नहीं माना
जा सकता। जो लोग बाबर और बख़्तियार ख़िलजी जैसे अत्याचारियों के प्रतीकों को समाप्त न
करने के पक्ष में खड़े दिखायी देते हैं उन्हें भारतीय महापुरुषॉं का अनुसरणकर्ता नहीं
माना जा सकता।
सनातनी
संगठनों को इस तरह के आत्मघाती चिंतन को छोड़ना होगा अन्यथा भारत को अफगानिस्तान और
पाकिस्तान बनने से कोई शक्ति रोक नहीं सकेगी। निस्संदेह, इंडिया को भारत बनाने के
मार्ग में आने वाली हर बाधा को समाप्त करके ही हिन्दुओं का अस्तित्व बच सकेगा, किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि अ-सनातनियों के लिये भारत
में कोई स्थान नहीं होगा, वे भी रहेंगे, किंतु उन्हें भी पारसियों की तरह देश की रचनात्मक
मुख्यधारा में सम्मिलित होना होगा। सनातनी भारत में ऐसी कोई भी गतिविधि अस्वीकार्य
होगी जो सनातनियों की जीवनपद्धति, उनके मूल्यों और उनके विकास में बाधा उत्पन्न
करेगी या उन्हें समाप्त करने के हिंसक प्रयास करेगी।
भाजपा के
शासनकाल में देश का तकनीकी और आर्थिक दृष्टि से तो उल्लेखनीय विकास हुआ पर सामाजिक
और सांस्कृतिक दृष्टि से अपेक्षित सुधार नहीं हो सका। भेदभाव और सामाजिक अन्याय में
भी कमी नहीं हो सकी। यह सामाजिक विघटन की निरंतरता है जिसे रोकने के लिये हर
व्यक्ति को सामने आना चाहिये। सच्चा राष्ट्रधर्म तो यह है कि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक
जैसे शब्द ही सामाजिक-राजनैतिक भेदभावमूलक होने के कारण त्याज्य कर दिये जायँ। भाजपा
जैसे राजनीतिक दल भी जब ऐसे मकड़जाल में फँसे दिखायी देते हैं तो भारत के भविष्य को
लेकर निराशा होती है। सन् १९४७ से लेकर अब तक सामाजिक समानता निर्मित करने के स्थान
पर हमारी व्यवस्थाओं ने उसे और भी बढ़ाया ही है। जाति व्यवस्था को अभिषाप मानने
वाले राजनीतिक दल भी न केवल जातीय आधार पर प्रत्याशियों का चयन करते हैं, प्रत्युत जातीय जनगणना के पक्ष में भी खड़े दिखायी देने लगे
हैं, यह देश का विकास नहीं ह्रास है। राजनीतिक दल और चिंतक साम्प्रदायिक और जातीय
भँवरजालों का विरोध और समर्थन दोनों ही करते हैं, यह कैसी राजनीति है! ये लोग समाज
को समाज के रूप में कब देख सकेंगे?
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